उत्तर प्रदेश की सियासत में सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगातार सियासी चक्रव्यूह में घिरते जा रहे हैं. सपा से अलग हो चुके शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव से हिसाब-किताब बराबर ही नहीं बल्कि सपा के 'यादव' कोर वोटबैंक में सेंधमारी 'यदुकुल मिशन' शुरू किया है. बीजेपी की नजर पहले से ही यादवों पर है. इन सारी कवायद के बीच अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा भी अब सपा के पकड़ से बाहर निकलती नजर आ रही है, जिससे अखिलेश यादव के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं.
यादव महासभा में बड़ा बदलाव
गुजरात के द्वारिका में रविवार को अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा के कार्यकारी समिति की बैठक में कोलकाता के डॉ. सगुन घोष को राष्ट्रीय अध्यक्ष और बसपा सांसद श्याम सिंह यादव को कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया है. यादव समाज के सबसे बड़े संगठन की कमान सपा के किसी नेता के हाथ में नहीं होगी जबकि मुलायम सिंह यादव ने हमेशा महासभा पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखा था.
पिछल तीन दशकों में पहली बार यादव महासभा में इतना बड़ा बदलाव दिख रहा है, जिसका असर आने वाले समय में सपा की सियासत पर पड़ना लाजमी है. 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले यादव महासभा में हुए इस बदलाव से अखिलेश यादव के लिए अपने कोर वोटबैंक यादव समुदाय को भी साधे रखने की बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है, क्योंकि तमाम विपक्षी पार्टियों की नजर इसी यादव वोटबैंक पर है.
यादव महासभा की सियासत
दरअसल, अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा की स्थापना आजादी से पहले 1924 में हुई हैं. चौधरी बदन सिंह से लेकर अभी तक कुल 46 अध्यक्ष चुने गए हैं. इनमें से ज्यादातर अध्यक्ष उत्तर प्रदेश के रहे हैं, जिसके चलते मुलायम सिंह की सियासत में यादव महासभा का अहम योगदान रहा. चौधरी राम गोपाल से लेकर चौधरी हरमोहन सिंह और पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह तक ने यादव महासभा की कमान संभाली. महासभा के ये तीनों ही अध्यक्ष सपा से जुड़े रहे हैं और मुलायम सिंह यादव के करीबी माने जाते थे.
उदय प्रताप सिंह ने इसी साल अगस्त में यादव महासभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, जिसे द्वारिका में रविवार को हुई महासभा कार्यकारी समिति की बैठक में स्वीकार कर लिया गया. ऐसे में अब यादव महासभा की कमान पश्चिम बंगाल से आने वाले डॉ. सगुन घोष को सौंपी गई है तो बसपा सांसद श्याम सिंह यादव को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है. इसके बाद अब जल्द ही यादव महासभा में कार्यकारिणी में बदलाव किए जाएंगे.
मुलायम के साथ महासभा
सियासी तौर पर भले ही यादव महासभा में सभी दल के नेता और लोग जुड़े रहे, लेकिन किसी न किसी रूप में यह सपा को खाद-पानी देने का कार्य करती रही. 1967 में मुलायम सिंह कैबिनेट मंत्री बनने से लेकर 1989 में मुख्यमंत्री बने और इसके बाद समाजवादी पार्टी को खड़ी करने तक में यादव महासभा का अहम रोल रहा है. महासभा पर अपनी पकड़ को बनाकर रखते हुए मुलायम सिंह सूबे के सबसे बड़े यादव नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई.
यादव वोटों के दम पर मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री बने तो अखिलेश यादव एक बार. सपा के सत्ता में रहने से सूबे में यादव समाज राजनीतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से भी मजबूत हुआ. सपा में यादवों की तूती बोलती है. सपा पर सत्ता में रहते हुए यादव परस्त होने का आरोप भी विपक्ष लगाता रहा है. यही नहीं यादव महासभा की कमान संभालने वाले चौधरी हरिमोहन सिंह और उदय प्रताप सपा के सांसद रहे हैं. इन दोनों ही नेताओं की मुलायम सिंह से नजदीकियां भी जगजाहिर हैं.
चौधरी हरमोहन सिंह का परिवार अब बीजेपी के साथ है तो यादव महासभा की कमान सपा नेताओं के हाथों से निकलकर बंगाल के घोष और बसपा सांसद के पास पहुंच गई है. ऐसे में साफ जाहिर होता है कि यादव महासभा पर सपा की मजबूत पकड़ अब कमजोर पड़ रही है. इसे सियासी जानकार सपा के लिए बड़ा खतरा मान रहे हैं, क्योंकि महासभा के सामाजिक आंदोलन से किसी न किसी रूप में सपा को ताकत देने का काम करते थे. ऐसे में नवनिर्वाचित अध्यक्ष घोष ने महासभा को राजनीति से दूर रखने के संकेत दिए हैं.
दरअसल, यादव सियासत ऐसे समय हो रही है जब सपा सियासी संकट से जूझ रही है. मुलायम का कुनबा दो हिस्सों में बंट गया. अखिलेश यादव और शिवपाल यादव एक दूसरे को खिलाफ खड़े हैं. इसके अलावा लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल का वक्त बचा है. पिछले दिनों शिवपाल और डीपी यादव ने लखनऊ में यादव क्षत्रपों के साथ मिलकर यदुकुल पुनर्जागरण मिशन का आगाज किया है तो पीएम मोदी ने हरिमोहन सिंह के पुण्यतिथि कार्यक्रम में वर्चुअल शिरकत कर बड़ा सियासी संदेश यादव समाज को दिया था.
शिवपाल-बीजेपी की नजर यादवों पर
शिवपाल यादव ने भले ही यदुकुल मिशन को सामाजिक लड़ाई के लिए बनाए संगठन का नाम दे रहे हैं, लेकिन उसके पीछे सियासी मकसद साफ जाहिर होता है. सूबे में यादव समाज की गोलबंदी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देखी जा है. यादव वोटों के सहारे शिवपाल दोबारा से अपनी सियासत को जिंदा करना चाहते हैं तो डीपी यादव भी अपना सियासी वर्चस्व को फिर से स्थापित करना चाहते हैं. इस तरह दोनों ही नेता मिलकर यादव समुदाय के जख्मों पर मरहम लगाकर उनके दिल में जगह बनाने की कवायद 'यदुकुल पुनर्जागरण मिशन' के सहारे कर रहें.
वहीं, यादव महासभा के अध्यक्ष रहे चौधरी हरिमोहन सिंह यादव की 10वीं पुण्यतिथि पर पीएम नरेंद्र मोदी शामिल हुए, जिसे बीजेपी की रणनीति का हिस्सा माना गया था. इसके अलावा बीजेपी ने हाल ही में पार्टी संसदीय बोर्ड में दो यादव नेताओं को जगह दी है. इन सब बातों से एक चीज साफ होती है कि अखिलेश यादव के लिए अपने यादव वोटबैंक को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो रही है.
अखिलेश यादव के लिए चुनौती
दरअसल, मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव किसी न किसी रूप में यादव महासभा से अपना नाता जोड़े रखा, लेकिन अखिलेश यादव उसे आगे नहीं बढ़ा सके. यादव महासभा के अध्यक्ष रहे उदय प्रताप सिंह के साथ अखिलेश यादव मंच शेयर करते थे, लेकिन सपा की यादव परस्त वाली छवि को तोड़ने की कवायद भी कर रहे थे. इस तरह से यादव समुदाय के बैठकों से खुद को दूरी बनाए रखा, जिसका असर यह हुआ कि यादव महासभा उनकी पकड़ से निकल गई. अब यादव महासभा भी खुद को सपा की बी-टीम के तमगे को खत्म करने की दिशा में है.
यूपी में यादव सियासत
उत्तर प्रदेश में करीब 8 से 9 फीसदी वोटर्स यादव समुदाय के हैं, जो ओबीसी समुदाय की आबादी का 20 फीसदी हैं. यादव समाज में मंडल कमीशन के बाद ऐसी गोलबंदी हुई कि ये सपा का कोर वोटर बन गया. इन्हीं वोटरों के दम पर मुलायम सिंह यादव तीन बार और अखिलेश यादव एक बार सूबे के मुख्यमंत्री रहे.
यूपी में यादव बहुल जिले उत्तर प्रदेश के इटावा, एटा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद, कन्नौज, बदायूं, आजमगढ़, फैजाबाद, बलिया, संतकबीर नगर, जौनपुर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल माना जाता है. इन जिलों में 50 से ज्यादा विधानसभा सीटें हैं, जहां यादव वोटर अहम भूमिका में हैं. सूबे के 44 जिलों में 9 फीसदी वोटर यादव हैं जबकि 10 जिलों में ये वोटर 15 फीसदी से ज्यादा है.
यूपी में पूर्वांचल से लेकर अवध और बृज के इलाके में यादव वोटर सियासत की दशा और दिशा तय करते हैं. उत्तर प्रदेश में यादव सियासत देखें तो सपा के टिकट पर शिवपाल यादव सहित यादव समाज के 23 विधायक 2022 में बने. दो एमएलसी के अलावा मुलायम सिंह यादव सांसद तो रामगोपाल राज्यसभा सदस्य हैं.
वहीं, बीजेपी के टिकट पर दो यादव समुदाय के विधायक बने हैं, जिसमें से एक को योगी सरकार में मंत्री बनाया गया है. इसके अलावा दो एमएलसी, दो राज्यसभा सदस्य और एक लोकसभा सदस्य यादव समुदाय से हैं. बीजेपी के टिकट पर चार यादव जिला पंचायत अध्यक्ष भी बने हैं. बसपा से भी एक सांसद यादव हैं. ऐसे में देखना है कि यादव समुदाय के करवट लेती सियासत में महासभा पहले जैसे सपा को ताकत देगी या फिर सियासी चुनौती खड़ी करेगी?