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शिवपाल यादव ने ली अलग राह, अखिलेश की साइकिल अब कैसे पकड़ेगी रफ्तार

शिवपाल ने साफ कह दिया है कि 2022 का चुनाव अपने चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे और सूबे के छोटे दलों के साथ अपना गठबंधन करेंगे. ऐसे में सवाल उठता है कि शिवपाल का अलग मैदान में उतरना अखिलेश यादव के लिए कितना बड़ा सियासी झटका होगा. 

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अखिलेश यादव और शिवपाल यादव
अखिलेश यादव और शिवपाल यादव
स्टोरी हाइलाइट्स
  • शिवपाल और अखिलेश अलग-अलग दलों से करेंगे गठबंधन
  • लोकसभा में शिवपाल के चलते सपा फिरोजाबाद सीट हारी थी
  • ओवैसी-शिवपाल-राजभर की तिकड़ी से कैसे निपटेंगे अखिलेश

सपा प्रमुख अखिलेश यादव और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल यादव की सियायी दूरियां इतनी बढ़ गई हैं चाचा-भतीजे आपस में गठबंधन करने को भी तैयार नहीं हैं. अखिलेश के प्रस्ताव को शिवपाल ने पूरी तरह से ठुकरा दिया है और अपने अलग सियासी समीकरण बनाने में जुटे हैं. शिवपाल ने साफ कह दिया है कि 2022 का चुनाव अपने चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे और सूबे के छोटे दलों के साथ अपना गठबंधन करेंगे. ऐसे में सवाल उठता है कि शिवपाल का अलग मैदान में उतरना अखिलेश यादव के लिए कितना बड़ा सियासी झटका होगा. 

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शिवपाल यादव ने यूपी मिशन-2022 का आगाज सोमवार को मेरठ के सिवालखास से किया. गुरुवार से सूबे के गांव-गांव की यात्रा भी शिवपाल शुरू कर रहे हैं, जो छह महीने तक चलेगी. इतना ही नहीं शिवपाल ने भी अपने भतीजे अखिलेश की तर्ज पर छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन बनाने की बात कही है. इस कड़ी में शिवपाल और ओम प्रकाश राजभर के बीच हाल ही में मुलाकात हुई है. इतना ही नहीं AIMIM के चीफ असदुद्दीन ओवैसी और शिवपाल यादव के बीच भी सियासी खिचड़ी पक रही है.  

ओवैसी ने शिवपाल के साथ गठबंधन करने के संकेत दिए हैं. ओवैसी ने कहा था कि शिवपाल यादव यूपी के बड़े नेता हैं, जल्द ही उनसे भी मिलेंगे और गठबंधन की बात करेंगे. वहीं, पिछले दिनों शिवपाल यादव भी ओवैसी की तारीफ कर चुके हैं. राजभर और ओवैसी के बीच गठबंधन तय हो गया है और माना जा रहा है कि शिवपाल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं. इस तरह से शिवपाल, राजभर और ओवैसी एक साथ आते हैं तो सपा के लिए सूबे में सत्ता की वापसी कर पाना मुश्किल हो सकता है.

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शिवपाल की सियासी ताकत

मुलायम सिंह यादव के दौर पर में सपा संगठन का काम शिवपाल यादव ही देखते रहे हैं. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले मुलायम कुनबे में वर्चस्व की जंग छिड़ गई थी. इसके बाद अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी पर अपना एकछत्र राज कायम कर लिया था, जिसके बाद शिवपाल यादव ने अपने समर्थकों के साथ प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) का गठन किया. 2019 के लोकसभा चुनाव में शिवपाल यादव ने कई सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे और खुद भाई रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव के खिलाफ फिरोजाबाद सीट से ताल ठोकी थी.

शिवपाल यादव ने यहां करीब एक लाख वोट हासिल किए थे जबकि सपा को महज 28 हजार वोटों से हार का सामना करना पड़ा. ऐसे ही यूपी की तीन सीटों पर शिवपाल की पार्टी ने सपा को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया, जिनमें इटावा, बरेली और कानपुर देहात लोकसभा सीट भी शामिल है. हालांकि, शिवपाल भी अभी तक कोई बड़ा करिश्मा नहीं दिखा सके हैं, लेकिन सपा के लोगों को ही मिलाकर उन्होंने अपनी पार्टी बनाई है. यही वजह थी कि मुलायम सिंह यादव चाचा-भतीजे के बीच सुलह समझौता कराने की लगातार कोशिश करते रहे, लेकिन कामयाब नहीं हो सके. 

शिवपाल की छोटे दल पर नजर

दरअसल, ओमप्रकाश राजभर की अगुवाई में बाबू सिंह कुशवाहा की जनाधिकार पार्टी, अनिल सिंह चौहान की जनता क्रांति पार्टी, बाबू राम पाल की राष्ट्र उदय पार्टी और प्रेमचंद्र प्रजापति की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी ने भागीदारी संकल्प मोर्चा के नाम से नया गठबंधन तैयार किया है. ऐसे में शिवपाल यादव और ओवैसी की पार्टी की भी इस गठबंधन में राजनीतिक एंट्री हो सकती है. इसके चलते यूपी में अखिलेश यादव के लिए गठबंधन के राजनीतिक विकल्प कम हो सकते हैं. 

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ओवैसी ने बिहार चुनाव के बाद हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भी इस बात को साबित किया है कि मुस्लिम मतदाता उनके साथ खड़े हैं. इससे पहले बिहार चुनाव में बने ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट में भी ओवैसी और राजभर साथ थे. यूपी में पिछड़ों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है, जिस पर सपा से लेकर बीजेपी और शिवपाल से लेकर बसपा प्रमुख मायावती की नजर है. ओम प्रकाश राजभर यूपी की अतिपिछड़ी जातियों को आपस मिलाकर चुनावी मैदान में उतरने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, जिनमें शिवपाल की एंट्री कर सकते हैं. 

ओबीसी आबादी में ताक़तवर माने जानी वालीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट-गुर्जर और पूरे प्रदेश में फैली यादव-कुर्मी-कुशवाहा आबादी ही सत्ता की किस्मत का फैसला करती आ रही है, जिन्हें साधने के लिए सपा और बीजेपी जुटी है. वहीं, पूर्वांचल के इलाक़े में बिंद, निषाद, मल्लाह, कश्यप, कुम्हार, राजभर, प्रजापति, मांझी, पाल, कुशवाहा आदि अति पिछड़ी जातियों के वोटों को अपने पाले में करने के लिए बीजेपी के अलावा भी छोटी-छोटी पार्टियां अपने-अपने समुदाय पर नजर गढ़ाए हैं. 

सपा के मौजूदा सहयोगी दल 

अखिलेश यादव ने कहा है कि बड़ी पार्टियों से गठबंधन को लेकर हमारा बुरा अनुभव रहा है, इस वजह से हम इस बार छोटे दलों के साथ गठबंधन करेंगे. सपा प्रमुख यह बात पिछले एक साल से लगातार कह रहे हैं. हाल में ही सपा ने महान दल के साथ हाथ मिलाया है, जिसका राजनीतिक आधार बरेली-बदायूं और आगरा इलाके के शाक्य, सैनी, कुशवाहा, मौर्य समुदाय के बीच है. इसके अलावा लोकसभा चुनाव में जनवादी पार्टी के संजय चौहान, सपा के चुनाव निशान पर चंदौली में चुनाव लड़कर हार चुक‍े हैं और वह भी अखिलेश यादव के साथ सक्रिय हैं. 

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यूपी में पिछले दिनों उपचुनाव में सपा ने राष्‍ट्रीय लोकदल के लिए एक सीट बुलंदशहर की छोड़ी थी. इसके यह संकेत हैं कि आगे भी वह अजित सिंह के साथ तालमेल कर सकते हैं, लेकिन सपा के साथ हाथ मिलाने के बाद भी आरएलडी यहां पांचवें नंबर पर रही थी और उसे महज 7132 वोट मिल सके थे. इसके अलावा अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) को अडजस्ट का ऑफर दिया था, लेकिन शिवपाल ने उसे रिजेक्ट कर दिया है और अपना अलग गठबंधन बनाने का फैसला किया है. 

सपा के सामने क्या विकल्प 

अखिलेश यादव के साथ फिलहाल तीन छोटी पार्टियां हैं, लेकिन शिवपाल यादव की नजर भी छोटी पार्टियों पर है और अनुप्रिया पटेल पहले से बीजेपी के खेमे में हैं. ऐसे में रघुराज प्रताप सिंह (राजा भैया) के साथ अखिलेश यादव के छत्तीस के आंकड़े हैं. वहीं, शिवपाल के साथ राजा भैया के संबंध बेहतर हैं, जिसके चलते दोनों के साथ आने की संभावना है. अय्यूब अंसारी की पीस पार्टी अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की कवायद में है,  लेकिन उन्होंने साफ कह दिया है कि अकेले चुनावी मैदान में उतरेंगे. वहीं, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM सपा के बजाय बसपा के साथ गठबंधन करने की कवायद में है.

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सियासी रहनुमा की तलाश

मुसलमानों की आबादी उत्तर प्रदेश में करीब 20 फीसदी है, जो सपा का मजबूत वोटबैंक माना जाता है. लेकिन जिस तरह बीजेपी ने हिंदुत्व की राजनीति को धार दी है, इसके चलते मुस्लिम कशकमश में है. ओवैसी ने संसद से लेकर सड़क तक मुसलमानों के मसले पर किसी भी दूसरे धर्मनिरपेक्ष या मुस्लिम नेता के मुकाबले ज़्यादा मजबूती से आवाज़ उठाई है. तीन तलाक, सीएए-एनआरसी, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला, धारा 370 जैसे मुसलमानों से जुड़े मसलों पर ओवैसी ने आवाज बुलंद की है, जिसका नतीजा है कि बिहार के चुनाव में मुस्लिम बहुल सीमांचल में उनकी पार्टी पांच सीटें जीतने में कामयाब रही है. 

ओवैसी, शिवपाल और राजभर की तिकड़ी के एक साथ आने से उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे ज़्यादा चुनौती अखिलेश यादव के सामने खड़ी हो सकती है. ओवैसी मुसलिम वोटों में सेंधमारी करेंगे तो राजभर अति पिछड़ा वर्ग के वोटों पर असर डाल सकते हैं जबकि शिवपाल सपा के मजबूत वोटबैंक यादव समुदाय पर चोट करेंगे. ऐसे में देखना है कि सपा प्रमुख इस तिकड़ी के चक्रव्यूह को कैसे भेदती है? 

 

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