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पूर्वांचल में हार से बनारस में बढ़ेंगी पीएम मोदी की मुश्किलें!

नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस संसदीय सीट को अपनी कर्मभूमि के लिए चुना था. इसी का नतीजा था कि पूरे पूर्वांचल में सपा, बसपा और कांग्रेस पूरी तरह से साफ हो गई थी. सिर्फ आजमगढ़ सीट से सपा के मुलायम सिंह यादव जीत सके थे और उन्हें भी जीतने में पसीने छूट गए थे.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)

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उत्तर प्रदेश की फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में सपा की जीत ने बीजेपी के दिन का चैन और रात की नींद हराम कर दी है. ये दोनों सीटें पूर्वांचल से आती हैं और पीएम नरेंद्र मोदी की कर्मभूमि बनारस के दोनों छोर पर हैं. एक तरफ फूलपुर तो दूसरी तरफ गोरखपुर. उपचुनाव में सपा-बसपा की एकजुटता से विपक्ष को मिला जीत का फार्मूला पीएम मोदी के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर सकता है.

नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस संसदीय सीट को अपनी कर्मभूमि के लिए चुना था. इसी का नतीजा था कि पूरे पूर्वांचल में सपा, बसपा और कांग्रेस पूरी तरह से साफ हो गई थी. सिर्फ आजमगढ़ सीट से सपा के मुलायम सिंह यादव जीत सके थे. उन्हें भी जीतने में पसीने छूट गए थे.

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बता दें कि यूपी सत्ता का फैसला पूर्वांचल तय करता रहा है. 2007 में मायावती का सत्ता में आना रहा हो या फिर 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की वापसी, पूर्वांचल क्षेत्र से मिली बड़ी जीत ने ही अहम भूमिका अदा की थी. इसी तर्ज पर यूपी 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सूबे की सत्ता में वापसी के लिए मोदी ने बनारस में तीन दिनों तक डेरा डालकर सपा और बसपा को धराशायी कर दिया था.

23 साल पुरानी दुश्मनी को भूलकर सपा-बसपा एक हुए तो पूर्वांचल की सियासी हवा ने एक बार फिर अपना रुख बदल लिया है. इसी का नतीजा है कि उपचुनाव में फूलपुर और गोरखपुर में बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा है. इतना ही नहीं, भगवा दुर्ग गोरखपुर भी पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है. यह इसलिए भी खास है क्योंकि गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि है और पिछले पांच बार से वो सांसद रहे हैं. इतना ही नहीं डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य भी फूलपुर में अपना किला नहीं बचा पाए, जिसे आजादी के बाद मोदी लहर में पहली बार 2014  में जीत मिली थी.

बीजेपी की हवा मंद

दोनों सीटों पर उपचुनाव में जिस तरह से सपा ने वापसी की है, उसके बाद से राजनीतिक पंडित मान रहे हैं कि सूबे में बीजेपी की हवा मंद पड़ गई है. पिछले एक साल में सीएम योगी ने भले ही यूपी से बाहर पार्टी के लिए माहौल बनाया हो, लेकिन वे खुद का घर नहीं बचा सके. बीजेपी की हवा एक साल में कमजोर होने लगी है. ऐसे में पूर्वांचल की दोनों सीटों पर बीजेपी की हार का सियासी असर बनारस को भी अपनी जद में ले सकता है.

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विपक्ष को जीत का फार्मूला

फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव से विपक्ष को जीत का फार्मूला मिल गया है. 2014 के बाद से बीजेपी जिस तरह से एक-एक करके विपक्ष को मात दे रही थी, ऐसे में सूबे के उपचुनाव नतीजे संजीवनी साबित हो सकते हैं. इस जीत के बाद माना जा रहा है कि 2019 में बीजेपी को मात देने के लिए विपक्ष एकजुट हो सकता है.

हिंदुत्व बनाम जाति कार्ड

बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड पर विपक्ष का जातीय कार्ड भारी साबित हुआ. जाति के आधार पर बीजेपी को हमेशा नुकसान उठाना पड़ा है. बिहार,गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद यूपी के उपचुनाव में भी इसका असर दिखा. सपा बसपा के एक साथ आने से दलित, ओबीसी, खासकर यादव और मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर वोट किए, जबकि बीजेपी के सवर्ण वोटों में बिखराव दिखा. मोदी की संसदीय सीट बनारस में भी दलित, मुस्लिम और ओबीसी मतदाता एकजुट होते हैं तो 2019 में मोदी के लिए कड़ा मुकाबला सामना करना पड़ सकता है.

ब्रांड मोदी को बड़ी चुनौती

अखिलेश और मायावती का साथ आना ब्रांड मोदी के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है. अखिलेश और मायावती दोनों के पास सूबे में अच्छा खासा वोट है. ऐसे में दोनों 2019 में एक साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो सूबे में 2014 जैसा परिणाम दोहराना मुश्किल हो जाएगा. बता दें कि 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने में यूपी की अहम भूमिका रही है. 80 में से बीजेपी गठबंधन ने 73 सीटों पर जीत हासिल की थी.

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