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कुंभ बनाम पलायन: उत्तराखंड में प्रवासी मजदूरों के चेहरों पर फिर लॉकडाउन लगने का खौफ

प्रवासी मजदूरों के चेहरे फिर मायूस हो गए हैं. फिर एक बार पलायन का दर्द उन्हें सताने लगा है. कुछ राज्यों में एक हफ्ते से ज्यादा के लिए सब कुछ ठप कर दिया गया है ताकि संक्रमण और उसकी रफ्तार को रोका जा सके.

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प्रवासी मजदूरों को फिर सता रहा लॉकडाउन का गर
प्रवासी मजदूरों को फिर सता रहा लॉकडाउन का गर
स्टोरी हाइलाइट्स
  • प्रवासी मजदूरों को फिर काम मिलना हुआ कम
  • कुंभ के चलते बाहर से आने वालों पर कई तरह की पाबंदी

देश भर में जहां कोविड-19 का प्रकोप फिर तेज होने से कोरोना कर्फ्यू, जनता कर्फ्यू, साप्ताहिक कर्फ्यू और नाइट कर्फ्यू का दौर चल पड़ा है, वहां प्रवासी मजदूरों के चेहरे फिर मायूस हो गए हैं. फिर एक बार पलायन का दर्द उन्हें सताने लगा है. कुछ राज्यों में एक हफ्ते से ज्यादा के लिए सब कुछ ठप कर दिया गया है ताकि संक्रमण और उसकी रफ्तार को रोका जा सके. हालांकि कई राज्य लॉकडाउन की संभावना से इंकार कर रहे है, वहीं केंद्र सरकार की ओर से भी इस पर अभी तक कुछ नहीं कहा गया है. पिछले साल लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के अपने गृह स्थानों की ओर लौटने की मार्मिक तस्वीरें पिछले साल सब देख चुके हैं.   

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कुंभ के चलते बाहर से आने वालों पर कई तरह की पाबंदी
उत्तराखंड में रोजी रोटी की तलाश में आए प्रवासी मजदूरों को एक बार फिर न सिर्फ लॉकडाउन का डर सता रहा है बल्कि उनके सामने रोजी-रोटी की चुनौती खड़ी हो गई है. कुंभ के दौरान कमाई की आस से आए इन प्रवासी मजदूरों का यही सवाल है कि न जाने अब क्या होगा.  हरिद्वार में फिलहाल कुंभ के चलते बाहर से आने वालों पर कई तरह की पाबंदियां हैं. उत्तराखंड में फिलहाल कर्फ्यू या लॉकडाउन की स्थिति नहीं है, लेकिन कोरोना संक्रमण की नई लहर से इन मजदूरों के लिए दिहाड़ी मिलनी मुश्किल हो गई है. हरिद्वार से आगे ऋषिकेश के लेबर चौक पर यूपी, बिहार के रहने वाले यह मजदूर हर दिन काम की आस में आकर बैठ जाते हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से इन्हें मायूस ही रहना पड़ रहा है. 
 

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लैबर चौक पर बैठकर काम के लिए करते हैं इंतजार
‘आजतक’ ने ऋषिकेश के लेबर चौक पर इन प्रवासी मजदूरों से बात की और उनका दर्द समझने की कोशिश की. यह प्रवासी मजदूर रोज दिन चढ़ते ही सड़क के किनारे बैठ जाते हैं. दस बजे तक ये इंतजार करते हैं कि कोई आए और इन्हें काम दे. हाईवे पर आसपास के कुछ लोग आते हैं और कुछ मजदूरों को दिहाड़ी का मोलभाव कर अपने साथ ले जाते हैं. किसी को 400 रुपए दिन की मजदूरी मिलती है तो किसी को इससे भी कम. अधिकतर मजदूरों को होली से पहले महीने में 27 दिन काम मिल रहा था. अब ये घटकर 10 दिन से भी कम पर आ गया है. इनमें से अधिकतर मजदूर मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मऊ, पीलीभीत और बिहार के सहरसा, सीतामढ़ी जैसे इलाकों के रहने वाले हैं.  

52 साल के प्रमोद कुमार आजमगढ़ के पास मऊ के रहने वाले हैं. प्रमोद पिछले 8 साल से ऋषिकेश में ही रहते हैं और मिस्त्री का काम करते हैं. प्रमोद के हाथों ने न जाने कितने घर बनाए होंगे और कितनी इमारतों की नींव डाली होगी. लेकिन मौजूदा हालात ने उनकी आर्थिक बुनियाद को हिला कर रख दिया है. पिछले लॉकडाउन में प्रमोद अपने गांव नहीं गए थे और यही अपने घर में परिवार के साथ पूरा वक्त बिताया. प्रमोद यहां अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते हैं. लेकिन अब रोज की दिहाड़ी मिलना बंद होने से परेशान प्रमोद कहते हैं, "पिछले लॉकडाउन में सब कुछ बंद हो गया था लेकिन धीरे-धीरे जब सब ठीक हुआ तो अब फिर से काम धंधा बंद होने लगा है."  

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कभी-कभार ही मिलता है मजदूरों को काम
प्रमोद बताते हैं कि पिछले 20 दिनों से ऐसी स्थिति हो गई है कभी-कभार काम मिलता है वरना अधिकतर दिनों में खाली हाथ घर लौटना पड़ता है. प्रमोद की तरह सुनील जैसे मिस्त्री मजदूरों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. मूल रूप से नैनीताल के रहने वाले सुनील कहते हैं, "पिछले लॉकडाउन के बाद हम नवंबर में ऋषिकेश लौटे थे और पांच महीने से सब कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन जैसे ही यह महामारी फिर से लौटी है उसी हिसाब से काम भी कम हो गया. सरकार की ओर से कोई मदद नहीं है. 


इन मजदूरों में सबसे कम उम्र का अनमोल सिंह 19 साल का है. शाहजहांपुर का रहने वाला अनमोल सिंह भी मजदूरी का काम करता है. शाहजहांपुर में घर पर अनमोल के मां-बाप और एक बहन है. अनमोल अपनी कमाई का एक हिस्सा अपने घर भेजता है ताकि घर चल सके. अनमोल का कहना है, "लॉकडाउन भले नहीं है लेकिन हरिद्वार और देहरादून सील है और 2 दिन से कोई रोजगार नहीं मिला है तो बैठे-बैठे क्या करें. पिछले लॉकडाउन में पैदल चलकर मैं अपने गांव गया था. 

घर जाने के अलावा और कोई और रास्ता नहीं: मजदूर
अनमोल कहता है कि अगर हालत ऐसी ही रही तो फिर अपने घर भाग जाएंगे और कोई और रास्ता नहीं है. इन मजदूरों के सामने न सिर्फ रोजगार की चुनौती है बल्कि वाजिब दिहाड़ी भी नहीं मिल रही. अनमोल कहता है कि जिस काम के लिए पहले 500-600 रुपए दिन के मिल जाते थे अब उस काम के लिए 400 भी नहीं मिल रहे हैं. ठेकेदार पूरा पैसा  नहीं देना चाहते. कई मजदूरों का कहना है की दिहाड़ी घटकर 350 रुपए तक आ गई है. 

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बिहार के मोतिहारी जिले का रहने वाला सूरज 21 साल का है और ईंट-पत्थर ढोने वाली जगहों पर मजदूरी करता है. सूरज का कहना है एक ठेकेदार ने उससे ज्यादा काम करवाया और उसका मेहनताना भी नहीं दिया. इन मजदूरों को आशंका है कि जल्दी ही लॉकडाउन लगाया जा सकता है. हमने उनसे पूछा कि आखिर इन्हें यह जानकारी कैसे मिली कि लॉकडाउन लग रहा है. इस पर सूरज और अनमोल का कहना था कि आसपास के लोग और हमारे मजदूर भाई ही कहने लगे हैं कि लॉकडाउन लगने वाला है.

24 साल का अरमान भी बिहार के मोतिहारी जिले का है और कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी का काम करता है. फिलहाल अरमान के पास कोई काम नहीं है और वह लेबर चौक पर हर दिन खड़ा होकर ठेकेदारों का इंतजार करता है. अरमान को हर महीने घर के किराए के लिए 2000 रुपए का बंदोबस्त भी करना होता है.  

अरमान कहता है, "पिछले साल लॉकडाउन लगा था तो मुझे भी अपने गांव में ब्याज पर कर्ज लेना पड़ा ताकि बच्चों की पढ़ाई चलती रहे और घरवालों का पेट भर सके. सोचा था कि यहां आकर मजदूरी से कर्जा निपटा लूं तो फिर से गांव चला जाऊंगा लेकिन कर्जा पूरा हो नहीं रहा है इसलिए गांव नहीं जा पा रहा हूं. ब्याज पर कर्ज लेकर के बच्चों का पेट भरा है अब ब्याज बढ़ रहा है तो वह चुकाना भी है लेकिन कमाई नहीं है तो ब्याज कैसे दूं?" 
 

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