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मुजफ्फरनगर में जिंदा है इंसानियत, बची हुई है अमन की उम्मीद, भाईचारे की मिसाल पेश कर रहे लोग

लोग कहते हैं कि सरकार और प्रशासन ने अमन कायम करने के लिए सही कदम नहीं उठाए, लेकिन मुजफ्फरनगर के आम बाशिंदे यह काम बखूबी कर रहे हैं. इसी शहर के कुछ गांव, कुछ जगहें ऐसी भी हैं, जहां भाईचारे के गुल उसी शिद्दत से खिले हुए हैं.

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मुजफ्फरनगर
मुजफ्फरनगर

मुजफ्फरनगर में अमन के लौटने की उम्मीद नजर आ रही है. हिचकती-सहमती गलियां एक बार फिर जिंदगी की रफ्तार के लिए तैयार हो रही है. संगीनों के साए में बुधवार दोपहर 12 से 4 बजे के बीच कर्फ्यू में ढील मिली, तो कारोबारियों से लेकर आम लोगों ने भी राहत महसूस की.

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लोग कहते हैं कि सरकार और प्रशासन ने अमन कायम करने के लिए सही कदम नहीं उठाए, लेकिन मुजफ्फरनगर के आम बाशिंदे यह काम बखूबी कर रहे हैं. इसी शहर के कुछ गांव, कुछ जगहें ऐसी भी हैं, जहां भाईचारे के गुल उसी शिद्दत से खिले हुए हैं.

कवाल गांव: आओ कि गुलशन का कारोबार चले

कवाल गांव, जहां से सारा बवाल शुरू हुआ था, के रहने वाले लोग भी अब अमन की उम्मीद बुन रहे हैं. यहीं हुई थी वह महापंचायत जहां से आदमी और आदमीयत के बीच की बुनियाद को बवालियों ने बर्बाद कर डाला था. उम्मीद की आस में भीगी नूरभाई की नजरें बार-बार ओसारे की ओर जाती हैं, कि कोई लौट आया होगा, किसी की अच्छी ख़बर आई होगी. बहुत उदास हैं गलियां. ये गांव बहुत रोया है.

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यहां के लोग कहते हैं, अब अमन होना चाहिए जो होना था वो तो हो गया. कांपते हुए कदमों से ही सही लेकिन लोग निकलने लगे हैं चौपाल की ओर. दर्जी बैठने लगा है अपनी दुकान पर कि वो फिर से सिल देगा अमन की फटी हुई आस्तीन. कुछ नौजवानों ने लूडो निकाल लिया है कि उनके रंगीन घेरों की बिसात से ही खिलेंगे फूल. बाज़ार खुल रहे हैं कि बहार लौटेगी.

कहां से लाएं उन कहारों जो बहारों की टूटी हुई गुल्लक को फिर से जोड़ दे. कहां से लाएं वो चित्रकार जो इसी आसमान में एक इंद्रधनुष बना दें. कहां से लाएं वो जादूगर जो सूनी मस्जिदों के कंगूरों पर कबूतरों के झुंड बिठा दे. कहां से लाएं वो संगीतकार जो मंदिरों की सीढ़ियों पर सपनों के दीप जला दे.

गांव के एक बुजुर्ग से पूछा तो उन्होंने फैज अहमद फैज का यह मकबूल शेर सुना दिया, 'गुलों में रंग भरे बादे नौ बहार चले, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले'.

स्थानीय निवासी शमीम अख्तर ने अपील की कि जो लोग अपने घर छोड़कर गए हैं, वे जल्दी लौट आएं. यहां अमन है, शांति है.

जी हां. यह भी मुज़फ्फरनगर है. क़त्ल ओ गारत की सहमी हुई सूरत बदल रही है. पड़ोसी जाग रहे हैं बाजार गई बेटी के इंतजार में. मौलाना ने मिश्राजी की खैरियत पूछी है. अब्बू ने आसमान में अमन के परिंदे देखे हैं. कौन कहता है शाहजहां का ये शहर सहमा हुआ है. आकर तो देखो. आरती और इबादत को मिलाकर तो देखो.

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जिला अस्पताल: इस बच्चे की कौम क्या है

इस बच्चे की नज़रों की कौम क्या होगी. आपको इस सवाल पर हैरत हो सकती है, लेकिन उन्हें नहीं होती जो जिंदगी को नफरत के पैमाने से नापने चले थे. मुज़फ्फरनगर के जिला अस्पताल में इस बच्चे की मां अब भी बेसुध पड़ी हुई है और बहनों का इलाज चल रहा है. लेकिन पूरा गांव मजहब और जाति से परे बच्चे की तिमारदारी में लगा है.

बच्चे का परिवार बलवाइयों से जैसे-तैसे बचा था. सिर्फ सांस बची थी. नहीं पता वो हिंदू थे या मुसलमान लेकिन इंसान की जान को प्यासे थे. हिंदुओं का गांव सबको उठाकर अस्पताल ले आया. और पूरा गांव डटा रहा जब तक डॉक्टर ने बोल नहीं दिया कि अब बच्चे को कोई ख़तरा नहीं.

दहशत के दाग से ढके मुज़फ्फरनगर में जिंदगी का यह भी एक सलीका है. आपको यह जानकर हैरत होगी कि बच्चे का परिवार अभी तक नहीं आया है. उन्हें ख़बर दी गई है. लेकिन गांव वाले तब तक नहीं जाएंगे जब तक बच्चे को खेलने के लिए अपने पिता की गोद न मिल जाए. पता नहीं कौन दूध लेकर आया, कौन ले आया दवाई और किसने लगवाई सुई. पता है तो सिर्फ इतना कि किसी ने किसी की कौम नहीं पूछी थी.

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सच है कि मुज़फ्फरनगर जला है. सच है कि वीरान हुई हैं बस्तियां. सच है कि मारे गए हैं लोग. लेकिन सब से बड़ा सच यह है कि सन्नाटों के प्रेतों से लड़ रही हैं जिंदगी की हसरतें. आंसुओं को अमृत में बदल रहे हैं कुछ लोग. उम्मीद है कि बिखरी हुई बोलियां फिर जुड़ेंगी, फिर बसेंगी बस्तियां, फिर खड़ा होगा मुज़फ्फरनगर विश्वास की धुरी पर.

जॉली गांव: भाईचारे के किस्सों की किताब
उस रात चीख की कुछ आवाज़ों पर जागा जॉली गांव आज तक नहीं सोया. नींद कैसे आती. पड़ोसी का घर जला था. नफरत की नश्तर से इंसानियत की कब्रें खोदी थीं कुछ लोगों ने. लेकिन जब सब कुछ ख़त्म हो जाए तब भी हलक में इतनी प्यास बची रहती है कि नदियों का मोल समझ में आए. समंदर को बचा लेने का जी करे और ताल तलैयों की पहरेदारी का मन करे. देखते ही देखते इस मंदिर के चारों तरफ एक अभेद्य घेरा बनता चला गया इंसानों का. कौम की टूटी हुई दीवारों पर.

इसे भी मुज़फ्फरनगर ही कहते हैं. नफरतों की बहती हुई नदी के बीचों-बीच बचा हुआ किला जहां इंसान रहते हैं. दर्द में भीगी हुई आवाजें ख़ुद बताती हैं अगर फौरन फ़ैसला न किया होता तो पता नहीं कितना कुछ बर्बाद हो जाता.

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मारने वालों का न कोई कौम था और न ही ईमान. लेकिन ये तय था कि वो इंसान नहीं थे. बिल्कुल नहीं थे.

अल्लाह की बंदगी में उठने वाले हाथों ने आरती की थाल सजाई. सजदे में झुकने वाले माथों ने मंदिर का डोला सजाया. पठान के घर का दूब, अंसारी के घर से आया दूध, सैयद ने कपूर भेजा और शेख ने दीया. अब आप ही बताइए कौम और किसे कहते हैं, और किसे कहते हैं ईमान.

जॉली गांव भाईचारे के किस्सों की किताब बन गया है. हर पन्ने एक तरफ दहशत की तस्वीर है और दूसरी तरफ इंसानियत की नजीर. ये जॉली गांव नहीं जिंदगी गांव है. जो झांक रही है झंझावातों के बीच जूझते हुए चेहरों से.

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