आजमगढ़ की धरती पर वैसे तो बहुत कुछ है, लेकिन हम आपको लेकर चलते हैं, आज़मगढ़ की दो शख्सियतों के इलाके में. वैसे तो दोनों ही किसी नाम के मोहताज नहीं, लेकिन फ़र्क़ ये है कि, एक पीछे पूरा इलाका है, तो दूसरे के अपने इलाके से होने पर लोग करना चाहते हैं किनारा. एक के हाथ की कलम ने आजमगढ़ को दुनिया के नक़्शे में सुनहरे अक्षरों दर्ज कराया, तो दूसरे ने हाथ में बन्दूक पकड़कर दुनिया भर में आजमगढ़ को शर्मसार कर दिया.
जी हां, हम बात कर रहे हैं प्रसिद्ध कवि कैफ़ी आज़मी की, जो आज़मगढ़ के फूलपुर इलाके के मेजवां गांव के रहने वाले थे, तो वहीं मेजवां से सटे सरायमीर का रहने वाला अंडरवर्ड डॉन अबु सलेम.
पहले चलते हैं, सरायमीर, जहां मुस्लिमों की अच्छी खासी आबादी है, लेकिन अबू सलेम इनके लिए एक आफत है. यहां कोई उसके बारे में बात नहीं करना चाहता. लोगों को नफरत है कि, मीडिया में इस इलाके को अबू सलेम से जोड़कर दिखाया जाता है, जिसका उनको खासा नुक्सान होता है.
आजतक ने सरायमीर की गलियों में घुसकर अबू सलेम के घर का पता खोजा. अबू सलेम की कोठी मिली, लेकिन उसमें कोई रहता नहीं, देखकर लगता है कि, कोठी बनी तो शानदार थी, लेकिन अबू सलेम के बुरे दिन आये, तो शायद कोठी के भी आ गए. कोठी के सामने बड़ा कूड़ेदान है, तो पास में ही एक मस्जिद भी है.
डॉन से परहेज
डॉन या डॉन की कोठी के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता, उलटे लोग लड़ाई झगड़े पर उतारू हो जाते हैं, अगर कोई अबू सलेम की बात छेड़ता है.
दरअसल, यहां के लोगों का मानना है कि, अबू सलेम जब तक यहां था, तो सामान्य लड़का था, उसने यहां से बाहर जाकर जो किया, उससे इस इलाके को जोड़
दिया गया, जिसका इस इलाके के लोगों को खासा नुकसान हुआ.
वो कहीं जाते हैं और बताते हैं कि, वो आज़मगढ़ के सरायमीर से हैं, तो उनको हॉस्टल, होटल, मकान, नौकरी नहीं मिलती, लोग उनको शक की निगाह से देखते हैं. यहां और कोई कैमरे पर बात नहीं करना चाहता. बमुश्किल एक पत्रकार आज़म ने इस परेशानी को आजतक से बयां किया.
इस इलाके में आगे चलकर हमने तमाम नौजवानों से बात की, तो सब अबू सलेम को बीता एपिसोड मानकर आगे बढ़ने की बात करते हैं. कोई डॉक्टर बनना चाहता है, तो कोई अपना व्यापार आगे बढ़ाना चाहता है. सरकार से ये पढ़ाई-लिखाई की तरक़्क़ी की सुविधाएं चाहते हैं.
परदेस का पैसा
वैसे दिलचस्प है कि, यहां एक कस्बे के लिहाज से कहीं बड़ी दुकानें और कोठियां भी नज़र आती हैं. पड़ताल करने पर मालूम होता है कि, यहां रोज़गार की खासी कमी है, इसलिए यहां का नौजवान जल्दी से जल्दी पासपोर्ट बनवाकर खाड़ी देशों में जाकर नौकरी करना चाहता है. वो वहां जाकर कुछ साल नौकरी करता है, फिर पैसे इकट्ठा करके वापस आता है. उसी पैसे से घर बनवाता है, खर्च चलाता है और फिर पैसा ख़त्म तो दोबारा चला जाता है. हमें बाइक पर नन्हें भाई मिले, इसी साल बालिग हुए हैं. खुश हैं कि पासपोर्ट बन गया है, चश्मा वगैरा खरीद लिया है, अगले महीने दुबई जा रहे हैं.
जो विदेश नहीं जा पाते वो मुम्बई, पुणे, कोलकाता जाकर रोजगार की तलाश करते हैं, लेकिन वक़्त चुनाव का है तो तमाम लोग इलाके में हैं. कई लोग शारजाह और दुबई से आए हैं. वो बात करते हुए कहते हैं कि, यहां रोज़गार नहीं है, इसलिए हम वहां नौकरी और व्यापार करते हैं. पर वहां जितने प्यार से हिंदुस्तान के हिंदू-मुस्लिम रहते हैं, यहां नहीं. इससे दुःख होता है.
सरकार को यहां रोजगार के लिए क़दम उठाने चाहिए. अबू सलेम से सरायमीर को जोड़ने के सवाल पर शरजाह में रहने वाले हबीब कहते हैं, ' शिब्ली साहब का आजमगढ़ है ये, हमको पॉजिटिव देखना चाहिए, निगेटिव नहीं.'
वैसे चुनाव प्रचार के दौरान हमको अबु असीम आज़मी भी मिल गए. वो खुद इसी इलाके के हैं, लेकिन मुम्बई में बस गए हैं. समाजवादी आज़मी कई दिनों से यहां डेरा डाले हैं. रोज़गार ना होने के सवाल का जवाब आज़मी अपने ही अंदाज़ में देते हैं. वह कहते हैं कि, यहां का नौजवान विदेश जाकर नौकरी करता है, तो जनसंख्या पर नियंत्रण होता है, वहां से पैसा लाकर यहां खर्च करके हमारी इकॉनमी को फायदा पहुंचाता है. यहां बड़ी दुकानों और कोठियों की वजह भी विदेश में रोजगार करके पैसा कमाकर लाने वाले नौजवान ही हैं.
कैफी पर फख्र
आज़मी कहते हैं कि रोजगार ना मिलने के लिए वो लोग ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने सालों तक सरकार चलायी. इसके बाद सरायमीर से सटे फूलपुर कैफ़ी आज़मी के गांव मेजवां का नज़ारा देखिये. मेजवां जाने वाली सड़क का नाम कैफ़ी आज़मी मार्ग है, आगे चलकर गांव की एक सड़क को उनकी अदाकारा बेटी शबाना आज़मी का नाम दिया गया है. बाकी गांवों की तुलना में यहां हालात बेहतर दिखते हैं.
गांव के लोग कहते हैं कि, कैफ़ी साहब और शबाना जी के चलते हम कहीं भी जाते हैं इज़्ज़त मिलती है. कैफ़ी साहब का गांव होने के चलते यहां विकास के कामों को जल्दी हरी झंडी मिल जाती है और शबाना आज़मी उसमें अहम भूमिका निभाती हैं.
चुनावी शोर से दूर मेजवां में शांति और सुकून नज़र आता है. कैफ़ी साहब की कोठी भी सुनसान पड़ी है. यहां का बूढ़ा चौकीदार राम बताता है कि, कोठी 1982 में बनी थी, पर वो कैफ़ी साहब के साथ 1981 से है. कोठी में कैफ़ी साहब की प्रतिमा और फोटो के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा भी है, जिसको कभी कैफ़ी साहब ने उठाया था.
तो इसी आजमगढ़ की ये दो शख्सियतें हैं, जिसमें एक के नाम से वो जाना जाना चाहता है और दूसरे की बदनामी से पीछा छुड़ाना चाहता है.