scorecardresearch
 

क्या है मायावती की पॉलिटिक्स और बीजेपी से रिश्ते को लेकर भ्रम बनाए रखने के मायने?

बीएसपी सुप्रीमो के रुख में बदलाव की शुरुआत तब से हुई जब लोकसभा चुनाव में पार्टी की उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं आए. समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बाद भी बीएसपी ऐसा कोई चमत्कार नहीं दिखा पाई जिससे कोई बड़ा उलटफेर हो सके.

Advertisement
X
बीएसपी सुप्रीमो मायावती (फाइल फोटोः पीटीआई)
बीएसपी सुप्रीमो मायावती (फाइल फोटोः पीटीआई)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • सियासी आधार मजबूत करने के साथ दलित वोट बैंक बचाने की भी फिक्र
  • सत्ता से लंबे वक्त तक दूर है बीएसपी, करना पड़ रहा मुश्किलों का सामना
  • बीएसपी और बीजेपी में अचानक पनपे नए सौहार्द की क्या है वजह

उत्तर प्रदेश में 7 सीटों पर हो रहे उपचुनाव के बीच सियासी चर्चा में जो एक बात सबसे ज्यादा चौंकाने वाली है वह बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के भारतीय जनता पार्टी को लेकर बदले हुए सुर. क्या ये बीजेपी और बीएसपी के बीच बदलते समीकरण का संकेत है? क्या है इस अचानक पनपे नए ‘सौहार्द’ की वजह? आखिर क्या है इसके पीछे का सच?  

Advertisement

सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि दलित वोट बैंक की सियासी ताकत रखने वाली मायावती आखिरकार क्यों अपनी धुर विरोधी पार्टी बीजेपी के लिए वोट मांगने तक से गुरेज नहीं कर रही हैं? 

समाजवादी पार्टी से क्यों हुआ मोहभंग? 

बीएसपी सुप्रीमो के रुख में बदलाव की शुरुआत तब से हुई जब लोकसभा चुनाव में पार्टी की उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं आए. समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बाद भी बीएसपी ऐसा कोई चमत्कार नहीं दिखा पाई जिससे कोई बड़ा उलटफेर हो सके. हालांकि कयास लगाए जा रहे थे कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की जोड़ी बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी कर देगी.

लेकिन तमाम सियासी समीकरणों और उलटफेर की उम्मीदों के बीच समाजवादी पार्टी और बीएसपी उत्तर प्रदेश में केवल 15 सीटें ही ला पाईं. अप्रत्याशित रिजल्ट से असहज हुईं मायावती ने फौरन ही बयान दे डाला कि अखिलेश यादव को अभी और मैच्योर होने की जरूरत है.

Advertisement

यहां तक समाजवादी पार्टी पर यह भी आरोप लगा दिए कि उसके कार्यकर्ताओं ने बीएसपी के उम्मीदवारों की खुल कर मदद नहीं की. मायावती ने यहां तक कह दिया कि उनकी गलती थी कि साल 1995 में हुए गेस्ट हाउस कांड को भुलाकर उन्होंने समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया.

मायावती और अखिलेश यादव (फाइल फोटो)
मायावती और अखिलेश यादव (फाइल फोटो)

लोकसभा चुनावों के बाद समाजवादी पार्टी से मायावती का मोह भंग हुआ तो वह कुछ समय के लिए सक्रिय नहीं दिखीं. कहा यह भी जाने लगा कि मायावती अब बहुजन समाज पार्टी को आगे बढ़ाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रही हैं. मायावती ने भी इशारों में साफ कर दिया कि अब उनका उत्तराधिकारी उनके भाई आनंद का बेटा आकाश होगा.

लेकिन वो भी फ़ौरी तौर पर लिया फैसला दिखा. उसके बाद इक्का दुक्का पार्टी मीटिंग्स को छोड़कर मायावती के भतीजे आकाश को सार्वजनिक मंचों पर नहीं देखा गया. लेकिन यूपी में सात सीटों पर उप-चुनाव से पहले सियासी माहौल मे असली हडकंप तब मचा जब मायावती ने विधानपरिषद के होनेवाले चुनावों के बारे में ये कह दिया कि समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट को हराने के लिए अगर उन्हें बीजेपी के लिए वोट करना पड़े तो भी वो करेंगी. 

इस बयान के मायने तब समझ में आये जब महज़ 15 विधायकों के दम पर उन्होंने रामजी गौतम को राज्यसभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार बनाकर खड़ा कर दिया और निर्विरोध विजेता भी बना दिया. बीजेपी ने पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद राज्यसभा चुनाव के लिए अपने सिर्फ़ आठ उम्मीदवार उतारे. इशारा साफ़ था कि दोनों तरफ़ से बराबर की ज़रूरत थी, इस एक कदम से ये और शक पैदा हुआ कि मायावती और बीजेपी में कुछ पक रहा है.  

Advertisement

वैसे भी इतिहास गवाह है कि मायावती के रिश्ते उन पार्टियों से हमेशा ही अच्छे रहे हैं जिनकी केंद्र में सरकार रही है. मायावती के लिये ये वक्त आस्तित्व की लड़ाई का भी है. आज की तारीख़ में माना यही जाता है कि बहुजन समाज पार्टी के पास देश का सबसे बड़ा दलित वोट बैंक है और दलित राजनीतिक रूप से सबसे ज़्यादा जागरुक मतदाता है. बीजेपी के साथ मायावती की नज़दीकियों की चाहे जितनी चर्चा हो, वो ख़ुद भी बेशक कह चुकी हैं कि समाजवादी पार्टी को हराने के लिए हम बीजेपी को भी समर्थन दे सकते हैं लेकिन बीजेपी के साथ कोई चुनावी गठबंधन होगा, ऐसा लगता नहीं है. 

2007 के बाद से गिरता रहा बीएसपी का ग्राफ

मायावती की पार्टी का ग्राफ अचानक धड़ाम नहीं हुआ. साल 2007 में यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ़ धीरे धीरे गिरा है और लगातार गिरता ही जा रहा है. आंकडों पर गौर करें तो साल 2007 के विधानसभा चुनाव में जहां मायावती को 206 सीटें मिली थीं, वहीं साल 2012 में केवल 80 सीटें मिलीं. साल 2017 में यह आंकड़ा 19 पर आ गिरा. यही नहीं, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को उत्तर प्रदेश से एक भी सीट हासिल नहीं हुई.

Advertisement

इस दौरान बीएसपी के कई ऐसे नेता पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए जो न सिर्फ कद्दावर माने जाते थे बल्कि पार्टी की शुरुआत से ही साथ जुड़े थे. लिहाजा मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती अस्तित्व बचाने की है. हकीकत ये भी है कि दलित वोटों में बीजेपी सेंध लगा चुकी है. जो दलित अब भी बीएसपी के साथ हैं, उन पर कांग्रेस पार्टी और चंद्रशेखर की भीम आर्मी की निगाह लगी हुई है.

 कथित दलित उत्पीड़न को लेकर यूपी में जो भी घटनाएं सामने आईं, उनके खिलाफ न तो मायावती और न ही उनकी पार्टी मुखर नजर आई. हाथरस से लेकर बलरामपुर तक की घटनाओं में मायावती कहीं मजबूती से खड़ी नहीं दिखाई दीं.

बीजेपी के साथ बीएसपी के रिश्तों की बात है तो अतीत में बीएसपी ने न सिर्फ़ बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई है, वहीं ऐसी स्थिति भी आई कि उन्हें कहना पड़ा कि दोबारा वो बीजेपी के साथ कभी कोई राजनीतिक गठजोड़ नहीं करेंगी.

बीएसपी ने जिससे भी गठबंधन किया, लंबा नहीं चला

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद प्रधान मानते हैं कि मायावती ने जिनसे भी गठबंधन किया या जिस भी दल के साथ रहीं, उनसे उनके कभी अच्छे रिश्ते नहीं रहे. समाजवादी पार्टी के साथ जब गठबंधन हुआ तो अंदर से यह कहा गया कि अखिलेश का समर्थन नहीं करना है. बीजेपी भी गाहेबगाहे अंदर या बाहर से समर्थन देने की राजनीति से अपने हित साधती रही है.

Advertisement

अतीत के गठबंधन

साल 1989 में जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्हें बीजेपी का समर्थन हासिल था. हालांकि, साल 1993 में पहली बार बीएसपी और एसपी का गठबंधन हुआ. दिसंबर 1992 बाबरी विध्वंस के बाद हुए राज्य में इस चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. लेकिन एसपी-बीएसपी गठबंधन की यह सरकार जल्दी ही बिखर गई और 1995 में मायावती बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं.

साल 2002 में यूपी में बीएसपी और बीजेपी की मिली-जुली सरकार बनी लेकिन बहुत ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाई. एक साल बाद ही बीजेपी ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने में फिर मदद की. लेकिन अब बीजेपी और बीएसपी के बीच तल्खी काफी बढ़ चुकी थी और मायावती ने बीजेपी के साथ किसी तरह का गठबंधन करने या समर्थन लेने-देने से तौबा कर लिया था.

बीजेपी के साथ क्या खिचड़ी?

बीएसपी और बीजेपी के करीब आने को यूं तो राजनीतिक विश्लेषक सिर्फ राज्य सभा या विधान परिषद चुनाव तक ही देख रहे हैं लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में भी परोक्ष गठबंधन की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा रहा है. बीजेपी के नेता इस मामले में कुछ नहीं बोल रहे हैं, पर राजनीति के जानकार लोग मानते हैं कि अगर भविष्य में मायावती और बीजेपी में अगर कोई समीकरण बनता है तो फायदा बीजेपी को ही होगा.

Advertisement

इसीलिए आधिकारिक तौर पर भले ही बीजेपी की तरफ से बयान न आए पर बीजेपी मायावती से नजदीकियां सिद्ध करने का कोई मौका नहीं छोड़तीं. क्योंकि इसमें उसका फ़ायदा है. कुछ वक्त पहले, NRC और CAA को लेकर जो कुछ भी हुआ, उसमें दलित समुदाय मुस्लिमों के साथ खड़ा दिखा. बीजेपी को यह लगता है कि यदि दलित-मुस्लिम का बड़ा गठजोड़ बनता है तो ये उसके लिए बड़ा नुक़सान कर सकता है. मायावती या बीएसपी की इमेज अपने समर्थक के तौर पर पेश करके बीजेपी इस दलित-मुस्लिम गठजोड़ की संभावना को तोड़ सकती है. इसीलिए पूरे मुद्दे पर बीजेपी ने मायावती को लेकर कोई बयान नहीं दिया.

बीजेपी नेता लालजी टंडन को राखी बांधतीं बीएसपी सुप्रीमो मायावती (फाइल फोटोः पीटीआई)
बीजेपी नेता लालजी टंडन को राखी बांधतीं बीएसपी सुप्रीमो मायावती (फाइल फोटोः पीटीआई)

जानकार ये भी मानते हैं कि भले ही बीजेपी आज जिस स्थिति में है, उसमें उसे बीएसपी के साथ गठबंधन करने की कोई ज़रूरत नहीं दिखती लेकिन एक फायदा अवश्य है कि ऐसा करके वो एसपी-बीएसपी को साथ जाने से तो रोकेगी ही, दलित वोटों के बिखराव को भी रोक सकती है.

दलित वोट बैंक में सेंध की फिक्र

बहरहाल, मायावती की बहुजन समाज पार्टी सियासी तौर पर इस समय सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है. ऐसे में उन्हें अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिये हर संभव कोशिश करनी है. मायावती के दलित वोट पर सबसे बड़ी निगाह भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर की है जिन्हें बीजेपी ने जेल भेजकर और बड़ा नेता बना दिया. हाल के दिनों में दलित उत्पीड़न के कई मामलों में भीम आर्मी ने सक्रिय भूमिका दिेखाकर अपने कद को और बड़ा किया है.

Advertisement
भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर (फाइल फोटोः पीटीआई)
भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर (फाइल फोटोः पीटीआई)

सूत्रों की मानें तो बीजेपी भी ऐसा जानबूझकर चाहती है ताकि बीएसपी का दलितों पर एकाधिकार खत्म हो. चंद्रशेखर की पार्टी के बड़ा होने का सीधा फायदा बीजेपी को है. हालांकि कांग्रेस भी दलितों के वोट बैंक में सेंध लगाकर बीजेपी के लिए ही फायदेमंद है. इन सारे समीकरणों का अंदाजा मायावती को भी है. बेशक राज्यसभा की एक सीट पाने के लिए मायावती ने बीजेपी के लिए वोट तक करने की बात कर दी हो लेकिन अपना दलित वोट बैंक बचाए रखने के लिए उन्होंने फौरन स्थिति साफ करने की भी कोशिश की. 

बीएसपी सुप्रीमो के मुताबिक बीजेपी के साथ कोई भी गठबंधन करने की बजाय वे राजनीति से संन्‍यास लेना पसंद करेंगी. उन्होंने ये भी कहा कि 'किसी भी चुनाव में बीजेपी के साथ बीएसपी का कोई भी गठबंधन भविष्‍य में संभव नहीं है. बीएसपी एक सांप्रदायिक पार्टी के साथ चुनाव नहीं लड़ सकती.’मायावती ने कहा, 'हमारी विचारधारा सर्वजन सर्वधर्म हिताय की है और यह बीजेपी की सोच के विपरीत है. बीएसपी उनके साथ गठबंधन नहीं कर सकती जो सांप्रदायिक, जातिवादी और पूंजीवादी विचारधारा के हैं.’ 

सात सीटों पर उपचुनाव से ठीक पहले दी सफाई

मायावती ने ये सफाई यूपी की सात सीटों पर होने वाले उपचुनावों से ऐन पहले दी ताकि उनके वोटरो में जो बीजेपी के साथ होने का मैसेज जा रहा है उसका नुकसान उपचुनाव में ना हो जाए. वैसे भी ये वजूद का ही संकट है कि पहली बार मायावती उपचुनावों में जोर आजमाइश कर रही हैं.

बहरहाल मौजूदा समीकरणों को देखकर साफ है कि राजनीतिक बिसात पर किसी भी तरह अपने को प्रासंगिक रखने के लिए मायावती एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रख रही हैं. यूपी में विधानसभा चुनाव के लिए वक्त कम बचा है. ऐसे में मायावती हर वह कोशिश कर रही हैं जिससे उनकी मौजूदगी का अहसास सियासी पार्टियों में बना रहे.

इसी कोशिश में वो रणनीति और दांव छिपा है जिससे वे आने वाले वक्त में अपनी उपयोगिता साबित कर पाएं. अगर मायावती इस बार ऐसी कोशिश में कामयाब नहीं हो सकीं तो खतरा मंडरा सकता है. वो खतरा है कि अगर बीएसपी काफी लंबे समय सत्ता से दूर रही तो दलितों के वोट बैंक पर किसी और का वर्चस्व होने के जहां आसार बढ़ेंगे, वहीं पार्टी के वजूद पर भी सवालिया निशान लग जाएगा.

 

Advertisement
Advertisement