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उत्तर प्रदेश की राजनीतिक चर्चाओं से क्यों बाहर होती जा रहीं मायावती?

उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा प्रमुख मायावती न तो सड़क पर उतरकर संघर्ष करती नजर आईं और न ही बीजेपी सरकार को घेरती दिख रही हैं. बसपा प्रमुख अपनी पार्टी कैडर और सूबे की आवाम के साथ संवाद भी स्थापित नहीं कर पा रही हैं. क्या यही वजह है कि मायावती उत्तर प्रदेश की सियासी चर्चाओं से बाहर होती जा रही हैं?

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बसपा प्रमुख मायावती
बसपा प्रमुख मायावती

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  • बसपा का 2012 से गिरता राजनीतिक ग्राफ
  • BSP सत्तापक्ष से ज्यादा कांग्रेस पर हमलावर
  • मायावती सिर्फ सोशल मीडिया पर सक्रिय

उत्तर प्रदेश की सियासत में 2019 लोकसभा चुनाव के बाद ऐसा लग रहा था कि बहुजन समाज पार्टी दूसरे नंबर की पार्टी का स्थान ले सकती है. बसपा नंबर दो स्थान से सपा को बेदखल कर मुख्य विपक्षी दल के रूप में अहम रोल अदा करेगी, लेकिन मायावती न तो सड़क पर उतरकर संघर्ष करती नजर आईं और न ही बीजेपी सरकार को घेरती दिख रही हैं. बसपा प्रमुख अपनी पार्टी कैडर और सूबे की आवाम के साथ संवाद भी स्थापित नहीं कर पा रही हैं.

केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद मायावती ने कई अहम मुद्दों पर बीजेपी के प्रति नरम रूख अख्तियार कर रखा है जबकि चौथे नंबर की पार्टी कांग्रेस इन दिनों सूबे में हर मुद्दे पर मोदी-योगी सरकार को घेरने में जुटी है और उसके नेता से लेकर कार्यकर्ता जेल जाने से भी नहीं डर रहे हैं. ऐसे ही सपा कार्यकर्ता भी सड़क पर उतरकर संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन बसपा प्रमुख सोशल मीडिया तक ही अपने आपको सीमित रख रही हैं और बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस पर हमलावर नजर आती हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यही वजह है कि मायावती उत्तर प्रदेश की सियासी चर्चाओं से बाहर होती जा रही हैं?

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कांग्रेस रणनीतिक तरीके से मीडिया तक अपनी बात पहुंचाने में भी सपा-बसपा से आगे निकलती दिख रही है जबकि मायावती सिर्फ एक एजेंसी को बुलाकर उससे अपनी बात कह देतीं हैं या फिर ट्वीट कर अपनी बात कहती हैं. कांग्रेस की मीडिया टीम बहुत सक्रिय है, जो छोटी-छोटी बातों की जानकारी को मीडिया और सोशल मीडिया तक पहुंचाने का काम कर रही वहीं, बसपा के पास न तो कोई मीडिया टीम ही है और न ही मीडिया तक पहुंचने का कोई व्यवस्थित इंतजाम.

केंद्र के हाथ में मायावती का रिमोट कंट्रोल

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं कि विपक्ष के रूप में पिछले कई सालों से प्रदेश से बसपा गायब है. एक विपक्षी दल के रूप में मायावती अपनी भूमिका का निर्वाहन सही तरीके से नहीं कर पा रही हैं बल्कि कई ऐसे मौके देखे गए हैं जब मायावती सरकार के सलाहकार की भूमिका में खड़ी दिखी हैं. हालांकि, आज भी मायावती उत्तर प्रदेश में दलित की सबसे बड़ी नेता हैं और सूबे में दलितों की पहली पसंद बसपा है. ऐसे में मायावती की खामोशी की वजह राजनीतिक तो नहीं बल्कि गैर राजनीतिक कारण हो सकते हैं.

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सुभाष मिश्रा कहते हैं कि एनआरसी, यूएपीए, अनुच्छेद-370 के मुद्दे रहे हों या फिर उत्तर प्रदेश के मामले हो, मातावती ने सरकार का समर्थन किया है या फिर सलाह देती दिखी हैं. जिस तरह से राजस्थान के मामले में वो रुख अख्तियार किए हुए हैं. ऐसे में लगाता है कि मायावती का रिमोट कंट्रोल किसी और के हाथ में है. वह चाहे केंद्र सरकार के हाथ में हो या फिर किसी दूसरे के हाथ. मायावती की जो सियासी यात्रा है वो यह बताती है कि वो बहुत ही मंझी हुई नेता हैं, ऐसे में बिना किसी कारण के वो अपनी राजनीति से समझौता नहीं करने वाली.

संघर्ष से ज्यादा समीकरण पर भरोसा

बसपा समर्थक माने जाने वाले सैय्यद कासिम कहते हैं कि मायावती अब संघर्ष के बजाय समीकरण पर विश्वास ज्यादा करती हैं. बसपा ने अब खुद को जातीय राजनीति में उलझा कर रखा है. मायावती ने बसपा को पूरे प्रदेश की पार्टी बनाने के बजाय कभी दलित-ब्राह्मण गठजोड़ तो कभी दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे नैया पार करने की कोशिश करती हैं. इसे वो सोशल इंजीनियरिंग का नाम देती हैं. मायावती को लगता है कि लोगों के बीच जाने के बजाय जातीय समीकरण बना लीजिए और चुनाव जीत लेंगे, लेकिन मोदी के राजनीतिक उदय के बाद अब यह तिलिस्म बुरी तरह से टूट गया. इसके बावजूद मायावती उससे बाहर नहीं निकल पा रही हैं और पुराने फॉर्मूले पर कायम हैं.

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बता दें कि बसपा में कांशीराम के जमाने के अधिकांश पुराने नेताओं को या तो पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या फिर उन्हें अपनी अलग राह चुनने पर मजबूर किया गया था. जिस कारण आज बसपा में बहुत कम पुराने नेता रह गये हैं. मायावती की ये खासियत रही है कि पार्टी की डोर कभी भी खुद से अलग स्थानांतरित नहीं होने देतीं. वो नहीं चाहती कि बसपा में सत्ता कई ध्रुवों में बटी रहे. बसपा से राजनीति करने वाला हर एक आदमी जानता है कि उसकी स्थिति हमेशा नंबर दो की रहेगी, एक वो कभी नहीं हो पाएगा.

बसपा दूसरी पार्टियों से अलग है

जेएनयू में राजनीतिक अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर हरीश वानखेड़े कहते हैं कि बसपा की राजनीति करने का तरीका देश की दूसरी सियासी पार्टियों से बिल्कुल अलग है. कांशीराम ने बसपा को एक कैडरबेस और पार्टी में काम करने का मिशनरी मैकेनिजम बनाया है, उसी तरीके से काम कर रही है. बसपा का न तो मीडिया के साथ सरोकार रखती है और न ही सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करती है. बसपा बहुत ही खामोशी के साथ अपने कैडर के बीच काम करती है. इसीलिए वो राजनीतिक चर्चाओं से दूर रहती है. 2007 में भी जब बसपा सरकार में आई थी तब भी किसी को यह अंदेशा नहीं था कि मायावती को पूर्ण बहुमत मिलेगा.

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उत्तर प्रदेश में बहुमत हासिल करने के लिए मध्यमवर्गीय वोट बैंक का महत्व सबसे अधिक है. पिछले तीन विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो साफ दिखता है कि मायावती की सरकार बनाने में बसपा के दलित-मुस्लिम वोट बैंक के साथ-साथ मध्य वर्ग की भूमिका भी निर्णायक थी. इसी तरह सपा के स्पष्ट बहुमत में भी यादव-मुस्लिम वोट बैंक के साथ-साथ मध्यमवर्गीय मतदाता अहम थे. ऐसा ही कुछ बीजेपी की मौजूदा सरकार के गठन के वक्त भी हुआ. इसलिए 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले तमाम राजनैतिक दल मध्यम वर्ग को साधने में जुटे हैं. उत्तर प्रदेश की विपक्षी पार्टियों को देखें तो कांग्रेस फिलहाल बसपा-सपा सबसे आगे दिख रही है.

कांशीराम वाली बसपा अब नहीं रही

वहीं, दलित चिंतक और ऑल इंडिया अंबेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं कांशीराम वाली बसपा अब नहीं रह गई है बल्कि मायावती की बसपा बन चुकी है. कांशीराम राजनीतिक कदम उठाने से पहले विचार-विमर्श करते थे और उसका क्या फर्क पड़ेगा उसे समझते थे. इसके बाद ही कोई फैसला लेते थे, लेकिन अब बसपा में यह कल्चर नहीं है. मायावती को यह पूरी तरह विश्वास है कि उसका वोटर किसी भी सूरत में उनसे दूर नहीं जाने वाला है, चाहे वो कोई भी कदम उठाएं. बसपा के स्टैंड का क्या राजनीतिक संदेश जा रहा है, इसका मायावती को कई फर्क नहीं पड़ता है. यूपी का दलित मतदाता आज भी बसपा के साथ मजूबती से खड़ा हुआ है.

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लोकसभा चुनाव के कुछ समय बाद ही मायावती ने सपा से अपने सभी तरह के गठबंधन को समाप्त करते हुए अकेले चलने की रणनीति अपनाई थी. लेकिन उसके बाद उत्तर प्रदेश में जितने भी उपचुनाव हुए उसमें बसपा अपनी प्रभावी भूमिका निभाने में सफल नहीं हो पाई. इससे चिंतित मायावती को लगता है कि यदि उसने कांग्रेस के साथ उसके पिछलग्गू की छवि से पीछा नहीं छुड़वाया तो आने वाले समय में उसका रहा सहा जनाधार भी खिसक जाएगा. कांग्रेस के दलित वोटों के बल पर ही देश भर में बसपा का अपना वोट बैंक तैयार हुआ था, जो अब कांग्रेस के साथ जाता नजर आ रहा है. इसीलिए मायावती चिंतित हैं और कांग्रेस के विरोध में वह बीजेपी के संग खड़ी नजर आती हैं.

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