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यूपीः काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद मामले में सामने आया नया पक्ष, शक्ति पीठ होने का भी दावा 

मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान के बाद अब वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर की मुक्ति के लिए एक और मुकदमा अदालत की चौखट पर पहुंच गया है. काशी में एडिशनल सिविल जज कुसुम लता त्रिपाठी इस मामले की सुनवाई कर रही हैं.

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 काशी विश्वनाथ मंदिर (फाइल फोटो)
काशी विश्वनाथ मंदिर (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पूजा का अधिकार बहाल करने की उठी मांग 
  • एडिशनल सिविल जज के यहां होगी सुनवाई 

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में काशी विश्वनाथ की शक्ति पराम्बा श्रृंगार गौरी और आदि विश्वेश्वर की ओर से ये मुकदमा सिविल कोर्ट में दायर किया गया है. यहां देवी श्रृंगार गौरी की ओर से वकील रंजना अग्निहोत्री, जम्मू कश्मीर के अंकुर शर्मा, जितेंद्र सिंह सहित कई वादी हैं. याचिका में धर्म स्थल अधिनियम 1991 को चुनौती देते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 25 में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ बताया है.

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इस मामले में याचिकाकर्ताओं के वकील हरिशंकर जैन के मुताबिक याचिका में भारत और उत्तर प्रदेश की सरकार के साथ वाराणसी के जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी और ट्रस्ट ऑफ काशी विश्वनाथ मंदिर को भी पक्षकार बनाया गया है.

अधिवक्ता जैन ने बताया कि याचिका में पुराणों और अन्य शोध ग्रंथों के हवाले से मुख्य दलील दी गई है कि काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों ओर पांच कोस के दायरे में काशी अविमुक्त क्षेत्र है, जहां की अधिष्ठात्री देवी श्रृंगार गौरी स्वयंभू हैं. याचिका में पांच कोस के दायरे को धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र की अवधारणा और स्थापना के साथ पवित्रता के इस दावे की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए स्कन्द पुराण और शिव महापुराण के श्लोकों का हवाला भी दिया गया है.

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ये भी कहा गया कि आदि विश्वेश्वर मन्दिर के मूल अहाते में देवी श्रृंगार गौरी की पूजा निरंतर होने के भी प्रमाण पुराण बताते हैं. 1669 में तब के मुगल शासक औरंगजेब ने श्रृंगार गौरी के भव्य मंदिर के एक बड़े हिस्से को ध्वस्त करा दिया था.

याचिका में कहा गया है कि प्राचीन पौराणिक देवता पूरे भूभाग के ​कानून स्वामी हैं. उस भूभाग के एक हिस्से पर जबरन किए गए निर्माण को मस्जिद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये निर्माण अधिकार से नहीं बल्कि अतिक्रमण से किया गया है. याचिका में पूजा स्थल अधिनियम 1991 के लागू होने की सामान्य अवधारणा के विपरीत यह कहा गया है कि उक्त अधिनियम वर्तमान मंदिर पर लागू नहीं है.

याचिका में यह भी कहा गया है कि 1936 के सिविल वाद संख्या 62 का फैसला भी उच्च न्यायालय ने 1942 में ही किया था. उस मामले में भी तत्कालीन भारत सरकार ने विवादित प्रश्नगत संपत्ति पर मुस्लिमों के अधिकार को नकारते हुए लिखित बयान दिया था. उस मामले में 12 गवाहों ने अदालत के सामने उक्त धार्मिक स्थल पर लगातार पूजा पाठ होने की बात स्वीकारी थी, यानी 15अगस्त 1947 तक भी उक्त श्रृंगार गौरी मंदिर और आसपास के क्षेत्र की स्थिति और चरित्र सनातन धर्मिक ही था. याचिका में मांग की गई है कि भगवान आदि विश्वेश्वर और देवी श्रृंगार गौरी की अनवरत सेवा पूजा का अधिकार फिर से बहाल किया जाए.

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