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पूरी दुनिया में ग्लेशियर (बर्फीले चट्टान का टुकड़ा) तेजी से पिघल रहे हैं. वजह है तापमान का बढ़ना. लेकिन हिमालय में ये ग्लेशियर कुछ ज्यादा ही तेजी से पिघल रहे हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर पिघलने की गति यही रही तो सदी के अंत तक एक तिहाई ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे. लेकिन ग्लेशियर का इस तरह से पिघलना उत्तराखंड जैसी कई प्राकृतिक आपदाएं ला सकता है. हालांकि, अभी उत्तराखंड हादसे की सही वजह सामने नहीं आई है लेकिन वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा ऐसी घटनाओं के लिए बढ़ते तापमान को भी जिम्मेदार मान रहा है.
रविवार को चमोली जिले के तपोवन एरिया में अचानक आई बाढ़ ने दर्जनों लोगों की जान ले ली और तकरीबन दो सौ लोग गाद और पहाड़ के टुकड़ों से भरी तेज धार में बह गए. लेकिन सवाल है कि ठंड के मौसम में अचानक इतना पानी आया कहां से. जुलाई 2020 में नंदादेवी एरिया का अध्ययन करते हुए देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीटयूट और आईआईटी कानपुर से जुड़े वैज्ञानिकों ने चेताया था कि ग्लेसियर तेजी पिघल रहे हैं. इन वैज्ञानिकों ने पाया कि 37 सालों में नंदादेवी क्षेत्र के करीब 26 वर्ग किलोमीटर एरिया का ग्लेशियर खत्म हो चुका है.
इस अध्ययन से जुडे वैज्ञानिक लिखते हैं, “हमारे अध्ययन से पता चला है कि 1980 से 2017 के बीच घाटी का करीब 26 वर्ग किलोमीटर एरिया यानी दस फीसदी ग्लेशियर का हिस्सा पिघल चुका है.” वैज्ञानिक बार-बार चेता चुके हैं कि पर्यावरण के लिहाज से हिमालय बहुत संवेदनशील है. खासकर ऐसे समय में जब धरती का तापमान तेजी बढ़ रहा है, बर्फ पिघलने की रफ्तार भी तेजी से बढ़ सकती है.
इंडिया टुडे की डेटा टीम ने पर्यावरण पर काम करने वाले संस्थान बर्कले अर्थ के आंकड़ों के आधार पर यह जानने की कोशिश की कि भारत के बड़े शहरों में आखिर तापमान में किस तरह के बदलाव हुए हैं. डेटा टीम ने दो सौ सालों के दौरान दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु और देहरादून जैसे शहरों के औसत तापमान में आए बदलाव का अध्ययन करने के बाद पाया कि पिछले बीस से तीस सालों में इन शहरों का तापमान तेजी से बढ़ा है.
तापमान में यह बढ़ोतरी बाकी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी हुई है. दो सौ सालों के इतिहास में देखें तो पिछले छह साल में तापमान ज्यादा बदलाव आया है. इस बदलाव से हिमालय सहित दुनिया भर के ग्लेशियरों पर संकट बढ़ गया है. जिससे उत्तराखंड जैसी त्रासदी की आशंका बढ़ती जा रही है. हालांकि, कुछ वैज्ञानिक उत्तराखंड की घटना को भूस्खलन से जोड़कर देख रहे हैं.
पर्यावरणविद राज भगत पालनचापी ने आजतक से बीत करते हुए कहा, “शुरुआती जांच बताती है कि यह घटना भूस्खलन की वजह से हुई है, हालांकि अभी और जांच की जरूरत है. ठीक इसी तरह की घटना 2016 में भी हुई थी हालांकि उसका प्रभाव कम था. लेकिन इस तरह की घटना बताती है कि हिमालय कितना संवेदनशील है. इस तबाही में होने वाली मौत की वजह बड़े पैमाने पर लगातार हो रहा निर्माण कार्य भी है.”
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पर्यावरण स्कूल के प्रोफेसर एपी डिमरी कहते हैं, “जो भी हो, इतना तय है कि ऊपरी हिस्से में झील बनी हुई थी. ग्लेशियर में बदलाव से अक्सर ऐसा होता है. किसी तरह यह झील टूट गई, क्योंकि एक साथ इतना पानी आने की और कोई वजह नहीं है.”
ग्लेशियर का पिघलाव हमेशा बुरा नहीं रहा है, क्योंकि यह वो प्रक्रिया है जो गंगा सहित पूरे एशिया की दस बड़ी नदियों के लिए पानी का स्रोत है. लेकिन पिघलाव की यह प्रक्रिया पहले जैसी नहीं रही है. गर्मी बढ़ने से पिघलने की गति और उसके स्थान प्राकृतिक रूप से चले आ रहे पैटर्न से अलग होते जा रहे हैं जो तरकीबन दो अरब लोगों के रहन-सहन पर गहरा असर डाल सकते हैं.