उत्तराखंड की पौड़ी-गढ़वाल संसदीय सीट से सांसद तीरथ सिंह रावत को बीजेपी विधायक दल का नेता चुना गया है. पार्टी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया है. संघ की पृष्ठभूमि और छात्र राजनीति से सियासी सफर शुरू करने वाले तीरथ सिंह रावत जमीनी नेता माने जाते हैं और अब उनके ऊपर अगले साल होने वाले उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जिताने की बड़ी चुनौती होगी.
गांव की पगडंडियों से निकलकर विधानसभा के रास्ते संसद और उत्तराखंड के सीएम का सफर तय करने वाले तीरथ सिंह रावत ने धैर्य, सहनशीलता और एक कर्मठ कार्यकर्ता के तौर पर अपनी छवि को मजबूत बनाने का काम किया. बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी से राजनीति शुरू करने वाले तीरथ अविभाजित उत्तर प्रदेश और उसके बाद उत्तराखंड की राजनीति में भी दखल रहा है.
खंडूरी के करीबी रहे, फिर उनके बेटे को हराया
तीरथ सिंह रावत राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के भरोसे के शख्स माने जाते थे. हालांकि बाद में उन्होंने खंडूरी के बेटे मनीष खंडूरी के खिलाफ चुनाव लड़ा और उसे हराया भी. 2019 के लोकसभा चुनाव में वह पौड़ी-गढ़वाल सीट पर बीएस खंडूरी के बेटे मनीष खंडूरी को करीब तीन लाख मतों से मात देकर सांसद बने थे, लेकिन बीजेपी ने अब उन्हें त्रिवेंद्र सिंह रावत के विकल्प के रूप में राज्य की सत्ता की कमान सौंपी है.
धैर्य-सहनशीलता से किया पार्टी में अपना कद ऊंचा
तीरथ सिंह रावत के दूसरी बार विधायक चुने जाने के बाद पार्टी ने उनके कंधों पर अहम जिम्मेदारी सौंपी. साल 2013 में उन्हें भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया था और 2015 तक वह इस पद पर रहे. इसके बाद 2016 में सतपाल महाराज के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने के बाद 2017 के विधानसभा चुनावों में सिटिंग विधायक तीरथ सिंह रावत का चौबटाखाल से टिकट कट गया था. तब वह नेतृत्व से नाराज बताए जा रहे थे, लेकिन उन्होंने इसे मुद्दा नहीं बनाया. इसी के बाद उन्हें 2017 में भाजपा का राष्ट्रीय सचिव बनाया गया था. इसके अलावा, उन्होंने हिमाचल प्रदेश के प्रभारी की जिम्मेदारी भी संभाली थी, जहां की चारों लोकसभा सीटें जिताकर तीरथ ने पार्टी में खुद के कद को और मजबूत किया. इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव 2019 में पार्टी ने तीरथ को गढ़वाल सीट से उतारा और वे जीतकर संसद पहुंचे और आज मुख्यमंत्री का ताज उनके सिर सज रहा है.
पहले भी आमने-सामने आ चुके हैं त्रिवेंद्र और तीरथ
2013 में जब उन्हें पार्टी ने प्रदेश की जिम्मेदारी दी थी तो भुवन चंद्र खंडूरी ने ही उनके नाम की सिफारिश की थी. तब भी वह त्रिवेंद्र रावत के सामने खड़े थे. तब पार्टी हाईकमान ने दोनों नेताओं को टकराव की स्थिति से बचने के लिए अपना-अपना नाम वापस लेने को कहा था और कहा था कि इस बारे में एकमत से फैसला लिया जाएगा. तीरथ को तब अधिकांश विधायकों का समर्थन मिला था जिसमें भुवन चंद्र खंडूरी और रमेश पोखरियाल जैसे दिग्गजों का समर्थन मिला था. वहीं, तब पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में शामिल त्रिवेंद्र रावत को दूसरे दिग्गज नेता भगत सिंह कोश्यारी का समर्थन मिला था.
कम उम्र में ही संघ के प्रांत प्रचारक बने थे तीरथ
उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लाक के सीरों गांव के मूल निवासी तीरथ रावत का राजनीतिक सफर संघर्षपूर्ण रहा है. तीरथ सिंह रावत का जन्म 9 अप्रैल 1964 को हुआ. उनके पिता का नाम कलम सिंह रावत और मां का नाम गौरी देवी है. तीरथ अपने भाइयों में सबसे छोटे हैं. अपने छात्र जीवन में ही वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक से जुड़ गए थे. महज 20 साल की उम्र में साल 1983 में वो संघ के प्रांत प्रचारक बन गए थे और 1988 तक इस पद पर रहे. वह रामजन्मभूमि आंदोलन में भी दो माह तक जेल में रहे. इतना ही नहीं तीरथ ने उत्तराखंड राज्य के लिए हुए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी.
छात्र जीवन में ही रख दिया था सियासत में कदम
तीरथ सिंह रावत ने गढ़वाल विश्वविद्यालय से स्नातक किया और फिर समाज शास्त्र में एमए करने के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा हासिल किया. गढ़वाल विश्वविद्यालय के बिड़ला परिसर श्रीनगर में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने छात्र राजनीति शुरू की. साल 1992 में वह सबसे पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ओर से गढ़वाल विवि बिड़ला परिसर श्रीनगर के छात्रसंघ अध्यक्ष पद का चुनाव लड़े और जीत दर्ज की थी. इसी के बाद उन्हें एबीवीपी के प्रदेश संगठन मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई और बाद में वह प्रदेश उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बने.
साल 1997 में एमएलसी बने और 2000 में मंत्री
साल 1997 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए. इसके बाद पृथक राज्य उत्तराखंड का गठन होने पर वर्ष 2000 में राज्य की अंतरिम सरकार में तीरथ सिंह रावत उत्तराखंड के पहले शिक्षा मंत्री बने. साल 2007 में बीजेपी प्रदेश महामंत्री, प्रदेश सदस्यता प्रमुख, आपदा प्रबंधन सलाहकार समिति के अध्यक्ष चुने गए. साल 2012 में विधानसभा बीजेपी के तमाम दिग्गज नेता हार गए थे, लेकिन तीरथ सिंह रावत चौबट्टाखाल से विधायकी जीतने में कामयाब रहे.
तीरथ रावत के सिर सजा सीएम का ताज
बीजेपी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के विकल्प के तौर पर तीरथ सिंह रावत को चुना है. बीजेपी के कई बड़े नेताओं के नाम सीएम रेस में चल रहे थे, लेकिन संघ की पृष्ठभूमि के साथ-साथ जातीय व क्षेत्रीय समीकरण को देखते हुए पार्टी ने तीरथ सिंह पर सीएम बनाने का फैसला किया है. जमीनी नेता के तौर पर जाने जाते हैं और संगठन और सरकार दोनों में उनका अनुभव है. यही चीज उनके सीएम बनने के पक्ष में गई है. हालांकि, आगे उनके सामने कई चुनौतियां भी हैं.
तीरथ सिंह रावत के सामने चुनौतियां
उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में तीरथ सिंह रावत को सत्ता की कमान इसीलिए सौंपी गई है ताकि विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जीतकर सत्ता में एक बार फिर ला सकें. इससे पहले भी बीजेपी दो बार अपने सीएम को बदलने का प्रयोग कर चुकी है, लेकिन सफल नहीं रही है. इसीलिए बीजेपी के लिए यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि महज एक साल का ही समय बाकी है.
हालांकि, बीजेपी ने इससे पहले जो पिछली सरकारों में बदलाव किया था, उसमें उन्हें महज चार और 6 महीने का समय मिला था. इस बार एक साल का वक्त बाकी है विपक्ष के पास हरीश रावत को छोड़कर कोई दूसरा बड़ा चेहरा नहीं है. ऐसे में उन्हें पार्टी के खिलाफ बने माहौल के बीजेपी के पक्ष में तब्दील करना होगा.
उत्तराखंड की सियासत में कुमाऊं और गढ़वाल के बीच सियासी वर्चस्व किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में तीरथ सिंह के सामने कुमाऊं और गढ़वाल के बीच बैलेंस बनाए रखने की भी चुनौती होगी, जिसका संतुलन न बनाए रखने के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत को अपनी कुर्सी गवांनी पड़ी है. ऐसे में अब देखना है कि गढ़वाल क्षेत्र से आने वाले तीरथ सिंह रावत कुमाऊं के साथ कैसे संतुलन साधकर रखते हैं. इसके अलावा कांग्रेस से बीजेपी में आए हुए नेताओं के साथ बैलेंस बनाए रखना होगा और साथ ही बीजेपी के विधायकों की नाराजगी को दूर करने की कवायद करनी होगी.