उत्तराखंड के इतिहास में 18 मार्च 2016 का दिन जिसने पूरे राज्य की राजनीति में भूचाल सा ला दिया था. कांग्रेस शासित हरीश रावत की सरकार धड़ाम हो गई और अपने आपको कांग्रेस का सिपाही बताने वाले पूरे 9 कांग्रेसी धुरंधर अपनों से ही बगावत कर बैठे, वो तारीख जिसने 9 लोगों को बागी क्या बनाया आज भी जारी है. उत्तराखंड में राजनीतिक तूफान है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है, नौ के बाद धीरे-धीरे कर अब ये गिनती 15 तक पहुंच गयी है, मानो पूरे 'हाथ' में सभी कांग्रेसी 'कमल' खिलाने को बेताब हो गए हैं.
सतपाल महाराज से नारायण दत्त तिवारी तक
इस राजनीतिक जंग की शुरुआत एक समय के कट्टर कांग्रेसी माने जाने वाले सतपाल महाराज के पार्टी छोड़ने से हुई जब हरीश रावत से मतभेद के चलते उन्होंने पार्टी को त्याग दिया और ठीक उसके कुछ समय के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने महाराज की पत्नी और पौड़ी के रामनगर से विधायक अमृता रावत को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर ये संकेत दे दिया की अब उत्तराखंड कांग्रेस पार्टी में वही होगा जो हरीश रावत चाहेंगे . ये सिर्फ एक शुरुआत थी और इसके बाद मानो बरगद के पेड़ की तरह मजबूत जड़ों के साथ खड़ी कांग्रेस के पत्ते हवा में बिखरने लगे. गढ़वाल के कद्दावर नेता हरक सिंह रावत हों या फिर खादर के कुंवर प्रणव सिंह, या फिर पविजे बहुगुणा, सभी ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया.
नारायण दत्त तिवारी का नाम किसी भी पहचान का मोहताज नहीं है. ये ही वो राजनेना हैं जिसकी उंगली पकड़ कर हरीश रावत समेत कई नेता चले. लेकिन 91 वर्ष की उम्र में बेटे का मोह ही है जिसने इतने बड़े बरगद की जड़ें उम्र के अंतिम पड़ाव में हिला कर रख दी. आखिरकार बेटे को बीजेपी का कमल दिलाकर और कमल के खेवनहार धुरंधरों को अपना आशीर्वाद देने चले गए. इतने समय से कांग्रेस से अलग-थलग पड़े तिवारी शायद कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से दुखी और अपने जैविक पुत्र के भविष्य के प्रति चिंतित थे. कांग्रेस के बुजुर्ग नेता का आशीर्वाद आखिरकार बीजेपी को मिला और तिवारी के 'हाथ' में भी 'कमल' खिल गया.
हरीश और विजय का चिट्ठी वार
2012 का चुनाव जीतकर आयी कांग्रेस के मुखिया की गद्दी पर हरीश को दरकिनार कर विजय बहुगुणा को बैठा दिया गया. बहुगुणा के सर पर उत्तराखंड में कांग्रेस का ताज क्या सजा पार्टी के अंदर एक आग सी सुलग गयी. चालीस साल से भी ज्यादा के राजनीतिक जीवन में कई बार मुश्किलों का सामना कर चुके हरीश रावत इस बार इसको बर्दाश्त नहीं कर पाए और लगातार अपने ही मुख्यमंत्री के विरोध में चिट्ठियां लिख कर बहुगुणा की राह में कांटे बिछाने में लग गए . आखिरकार प्रदेश में आयी 2013 की आपदा में लापरवाही की वजह से विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी और हरीश रावत के सिर पर मुख्यमंत्री का ताज सजा दिया गया.
विरोध के बुलंद होते सुर, बगावत की शुरुआत
कुछ तो मुख्यमंत्री बनने के बाद हरीश रावत के तेवर बदले और रही-सही कसर पार्टी आलाकमान ने पूरी कर दी. पार्टी की वरिष्ठ मंत्रियों की मानें तो दो-दो महीने तक लाइन में लगकर भी बड़े दरबार में उनकी सुनने वाला कोई नहीं था और शायद यही बगावत की शुरुआत की बड़ी वजह बनी . पार्टी में 40 साल तक दलित नेतृत्व की कमान संभालने वाले प्रदेश के कद्दावर दलित चेहरे और मंत्री रहे यशपाल आर्या की मानें तो कांग्रेस पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया था लेकिन बाद में सबकुछ बदलता चला गया.
यशपाल आर्य ने कहा कि एक वक़्त था जब सब कुछ ठीक था पर उत्तराखंड में राजनितिक बदलाव क्या हुए पार्टी और सरकार दोनों में ही घुटन बढ़ने लग. जहाँ एक तरफ सत्ता में बदलाव के बाद हरीश रावत के आने के बाद चीज़ें बदलने लगी तो बाकी कसर पार्टी के नए धुरंधर बने प्रशांत किशोर ने पूरी कर दी. जब भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं या आलाकमान से मिलने के लिए वक्त मांगने की कोशिश की तो जवाब यही मिला कि प्रशांत किशोर से मिलो. ये अपमान शायद 40 साल तक कांग्रेस के सिपाही रहे यशपाल आर्य बिल्कुल सहन नहीं कर पाए और आखिरकार उन्होंने भी 'हाथ' का साथ छोड़ 'कमल' के सामने अपनी श्रद्धा के हाथ जोड़ लिए.
बीजेपी में भी विद्रोह की आग
अब हरीश रावत के अलावा उत्तराखंड कांग्रेस में कोई भी ऐसा नाम नहीं जिसे संगठन कहा जा सके. पुरे संगठन की गांठ खुल गयी और चुनाव के इस वक्त खुद हरीश भी नहीं समझ पा रहे हैं कि ये उनकी कमी की वजह से है या फिर ये बीजेपी की शतरंजी चाल है. बहरहाल इस वक्त सभी बड़े महारथी बीजेपी में पहुंच चुके हैं और बीजेपी का शीर्ष हर हाल में ये चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज़ होने को आतुर है. लेकिन कांग्रेस के सभी महारथियों के आने से खुद बीजेपी के कुनबे में भी हलचल है, कई बड़े भाजपा नेताओं के टिकट कटने के बाद विद्रोह की आग कहीं खुद बीजेपी को ही ना जला दे.