उत्तर प्रदेश की 12 विधान परिषद सीटों पर हो रहे चुनाव के जरिए सियासी पार्टियां आगामी 2022 के विधानसभा चुनाव का राजनीतिक समीकरण साधने की कवायद में हैं. असदुद्दीन ओवैसी की सूबे में दस्तक को देखते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपने कोर वोटबैंक मुस्लिमों को साधे रखने के लिए अहमद हसन को और किसान आंदोलन को देखते हुए जाट समुदाय से आने वाले राजेंद्र चौधरी को एमएलसी प्रत्याशी बनाया है. हालांकि, सपा विधायकों के संख्या बल पर पार्टी एक सीट जीत सकती है. इसके बावजूद अखिलेश यादव ने दो कैंडिडेट उतारे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि सपा प्रथम वरीयता पर किसे रखेगी और दूसरी वरीयता पर कौन होगा?
यूपी विधान परिषद की 12 सीटों पर 28 जनवरी को चुनाव होने हैं. सपा ने अहमद हसन और राजेंद्र चौधरी को उतारकर अपने पत्ते खोल दिए हैं, लेकिन बीजेपी ने अभी तक अपने प्रत्याशियों के नाम का ऐलान नहीं किया है. हालांकि, बीजेपी का पलड़ा इस बार के एमएलसी चुनाव में भारी रहने वाला है, यही वजह है कि बीजेपी के नाम पर 10 और बसपा के नाम पर दो नामांकन पत्र खरीदे गए हैं. सपा को सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल हो सकती है, लेकिन अखिलेश यादव ने 2 उम्मीदवारों के नाम का ऐलान करके एमएलसी चुनाव को रोचक बना दिया है.
अहमद हसन
बता दें कि अहमद हसन और राजेंद्र चौधरी दोनों ही नाम सपा के बड़े नेताओं में शुमार होते हैं. अहमद हसन सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव के करीबी माने जाते हैं. आईपीएस की नौकरी से सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखा और सपा का दामन थामा था. इसके बाद से ही विधान परिषद के सदस्य हैं. मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव की सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. इतना ही नहीं वो सपा में मुस्लिम समुदाय का ओबीसी चेहरा माने जाते हैं. अहमद हसन यूपी में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी अंसारी (जुलाहा) समुदाय से आते हैं. वो अखिलेश यादव के करीबी नेताओं में गिने जाते हैं.
राजेंद्र चौधरी
वहीं, राजेंद्र चौधरी पिछले करीब 40 साल से मुलायम सिंह यादव से जुड़े हैं. चौधरी चरण सिंह ने उन्हें 1974 में गाजियाबाद से प्रत्याशी बनाया था, लेकिन वो चुनाव हार गए थे. हलांकि 1977 में वो उसी सीट से जीत दर्ज करके विधानसभा पहुंचे. इस दौरान मुलायम सिंह यादव सहकारिता मंत्री थे. यहीं से दोनों नेता करीब आए, तब से लेकर राजेंद्र चौधरी और मुलायम सिंह यादव का रिश्ता अटूट रहा. लोकदल का बंटवारा हुआ तो ज्यादातर जाट नेता अजित सिंह के साथ चले गए, लेकिन राजेंद्र चौधरी ने मुलायम सिंह यादव का साथ नहीं छोड़ा. 2012 में जब अखिलेश यादव सूबे के सीएम बने, तो भी राजेंद्र चौधरी उनके साथ साए की तरह दिखते रहे. लंबे वक्त तक राजेंद्र चौधरी ने सपा के प्रवक्ता के तौर पर काम किया.
मुस्लिम कोर वोटबैंक पर सपा की नजर
यूपी में मुस्लिम मतदाता सपा का कोर वोटबैंक माना जाता है, लेकिन AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी इसी वोटबैंक के सहारे सूबे में अपना राजनीतिक आधार बढ़ाना चाहते हैं. बिहार चुनाव के बाद से मुस्लिम समुदाय का रुझान भी AIMIM की तरफ बढ़ा है. मंगलवार को ओवैसी की पूर्वांचल में दस्तक के दौरान जिस तरह से भीड़ जुटी है, उससे सपा की चिंताएं बढ़ गई हैं. यही वजह है कि सपा किसी भी सूरत में मुस्लिमों के अपने साथ साधकर रखना चाहती है, जिसके लिए अखिलेश ने तमाम दिग्गज और अपने समुदाय के यादव नेताओं को नजर अंदाज करते हुए अहमद हसन को एक बार फिर से एमएलसी प्रत्याशी बनाया है.
जाट समुदाय को सपा का संदेश
कृषि कानूनों को लेकर पश्चिम यूपी के किसानों में बीजेपी सरकार के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा है. पश्चिम यूपी में सबसे ज्यादा किसान जाट समुदाय के हैं, जो आरएलडी का साथ छोड़कर 2014 में बीजेपी के साथ चले गए थे. सूबे की सियासी नजाकत को देखते हुए सपा ने जाट समुदाय को साधने के लिए राजेंद्र चौधरी को विधान परिषद भेजने का फैसला किया है. मुलायम सिंह के दौर में पश्चिम यूपी और गुर्जर समुदाय में सपा की जबरदस्त पकड़ रही है, लेकिन अखिलेश उसे अपने साथ मजबूती के साथ जोड़कर नहीं रख सके थे. यही वजह है कि अखिलेश लगातार किसानों के समर्थन में आवाज बुलंद कर रहे हैं और अब राजेंद्र चौधरी के जरिए जाट समुदाय को एक बड़ा संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा अखिलेश यादव आरएलडी के साथ भी गठबंधन किए हुए हैं.
सपा की एक सीट पर फंसेगा पेच
यूपी विधानसभा में विधायकों की संख्या के आधार पर सपा की एक सीट पक्की है, लेकिन दूसरी सीट के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. एक एमएलसी सदस्य को जिताने के लिए करीब 32 विधायकों के वोट की जरूरत पड़ेगी और सपा के पास कुल 49 विधायक हैं. इनमें नितिन अग्रवाल बागी हैं और बीजेपी के साथ हैं जबकि शिवपाल यादव अपनी अलग पार्टी बना चुके हैं. ऐसे में अगर इन 2 विधायकों को कम कर दें तो यह संख्या 47 हो जाती है.
सूबे में 32 वोट के सहारे एक एमएलसी सीट जीतने के बाद सपा के 15 विधायक ही बचते हैं. सपा राज्यसभा चुनाव के समय बसपा के पांच विधायकों को अपने साथ लाई थी. इन बसपा के पांच बागी विधायकों की सपा एमएलसी चुनाव में अपने साथ जोड़े रखती है तो यह संख्या बढ़कर 21 पर पहुंच जाएगी, लेकिन अभी भी सपा के दूसरी सीट जीतने के लिए कम से कम 11 विधायकों के जुटना पड़ेगा. ऐसे में सबसे बड़ा पेच इस पर है कि सपा अपने दोनों उम्मीदवारों में से किसे प्रथम वरीयता देती है और किसे सेकेंड रखती है.
बीजेपी और बीएसपी पर नजर
12 विधान परिषद सीटों में से 10 सीटों पर सपा की जीत तय मानी जा रही है, लेकिन अगर वो 11 वीं सीट पर अपना प्रत्याशी उतारती है तो मुकाबला काफी दिलचस्प हो जाएगा. बसपा के 18 विधायक हैं, लेकिन छह विधायक बागी हो चुके हैं. इसके अलावा एक विधायक को पार्टी बदलने के चलते नोटिस जारी कर रखा है और मुख्तार अंसारी जेल में बंद हैं, जिनके वोट देने को लेकर संशय है. ऐसे में बसपा के साथ फिलहाल 10 विधायक ही हैं, जिनके सहारे एक एमएलसी सीट जीतना मुश्किल है. हालांकि, बसपा के नाम पर दो नामांकन पत्र खरीदे गए हैं, लेकिन वह अपने दम पर सीट जीतने की स्थिति में नहीं है. ऐसे में बीजेपी और बसपा अपना दल के सहारे 12वीं सीट जीतने की रणनीति अपना सकती है. ऐसे में निर्दलीय, कांग्रेस और ओम प्रकाश राजभर की पार्टी के विधायक की अहमियत बढ़ जाएगी.
इन दलों के हाथ में होगी 12वीं सीट
हालांकि, बसपा अध्यक्ष मायावती राज्यसभा चुनाव के दौरान ही कह चुकी हैं कि एमएलसी चुनाव में अगर सपा को हराने के लिए बीजेपी को समर्थन करना भी पड़ा तो करेंगी. हालांकि, कांग्रेस के दो बागी विधायक बीजेपी के साथ आ सकते हैं. इसके अलावा जनसत्ता पार्टी के प्रमुख व विधायक रघुराज प्रताप सिंह हैं, जिनके समर्थन पर लोगों की नजर है. हालांकि, नामांकन के बाद ही एमएलसी चुनाव की तस्वीर साफ हो सकेगी. देखना है कि बसपा या फिर बीजेपी कौन अपना प्रत्याशी उतारता है और सपा कैसे अपना दूसरा प्रत्याशी जिताने की रणनीति बनाती है.