उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व बीजेपी के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह का शनिवार को निधन हो गया. वो लंबे समय से बिमार चल रहे थे. प्रखर हिंदूवादी नेता के तौर पर सियासी सफर शुरू करने वाले कल्याण सिंह ने बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग की ठोस बुनियाद रखने का काम किया. राजनीतिक सफर में भले ही उन्होंने अपना कल्याण किया हो या नहीं, लेकिन बीजेपी के साथ पिछड़ी जातियों को जोड़कर ब्राह्मण-ठाकुर और बनियों की कही जाने वाली पार्टी का ठप्पा हटाने का काम जरूर किया.
बीजेपी के ओबीसी चेहरा कल्याण सिंह
कल्याण सिंह ने जब अपनी सियासी पारी का आगाज किया था, तब उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था. उत्तर प्रदेश की ओबीसी सियासत ने भी करवट लेनी शुरू कर दी थी और चौधरी चरण सिंह ने सूबे में एंटी-कांग्रेस राजनीति खड़ी की, जिसमें मुलायम सिंह सहित तमाम नेता शामिल थे. उसी दौरान कल्याण सिंह भी जनसंघ में पिछड़ी जातियों का चेहरा बनने लगे.
आपातकाल के बाद जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया और साल 1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी तो कल्याण सिंह को राज्य का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया. मंत्री बनते ही कल्याण सिंह का सूबे की सियासत में तेजी से कद बढ़ा और खासकर अपने लोधी समाज के वो प्रमुख बन गए. यूपी के 3 फीसदी लोध वोटरों को उन्होंने बीजेपी का कोर वोटबैंक बनाने का काम किया. ओबीसी समुदाय की यह पहली जाति थी, जिसे कल्याण सिंह बीजेपी के करीब लाए और अपनी सियासी पहचान गढ़ी.
कल्याण सिंह का बढ़ा सियासी कद
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद कल्याण सिंह ही ऐसे बीजेपी नेता थे, जिनका भाषण सुनने के लिए जनता आतुर रहती थी. अपने उग्र तेवर में कल्याण सिंह ने यूपी की राजनीति का ध्रुवीकरण कर दिया. कल्याण सिंह के रूप में बीजेपी को यूपी में ऐसा ऑलराउंडर चेहरा मिल गया था, जिसने जातीय समीकरण को मजबूत करने के साथ-साथ हिंदुत्व की राजनीति को एक साथ परोसने का काम किया.
राजनीति में जनता पार्टी, जनसंघ और जनता दल की उठापटक के बीच 1989-90 में जब देश में मंडल और कमंडल की सियासत शुरू हुई. आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का कैटेगराइजेशन हुआ और देश में पिछड़ों की सियासी ताकत पहचानी गई. बीजेपी ने 'मंडल' और 'कमंडल' दोनों की सवारी के लिए कल्याण सिंह को आगे किया. इसका नतीजा हुआ कि बीजेपी में ब्राह्मणों की जगह तेजी से ओबीसी जातियों से आने वाले फायरब्रांड नेता लेने लगे और कल्याण इनके मुखिया बने.
तत्कालीन पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह के द्वारा साल 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथयात्रा शुरू की. रथयात्रा ने तो बीजेपी की राजनीति का भावी चेहरा दिखाया, लेकिन इसी समय यूपी में बीजेपी की ठोस नींव बनाने का काम कल्याण सिंह ने किया. संघ से बीजेपी में आए गोविंदाचार्य ने ओबीसी नेताओं को पार्टी में आगे लाने का काम किया.
गोविंदाचार्य ने दिया सोशल इंजीनियरिंग का मंत्र
बीजेपी के दिग्गज नेता रहे गोविंदाचार्य ने मंडल के खिलाफ सोशल इंजीनियरिंग का मंत्र दिया. मंडल आयोग की सिफारिश के जरिए ओबासी वर्ग की जातियों को कैटिगरी में बांटा जाने लगा और पिछड़ा वर्ग की ताकत सियासत में पहचान बनाने लगी. मुलायम सिंह से लेकर लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार जैसे ओबीसी नेता खड़े हो रहे थे. उसी दौरान बीजेपी राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रहे गोविंदाचार्य ने बीजेपी के लिए ओबीसी नेताओं को आगे लाने का काम किया, जिसमें यूपी में पार्टी का संकटमोचक चेहरा बनकर कल्याण सिंह उभरे तो एमपी में उमा भारती खड़ी हुईं.
बीजेपी शुरू से ही ऊंची जातियों की राजनीति वाली पार्टी की पहचान रखती थी. बीजेपी की इस छवि को बदलने के लिए पार्टी ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण सिंह को बनाया. तब गुड गवर्नेंस के जरिए उन्होंने तमाम ओबीसी जातियों को जोड़कर मंडल वाली सियासत पर कमंडल का पानी फेर दिया.
राम मंदिर आंदोलन ने ही बीजेपी और उसके कई नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर उभरने में मदद की थी लेकिन अगर किसी बीजेपी नेता ने इसके लिए सबसे बड़ी कुर्बानी दी थी तो वो कल्याण सिंह ही थे. 1991 के यूपी चुनाव में बीजेपी 221 सीटें लेकर आई. कल्याण सिंह सीएम बने, लेकिन 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. कल्याण सिंह का बीजेपी से नाता बहुत सीधा-सपाट नहीं रहा. इसीलिए वे बीजेपी में आते-जाते रहे.