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पालकी न कहार, दुल्हन कैसे हो डोली में सवार?

फिल्मी गीत 'पालकी में होके सवार चली रे, मैं तो अपने साजन के द्वार चली रे' और 'चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई' पहले जरूर प्रासंगिक थे, लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है.

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फिल्मी गीत 'पालकी में होके सवार चली रे, मैं तो अपने साजन के द्वार चली रे' और 'चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई' पहले जरूर प्रासंगिक थे, लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है. विशेष कर बुंदेलखंड में अब किसी भी दूल्हा-दुल्हन को ससुराल जाने के लिए पालकी या डोली नसीब नहीं हो रही है. आधुनिकता की अंधी दौड़ में जहां लकड़ी की पालकी व डोली धूल फांक रही हैं, वहीं उसको ढोने वाले कहार भी बेरोजगार बैठे हैं.

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उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में एक दशक पूर्व तक आधुनिकता का कहीं नामो-निशान नहीं था, तब शादी-विवाह की दावत में बड़ी मुश्किल से कोई साइकिल से चलकर शरीक हुआ करता था और दूल्हे की निकासी व द्वारचार लकड़ी से बनी पालकी की सवारी और दुल्हन की बिदाई डोली में हुआ करती थी. लेकिन बेहद गरीबी का दंश झेल रहे इस बुंदेलखंड में भी अब फैशन का दौर सिर चढ़कर बोल रहा है.

पहले दूर-दराज को जाने वाली बारातें भी बैलगाड़ी (सग्गर या लढ़ी) से ही जाया करती थीं. ग्रामीण या शहरी क्षेत्र के लोग उड़ती हुई धूल और बैलों की सजावट से वर पक्ष के आर्थिक ढांचे का मूल्यांकन किया करते थे. पर, इधर जमाना बदला और पुरानी परंपराएं व संसाधन भी बदल गए. इतना ही नहीं, तीन दिन के बजाय अब 12 घंटे में ही शादी-विवाह की रस्में निपटने लगी हैं.

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इस आधुनिकता की दौड़ में जहां लकड़ी से बनाई जाने वाली पालकी लंबरदारों (जमींदार) के घरों में पड़ी धूल फांक रही है, वहीं दुल्हन की विदाई के लिए बनाई जाने वाली डोली भी कहीं नजर नहीं आती. और तो और, पालकी व डोली ढोने वाले कहार (अति पिछड़े वर्ग की एक जाति) सहालग में बेरोजगार होकर अपने घरों में बैठ गए हैं. वजह भी साफ है, शादी-विवाह में ईंधन से चलने वाले वाहनों का प्रयोग होने लगा है. इससे पालकी और डोली को ग्रहण सा लग गया है.

बांदा जिले में तेंदुरा गांव का रहने वाला नत्थू कहार बताता है कि 10 साल पहले तक उसका कुनबा सहालग (शादी-विवाह का मौका) में पालकी और डोली ढोने में खासी रकम कमा लिया करते थे, अब इधर छोटे-बड़े सभी लोगों की शादियों में चौपहिया वाहनों का इस्तेमाल होने लगा है, जिससे वे बेरोजगार हो गए हैं.

इसी गांव के रहने वाले जमींदार शेषकुमार सिंह बताते हैं कि उनके पुरखों द्वारा बनवाई गई लकड़ी की पालकी घर की चौपाल में पड़ी सड़ रही है. पहले लोग पालकी के लिए चिट्ठियां लगाया करते थे, अब कोई पूछता तक नहीं है. वह बताते हैं कि पहले दूल्हे की अपने गांव से निकासी पालकी की सवारी से होती थी, अब घोड़े से हो रही है और बारात बैलगाड़ी से जाया करती थी तो वह अब वाहनों से जाती है.

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इस गांव में शादी-विवाह और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले बुजुर्ग ब्राह्मण पंडित मना महाराज गौतम का कहना है, "जमाने के साथ लोग बदल गए हैं, जिससे पुरानी परंपराएं बंद होती जा रही हैं. वाहन आदि से सिर्फ फिजूलखर्ची बढ़ रही है.' वह कहते हैं कि पालकी और डोली शुभदायक होते हैं, लेकिन लोग अब दुल्हन को भी मारुति में विदा कर ले जाने लगे हैं.

दलित समाज के चिंतक संत सत्बोध दाता साईं का विचार उनसे उलट है. उनका कहना है कि पालकी और डोली की सवारी दलित समाज के दूल्हा और दुल्हन के लिए वर्जित थी. ग्रामीण क्षेत्र में इस समाज के दूल्हे की निकासी पैदल होती थी और दुल्हन की विदाई सग्गर से की जाने की परंपरा रही है, कम से कम आधुनिकता ने दलित समाज को बराबरी का दर्जा तो दिया.

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