बीजेपी की जीत का परचम बिहार और उपचुनावों में हर तरफ लहराया तो भला उत्तर प्रदेश उससे अलग कैसे रह सकता था. यूपी उपचुनाव की 7 सीटों के नतीजों ने बीजेपी और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को और मजबूत किया है. इन नतीजों ने यूपी के विपक्ष को कड़ा सबक भी दिया है. बीजेपी ने अपनी पिछली 6 सीटे जीतकर दबदबा कायम रखा. वहीं समाजवादी पार्टी ने मल्हनी सीट जीतकर बताया है कि यूपी में मुख्य विपक्षी पार्टी वही है. यूपी उपचुनाव नतीजों ने न सिर्फ एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर जैसी दलीलों को खारिज किया बल्कि संदेश भी दिया कि समाजवादी पार्टी, बीएसपी और खासतौर से कांग्रेस को बीजेपी के मुकाबले में आने के लिए कहीं ज्यादा कड़ी मेहनत करनी होगी. विपक्ष ने जो मुद्दे चुनाव में उठाए, वो लोगों को प्रभावित नहीं कर सके.
एक और संदेश इन उपचुनाव नतीजों से गया कि लोगों के दिलों में पैठ ट्विटर या सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफॉर्म्स के जरिए नहीं बनाई जा सकती है. इसके लिए जमीन पर उतरकर जनहित से जुड़े मुद्दों के लिए संघर्ष करना होगा. दीवार पर लिखी इबारत साफ है कि, बयान जारी करने और फिर चुप बैठ जाने से किसी की सियासी दाल नहीं गलने वाली, इसके लिए सड़कों पर पसीना बहाना होगा. हालांकि समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन बाकी विपक्षी पार्टियों से बेहतर रहा है. उसने मल्हनी सीट की जीत से अपनी कुछ प्रतिष्ठा को बरकरार रखा है. अखिलेश यादव की पार्टी ने ही उपचुनाव वाली कुछ अन्य सीटों पर भी मजबूत टक्कर दी है. दूसरी तरफ कांग्रेस और बीएसपी को यूपी में अपना राजनीतिक आधार दोबारा मजबूत करना है तो अपनी-अपनी रणनीतियों को और धार देनी होगी.
कांग्रेस के पास तर्क हो सकता है कि उसने बांगरमऊ में बीजेपी को सीधी टक्कर दी और घाटमपुर में मुकाबले को त्रिकोणीय बनाकर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. मायावती की बीएसपी भी कह सकती हैं कि उसने बुलंदशहर और घाटमपुर में भाजपा को सीधी टक्कर में दूसरे स्थान पर रहकर दिखा दिया कि प्रदेश की राजनीति से उसे नजरअंदाज करने की कोई भूल न करे. वहीं समाजवादी पार्टी ने मल्हनी सीट जीती और नौगावां सादात, देवरिया तथा टूंडला में दूसरे स्थान पर रही. उसने मत प्रतिशत में बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर रहकर यह दिखाया है कि प्रदेश में बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में सबसे ऊपर वही है.
समाजवादी पार्टी ने हालिया राज्यसभा चुनाव के दौरान बीएसपी के सात विधायकों को तोड़कर यह संदेश देने की कोशिश की थी कि पार्टी में शामिल होने की ख्वाहिश रखने वालों की फेहरिस्त लंबी है. उपचुनाव के नतीजों पर एसपी नेता जूही सिंह का कहना है, “बेशक ये नतीजे आत्ममंथन करने के लिए हैं पर हमने कुछ खोया नहीं है. बल्कि मल्हनी की सीट जीत कर हमने साबित किया है कि समाजवादी पार्टी ही असली मुकाबले में है. बीजेपी की तरह झूठ-सच परोसने की जगह समाजवादी पार्टी हथकंडों से अलग रहती है. हम अपने संघर्ष और तरीकों से आगामी विधानसभा चुनावों मे जनता के बीच जाएंगे और जीतकर दिखाएंगे.”
कांग्रेस उपचुनावों की जिन दो सीटों पर लड़ाई में रही, वहां पार्टी से ज्यादा स्थानीय उम्मीदवार का प्रभाव रहा, इसलिए उसे बांगरमऊ और घाटमपुर के आंकड़ों पर इत्मिनान करने के बजाय बाकी जगहों पर हाशिए पर होने की वजहों का मंथन करना चाहिए. इन चुनावों में साफ संदेश गया कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व का चमत्कार अभी जनता पर काम नहीं कर रहा है. यूपी विधानसभा चुनाव में अभी एक साल से ज्यादा बाकी है, ऐसे में कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी होगी वरना उसके हाथ खाली ही रहने वाले हैं. हालांकि, कांग्रेस के नेता ललन कुमार और प्रदेश अध्यक्ष अजय लल्लू का मानना है कि उन्होंने जनता के हितों के लिए लगातार संघर्ष किया है और आगे भी उसे जारी रखेंगे. उनका दावा है कि सरकार ने अपनी पूरी मशीनरी का इस्तेमाल करके फायदा उठाया है.
जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है, उसे यह हकीकत समझने की जरूरत है कि उसका दलितों के दिलों पर राज करने का वक्त पीछे छूट गया है. बीएसपी अब प्रदेश में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है. मायावती के तमाम सोशल मीडिया के दावों के उलट पार्टी के कार्यकर्ताओं में वो जोश नदारद है जो बड़े मुद्दों पर पार्टी सरकार को घेर सके. हाल ही मे हाथरस और बलरामपुर की दलित लड़कियों से कथित रेप की घटनाओं के बाद इंसाफ की लड़ाई में भी बीएसपी कहीं अपने कोर वोटर दलितों की रहनुमाई करती नहीं दिखी.
भारतीय जनता पार्टी रणनीतिक रूप से भी विपक्ष पर भारी रही है. गौर करें तो जिस तरह बुलंदशहर और अमरोहा में बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद बीजेपी को सीट मिली, उससे यह साफ हो गया कि रणनीतिक मोर्चे पर भी विरोधी दल नाकाम रहे हैं. वो अपने पारम्परिक मतदाताओं को भी ठीक से अपने पाले से जोड़े रखने में विफल रहे हैं. विपक्ष की तरफ से, खासतौर से एसपी और कांग्रेस के कुछ नेताओं ने विकास दुबे वाली घटना के संदर्भ में जिस तरह ब्राह्मणों की उत्पीड़न होने का संदेश देना चाहा या प्रयागराज और हाथरस की घटनाओं को लेकर दलितो के दर्द पर बीजेपी सरकार की ओर से ध्यान न दिए जाने के जो आरोप लगाए, वो भी जनता के बीच उपचुनाव में नहीं चले.
पूर्वांचल में ब्राह्मण व ठाकुरों के बीच वर्चस्व व टकराव के दावे भी विपक्ष की तरफ से किए गए. बलिया में कोटे की दुकान आवंटन के दौरान हुई भयानक घटना को लेकर पिछड़ी जातियों के बीजेपी से छिटकने के दावे भी विपक्ष की तरफ से हो रहे थे. कोरोना महामारी से निपटने के सरकार के तौर तरीकों से लेकर रोजगार और महिला सुरक्षा पर विपक्ष लगातार हमलावर रहा. लेकिन योगी आदित्यनाथ की खुद जनता के बीच जाकर समझाने की रणनीति अधिक कारगर रही.
हाथरस की घटना को लेकर राहुल और प्रियंका गांधी सड़कों पर दिखे और योगी सरकार के दिन पूरे होने के दावे भी किए. आरएलडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी का समर्थकों के साथ लाठियां खाते विरोध प्रदर्शन भी सामने आया. हाथरस की घटना को अनुसूचित जाति के सम्मान, स्वाभिमान से जोड़कर विपक्ष की ओर से यह माहौल बनाने का प्रयास किया गया कि बीजेपी सरकार में दलित सुरक्षित नहीं है. विपक्ष की जैसी कोशिश थी इसे मुद्दा बनाकर बीजेपी को उपचुनाव में घेरने की, वो कारगर नहीं रही. जयंत चौधरी वाली घटना को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के सम्मान के साथ जोड़ने का दांव भी नहीं चला.
बीजेपी नेता और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा का उपचुनाव नतीजों पर कहना है, “जनता समझ चुकी है कि विपक्ष के पास कोई सटीक मुद्दा नहीं है. निगेटिव राजनीति करने के सिवाय कोई काम नहीं है. इसलिए जनता ने इन्हें सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने से बाज आने की नसीहत दी है.” दिनेश शर्मा ने दावा किया कि मोदी और योगी की इस विकास यात्रा पर उपचुनाव नतीजे फिर जनता की मुहर हैं. लोग समझ चुके हैं कि बीजेपी नकारात्मक राजनीति नहीं करती बल्कि सिर्फ और सिर्फ विकास की बात करती है. बीजेपी को किसान बीमा जैसी कल्याण योजनाएं, सीधे खातों में धन भजने, एक ज़िला एक उत्पाद, आईटी सेक्टर में नये स्टार्टअप, यूपी में नई फिल्म सिटी जैसे मुद्दों को उपचुनाव में उठाने का लाभ मिला.
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