कैराना लोकसभा उपचुनाव में आरएलडी जहां अपनी दावेदारी ठोक रखी है, जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल है. वहीं इस सीट को सपा किसी भी सूरत में छोड़ने को तैयार नहीं है. ऐसे में दोनों पार्टियों की दोस्ती में दरार पड़ती दिख रही है. यूपी में बीजेपी के खिलाफ बन रहे गठबंधन के लिए कैराना एक तरह से गले की फांस बनता जा रहा है. विपक्ष अगर एकजुट होकर कैराना के चुनावी समर में नहीं उतरता तो बीजेपी को मात देना आसान नहीं होगा.
समाजवादी पार्टी के महासचिव और अखिलेश यादव के करीबी माने जाने वाले राजेंद्र चौधरी ने यह ऐलान कर दिया है कि समाजवादी पार्टी कैराना और नूरपुर चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारेगी. सपा के इस ऐलान से आरएलडी के अरमानों पर गहरा झटका लग सकता है.
कैराना उपचुनाव में आरएलडी के चौधरी अजीत सिंह ने अपने बेटे जयंत चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाने की योजना काफी समय से बना रखी है. इतना ही नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कांग्रेस नेता इमरान मसूद पहले ही आरएलडी को कैराना में समर्थन देने की घोषणा कर चुके हैं. इमरान ने कहा था कि अगर जयंत चुनाव लड़ते हैं तो फिर वे अपनी दावेदारी नहीं करेंगे बल्कि आरएलडी को समर्थन करेंगे.
सपा कैराना सीट को किसी भी सूरत में छोड़ने के मूड में नहीं है. सपा का दावा है यह सीट उसकी है और मुनव्वर हसन यहां से सांसद रह चुके हैं. इतना ही नहीं 2014 के चुनाव में सपा नंबर दो पर भी रही है. ऐसे में वह अपने परंपरागत सीट किसी सूरत में आरएलडी के लिए नहीं छोड़ सकती. हालांकि सपा सिर्फ एक बार इस सीट पर जीत दर्ज की है, जबकि आरएलडी ने दो बार जीता है.
कैराना लोकसभा सीट पर 17 लाख मतदाता हैं. इस सीट के जातीय समीकरण के देखें तो सबसे ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं.पांच लाख मुस्लिम, चार लाख बैकवर्ड (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य शामिल) और डेढ़ लाख वोट जाटव दलित है और 1 लाख के करीब गैरजाटव दलित मतदाता हैं.
कैराना सीट गुर्जर और जाट बहुल मानी जाती है. यहां तीन लाख गुर्जर मतदाता हैं इनमें हिंदू-मुस्लिम दोनों गुर्जर शामिल हैं. इसके अलावा 2 लाख के करीब जाट है. इसी मद्देनजर आरएलडी को लगता है गठबंधन के तौर पर यह सीट जयंत चौधरी लड़ते हैं तो उनकी जीत आसान हो जाएगी, लेकिन सपा किसी सूरत में इसे छोड़ने को तैयार नहीं है.
हालांकि मायावती उपचुनाव में पहले ही किसी को भी समर्थन ना देने का ऐलान कर चुकी हैं लेकिन राज्यसभा चुनाव में आरएलडी के विधायक के क्रॉस वोटिंग के बाद वह अजीत सिंह को भी अपने तेवर दिखा चुकी हैं. इसी का नतीजा था कि अजीत सिंह ने अपने विधायक को पार्टी से निष्कासित कर दिया था.
कैराना उपचुनाव में फिलहाल समाजवादी पार्टी और आरएलडी के बीच सुलह होती नहीं दिख रही लेकिन आखरी फैसला अखिलेश यादव को करना है. ऐसे में अब देखना यह है कि मोदी को रोकने के लिन बनन रहे गठबंधन को बचाने की खातिर बड़ा त्याग अखिलेश करते हैं या फिर अतीज सिंह.
बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कैराना संसदीय सीट से बीजेपी के हुकुम सिंह ने जीत दर्ज की थी. इसी साल 3 फरवरी को उनका निधन हो जाने के चलते उपचुनाव हो रहा है. माना जा रहा है कि बीजेपी इस सीट से हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को चुनाव मैदान में उतार सकती है. मृगांका को पिता की मौत की वजह से सहानुभूति वोट मिल सकता है
कैराना लोकसभा सीट के तहत पांच विधानसभा सीटें आती हैं. इस लोकसभा सीट में शामली जिले की थानाभवन, कैराना और शामली विधानसभा सीटों के अलावा सहारनपुर जिले के गंगोह व नकुड़ विधानसभा सीटें आती हैं. मौजूदा समय में इन पांच विधानसभा सीटों में चार बीजेपी के पास हैं और कैराना विधानसभा सीट सपा के पास है. इन सीटों पर बीजेपी को 2017 में 4 लाख 33 हजार वोट मिले थे. जबकि बसपा प्रत्याशियों को 2 लाख 8 हजार और सपा के 3 प्रत्याशियों को 1 लाख 6 हजार वोट मिले थे. सपा ने शामली व नकुड़ सीटें कांग्रेस को दे दी थी.
कैराना लोकसभा की सियासत इतिहास
कैराना लोकसभा सीट 1962 में वजूद में आई. तब से लेकर अब तक 14 बार चुनाव हो चुके हैं. इनमें कांग्रेस और बीजेपी दो-दो बार चुनाव जीत सकी हैं. ये सीट अलग-अलग राजनीतिक दलों के खाते में जाती रही है. कैराना लोकसभा सीट पर पहली बार हुए चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर यशपाल सिंह ने जीत दर्ज की थी. 1967 में सोशलिस्ट पार्टी, 1971 में कांग्रेस, 1977 में जनता पार्टी, 1980 में जनता पार्टी (सेक्युलर), 1984 में कांग्रेस, 1989, 1991 में कांग्रेस, 1996 में सपा, 1998 में बीजेपी, 1999 और 2004 में राष्ट्रीय लोकदल, 2009 में बसपा और 2014 में बीजेपी ने जीत दर्ज कर चुकी है.
कैराना में मुस्लिम सियासत
कैराना में मुस्लिम आबादी अच्छी खासी होने के बाद भी 14 लोकसभा चुनाव में महज 4 बार ही मुस्लिम सांसद बने हैं. 2014 के चुनाव में बीजेपी के हुकुम सिंह के खिलाफ दो मुस्लिम उम्मीदवार थे. सपा ने नाहिद हसन को और बसपा ने कंवर हसन को उतारा था. 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के चलते वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और दो मुस्लिम प्रत्याशी के होने से मुस्लिम वोट बंटने का फायदा हुकुम सिंह को मिला.