
21वीं सदी में भी उत्तराखंड में ऐसी कई जगहें हैं, जहां लोगों को पहाड़ चढ़कर घर जाना पड़ता है, कोरोना काल में बेहद जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं हैं. सनौली मफी गांव भी कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में आ गया. लोगों की चिंता लगातार हो रही मौतों की वजह से बढ़ गई. लोग इस वजह से भी परेशान हो रहे थे कि तबीयत बिगड़ने के बाद अस्पताल पहुंचने के लिए रोड तक नहीं है. मरीजों को या तो स्ट्रेचर के जरिए या पालकी के जरिए रोड तक पहुंचाना पड़ता है.
कोविड संकट के बीच एक शख्स ने अपने गांव में अस्थाई सड़क बनाने का जिम्मा उठा लिया. 28 साल के नरेश ने एक टीम बनाई, जो लगातार सड़क बनाने के काम में जुट गई. नरेश की परवरिश गांव में ही हुई. लोगों की बेबसी नरेश के लिए प्रेरणा बनी कि किसी भी तरह से सड़क बनाई जाए, जिससे लोगों को संकट के वक्त मुख्य सड़क तक कनेक्ट किया जा सके. उन्होंने ऐसी स्थिति में सड़क बनाने की ठानी और अपने मिशन को पूरा किया.
नरेश की टीम ने काम का जिम्मा अपने सिर लिया. लोगों ने छीनी-हथौड़ी और कुदाल का इस्तेमाल करना शुरू किया और सड़क बनाने का काम शुरू कर दिया. मकसद सिर्फ यही कि बूढ़े और बीमार लोगों को किसी भी तरह से कम समय में अस्पताल तक पहुंचाया जा सके, लोगों को अस्पताल तक पहुंचने के लिए पहाड़ चढ़कर न जाना पड़े. शुरुआत में की गई यह पहल, देखते-देखते एक महाअभियान में तब्दील हो गई.
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3 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का लक्ष्य
जब युवाओं ने काम शुरू किया तो अन्य ग्रामीण भी इस मिशन में लोगों के साथ हो गए. लोगों ने काम शुरू किया. लोगों को अपनों को खोने का डर था, डर ने लोगों को एकजुट कर दिया. निर्माण काम शुरू 6 बजे सुबह से होता और 4 बजे शाम तक चलता. अथक मेहनत रंग लाई और लोगों के पास अब एक सड़क है, जिसका लाभ अब सब उठा रहे हैं.
नरेश और उनके दोस्त लोकेश और जगदीश सुबह 6 बजे से काम शुरू करते हैं. बीते एक सप्ताह में उन्होंने 1 किलोमीटर लंबी सड़क बना ली है. उनका मिशन है कि 3 किलोमीटर की पूरी रोड तैयार की जाए.
'अब नहीं बनेगी सड़क तो खो जाएंगे अपने'
इंडिया टुडे से बातचीत करते हुए नरेश ने कहा, 'मैं दिल्ली में रहता हूं. मुझे लॉकडाउन की वजह से गांव आना पड़ा. यहां आने के लिए पहाड़ चढ़ना ही इकलौता रास्ता था. सड़क बनाने का काम मुश्किल था, कोविड ने हमारी मुश्किलें बढ़ा दीं, इससे कई लोग प्रभावित हुए. अब तक बीमारों को स्ट्रेचर या पालकी के जरिए ही नीचे लाया जाता था. कोविड अनियंत्रित तरीके से बढ़ रहा है, ऐसी स्थित में यह भी असंभव होता गया. मुझे लगा कि अगर कुछ किया नहीं गया तो हम अपनों को खो देंगे.'
उन्होंने कहा, 'जब मुझे यह आइडिया आया तो मैंने अपने दोस्तों से इसका जिक्र किया. वे भी लॉकडाउन की वजह से घर आ गए थे. लोगों ने इस कदम में मेरा साथ दिया. युवा साथ आए और काम होता गया. हमारा मकसद अब 15 दिनों के भीतर अपने मिशन को पूरा करना है.'
लॉकडाउन में जरूरी सामानों की खरीदारी भी मुश्किल
गांव के ही एक एक अन्य युवा राजू कंडपाल ने कहा, 'लॉकडाउन की वजह से अब किराने का सामान और सब्जियां लाना भी एक चुनौती है. हमने बारी-बारी से स्थानीय दुकानों का दौरा करना शुरू कर दिया है जो सुबह 10 बजे तक बंद हो जाती हैं. हमें एक ही बार में स्ट्रेचर पर पूरे गांव के लिए किराने का सामान लाना पड़ता है. अगर यह पूरा हो जाता है तो लोग बाइक के जरिए दुकानों तक जल्द पहुंच जाते हैं.'
75 साल के एक बुजुर्ग नवीन चंद्र जोशी ने कहा कि राजनेताओं और अधिकारियों ने वादे किए, लेकिन लोगों की मदद नहीं की. नवीन ने अपनी पूरी जिंदगी गांव में गुजारी है. उन्होंने अपनों को सही वक्त पर इलाज न मिल पाने की वजह से खोया है. अगर बेहतर सड़क होती, शायद कइयों की जान बचाई जा सकती थी. अब खुशी हो रही है कि युवा अपने लिए खुद सड़क बना रहे हैं. यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए.
वैक्सीनेशन के काम में आएगी तेजी
स्थानीय लोगों का का मानना है कि बेहतर सड़क से टीकाकरण प्रक्रिया में तेजी लाने में भी मदद मिलेगी, क्योंकि कनेक्टिविटी नहीं होने के कारण कुछ लोग जो पास के शहरों की यात्रा कर सकते हैं, उनमें से किसी ने भी टीकाकरण नहीं कराया है. नवनिर्मित सड़क से सभी को उम्मीद है. सड़क बनकर तैयार हो जाने के बाद गांव के बुजुर्ग सही वक्त पर टीकाकरण करा सकेंगे.
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