दलित अस्मिता के सबसे पवित्र दिन यानी बुद्ध पूर्णिमा पर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने पार्टी के सबसे पुराने और भरोसेमंद मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बेटे अफजल सिद्दीकी को पार्टी से बाहर कर दिया. जाहिर है अगर बहनजी ने यह कठिन फैसला लिया है तो इसकी कुछ गहरी वजहें होंगी, जिन्हें सिद्दीकी और मायावती ही बेहतर जानते होंगे. जो वजहें दोनों पक्षों ने सार्वजनिक बयानों में बताई हैं, वे तो बताई ही जाती हैं.
सिद्दीकी की बसपा से बेदखली के बाद पहला सवाल यही उठेगा कि अब नसीमुद्दीन अगला राजनैतिक कदम क्या उठाएंगे और उनके बाहर होने से बसपा की सियासत पर क्या असर होगा? लेकिन इस बेदखली से एक सवाल और उठता है कि मायावती ने अपने भरोसेमंद सिपाही को ऐसे दौर में निकाला है जब भारतीय राजनीति के नैपोलियन नरेंद्र मोदी के सिपाहसालार अमित शाह देश भर में घूम-घूमकर दूसरी पार्टियों के नेताओं का भाजपा में स्वागत कर रहे हैं. भाजपा ने इस कदर दूसरे नेताओं के लिए पार्टी के दरवाजे खोले हैं कि कुछ प्रदेशों में पूरी की पूरी सरकार ही भाजपा में समा गई. दूसरी तरफ कांग्रेस है, जो हजार मुसीबतों के बावजूद नेताओं को निकाल नहीं रही है, भले ही उसके नेता एक-एक कर खुद भाजपा की पेशानी चूम रहे हों. ऐसे में अगर मायावती भी सिद्दीकी को निकालने के बजाय एक असंतुष्ट नेता की तरह पार्टी में बना रहने देतीं तो क्या पार्टी को अपेक्षाकृत कम नुकसान नहीं होता.
कहने वाले कह सकते हैं कि बसपा का वोट टिकाऊ है और नेताओं के आने जाने से फर्क नहीं पड़ता. लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही. 2007 के विधानसभा चुनाव में जोरदार प्रदर्शन और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद से बसपा में लगातार क्षरण हो रहा है. याद कीजिए 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मायावती अपने करीब एक दर्जन मंत्रियों को पार्टी से निकाल चुकी थीं. इनमें से कुछ मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी थे. इन निकाले जाने वालों में बाबू सिंह कुशवाहा भी शामिल थे. कुछ ऐसे मंत्री भी शामिल थे जो अब शान से बीजेपी की यूपी सरकार में मंत्री हैं. उस चुनाव में बसपा ने सत्ता गंवाई और सीटें आधी से कम रह गईं. 2017 आते-आते उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्य को भी पार्टी से निकाल दिया. मौर्य को भी बीजेपी ने हाथों-हाथ लिया और अब वे भी योगी सरकार में मंत्री हैं. 2009 की लोकसभा में बसपा के नेता सदन रहे दारा सिंह चौहान भी अब योगी सरकार में मंत्री हैं. मायावती के खास माने जाने वाले ब्रजेश पाठक भी बसपा छोडकर भाजपा में आए और अब योगी सरकार में मंत्री हैं.
बाबू सिंह कुशवाहा से लेकर मौर्य की विदाई तक पार्टी से निकाले गए नेताओं की एक लंबी कतार थी और इसका सीधा असर यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में तीन दशक से बसपा के साथ जुड़ा रहा अति पिछड़ा वर्ग भाजपा में चला गया. दलितों का एक वर्ग भी भाजपा में गया. मायावती एक खास किस्म की जिद में नेताओं की अपनी पोटली खाली करती जा रही हैं, जबकि उनकी पार्टी नए नेता पैदा करने में नाकाम है.
अब नसीमुद्दीन गए हैं तो पार्टी के साथ जो मुसलमान जुड़ा था, उसका मन कसैला हो गया है. बसपा अब भी कह सकती है कि वे जमीनी नेता नहीं थे और अपने दम पर विधानसभा चुनाव तक नहीं जीत सके, लेकिन क्या बसपा यह बता पाएगी कि 2017 विधानसभा चुनाव में 100 मुसलमानों को टिकट देने वाली पार्टी में मुस्लिम चेहरा कौन है? बसपा के ‘भीम’ का मीम यानी ‘म’ उससे छिटक गया, तो पार्टी कहां खड़ी होगी. सिद्दीकी की बरखास्तगी के साथ ही पार्टी के कई मुस्लिम नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है.
सिद्दीकी को बसपा ने ऐसे समय पर निकाला है जब एक तरफ सपा-कांग्रेस मुसलमानों को पूरी तरह अपने साथ लाने की कोशिश में हैं, तो भाजपा ने पूरी ताकत दलित वोटरों को अपने साथ लाने में लगा दी है. अगर मायावती को लगता है कि भाजपा उसका दलित वोट नहीं तोड़ पाएगी, तो यह उनका मुगालता है. मायावती को बसपा के उभार का वह दौर याद करना चाहिए जब तीन पार्टियों ने एक झटके में कांग्र्रेस के वोटरों को तीन तरफ से छीनकर उसकी 40 साल से यूपी में चली आ रही सत्ता को टाट पर ला पटका था. तब बीजेपी ने अगड़े, सपा ने पिछड़े और मुसलमान और बसपा ने दलित वोट खींचकर कांग्रेस को हतप्रभ कर दिया था.
बसपा को लगातार कमजोर कर मायावती दलितों की मौन क्रांति से पैदा हुई पार्टी को राजनीति के बियावान में धकेल रही हैं. उन्हें याद रखना चाहिए कि वे दलितों की कितनी भी लाड़ली क्यों न हों, लेकिन इस समय हिंदुओं के दिल पर मोदी का राज है. अगर मोदी प्यार और सम्मान से दलितों के लिए पार्टी की बाहें खोल रहे हैं तो एक वर्ग वहां बिलकुल जा सकता है. क्योंकि इस वर्ग को भी पता है कि चुनावी जीत के लिए कम से कम दो वर्गों की जरूरत होती है. ऐसे में बसपा से जुड़े रहने के बजाय ससम्मान भाजपा में जाना सत्ता की गारंटी है.
मायावती को अब यह जान लेना चाहिए कि वे नेताओं को नहीं वोटर समूहों को पार्टी से निकाल रही हैं. उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि विधानसभा चुनाव के दौरान यह अफवाह खूब उड़ी थी कि चुनाव बाद भाजपा-बसपा का गठबंधन हो जाएगा. यह अफवाह अतीत में भाजपा-बसपा के गठबंधनों के तजुर्बे के कारण कुछ ज्यादा ही फैली थी. अब नसीमुद्दीन की विदाई के बाद अगर बसपा के फिर भाजपा के करीब जाने की अफवाहें उडऩे लगें तो बसपा नेतृत्व को चकित नहीं होना चाहिए. उम्मीद करते हैं कि अगर बुद्ध पूर्णिमा पर मायावती ने यह कड़ा फैसला किया है तो इन सब अंदेशों पर पहले ही विचार कर लिया होगा. उनके पास बुद्ध का कोई मध्यम मार्ग होगा जिस पर वे दलितों की सियासत को ले जाएंगी. लेकिन यह सब उम्मीद ही है क्योंकि बसपा ने ऐसी कोई दूरदृष्टि अब तक सार्वजनिक नहीं की है.