उत्तराखंड की राजनीति में बीजेपी ने एक बार फिर अपने मुख्यमंत्री को बदल दिया है. त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सीएम पद से मंगलवार को इस्तीफा दे दिया और अब उनकी जगह नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर बैठक चल रही है. उत्तराखंड की सियासत में गढ़वाल और कुमांऊ के बीच चली आ रही सियासी वर्चस्व की लड़ाई के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत को अपनी कुर्सी गवांनी पड़ी है. हालांकि, पार्टी ने एक बार फिर त्रिवेंद्र रावत के बदले तीरथ रावत पर दांव खेला हैं ताकि जातीय के साथ क्षेत्रीय समीकरण को भी साधा जा सके.
उत्तराखंड में सांस्कृतिक और भाषाई तौर पर गढ़वाल और कुमाऊं दो रीजन में बटा हुआ है. प्रदेश की सियासत में दोनों ही क्षेत्रों को राजनीतिक बैंलेस बनाकर चलने की कवायद होती रही है, लेकिन जैसे ही एक क्षेत्र का सियासी वर्चस्व बढ़ता है तो दूसरा क्षेत्र से असंतोष की आवाजें उठने लगती हैं. यही वजह रही कि जब सीएम रावत ने गैरसैंण को मंडल बनाकर उसमें कुमांऊ के दो अहम जिलों अल्मोड़ा और बागेश्वर को शामिल किया तो उनके खिलाफ चला आ रही सुगबुगाहट इतनी खुलकर सामने आ गई कि सरकार का चेहरा बदलना पड़ा. हालांकि, बीजेपी ने गढ़वाल क्षेत्र से आने वाले तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाकर बैंलेंस बनाने की कवायद की है, क्योंकि बीजेपी के प्रदेश की कमान कुमाऊं से आने वाले पुराने दिग्गज बंशीधर भगत के हाथ में है.
तीन बड़े विधायकों की नाराजगी पड़ी भारी
त्रिवेंद्र सिंह रावत से कुमाऊं के तीन वरिष्ठ विधायक खासे नाराज चल रहे थे. डीडीहाट से विधायक विशन सिंह चुफाल, लोहाघाट के विधायक पूरन सिंह फर्त्याल और काशीपुर से विधायक हरभजन सिंह चीमा तीनों ने रावत सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था. विशन सिंह चुफाल ने तो रावत सरकार के कामकाज पर नाराजगी को लेकर पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात भी की थी और सरकार से असंतुष्ट विधायकों को एकजुट करने की भी कोशिशें की थीं. वहीं, पूरन सिंह फर्त्याल बार-बार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी ही सरकार को घेर रहे थे. उन्होंने सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे और साफतौर पर कहा था कि सरकार की ओर से इनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जा रहा है. वहीं, कुमाऊं के मैदानी इलाके काशीपुर से आने वाले वरिष्ठ विधायक हरभजन सिंह चीमा अफसरशाही के बहाने हर बार पत्रकारों के सामने सरकार की शिकायत करते रहते थे. अफसरों की मनमानी की यह शिकायत राज्य के दूसरे विधायकों की भी थी.
सरकार में कुमाऊं को प्रतिनिधित्व न मिलना
त्रिवेंद्र सिंह रावत चुपचाप काम करते हुए बड़े फैसले लेने में मशगूल रहे. हालांकि, इसी दौरान वह कई मामलों में संतुलन साधने से चूक गए. इनमें एक संतुलन क्षेत्र का भी रहा. कुमाऊं क्षेत्र से चुने गए विधायक मंत्रिमंडल में अपने क्षेत्र की अनदेखी से भी नाराज चल रहे थे. त्रिवेंद्र सरकार में कुमाऊं के चार बड़े और प्रभावशाली जिलों- पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और नैनीताल से एक भी विधायक को मंत्री पद नहीं दिया गया था. ऐसा तब हुआ जब प्रकाश पंत की मृत्यु के बाद मंत्रिमंडल में तीन जगहें खाली थीं. माना जा रहा था कि चुनाव का एक साल रह गया है और अब त्रिवेंद्र सरकार मंत्रिमंडल विस्तार करेंगे. सीएम के पास कई अहम विभाग थे, जिनका वरिष्ठ विधायकों के बीच बंटवारा किए जाने की दबी और खुली जुबान से मांग उठ रही थी, लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार का इंतजार पूरा होने से पहले सीएम ही बदल गए. खुद गढ़वाल से आने वाले सीएम के इस कदम को कुमाऊं को नजरअंदाज करने के तौर पर देखा और प्रचारित किया गया और उनके खिलाफ एंटी-कुमाऊं का परसेप्शन मजबूत होता गया.
गैरसैंण का हालिया घटनाक्रम बना आखिरी चोट
त्रिवेंद्र रावत के कई चौंकाने वाले फैसलों ने भी उनके खिलाफ काम किया. उनके हालिया फैसलों में से एक था- बिना अपने विधायकों से मशविरा किए गैरसैंण को उत्तराखंड की तीसरी कमिश्नरी बनाना. इसमें उन्होंने गढ़वाल से चमोली और रुद्रप्रयाग जिलों को को और कुमाऊं से अल्मोड़ा-बागेश्वर को अलग करके गैरसैंण के अधीन ला दिया. कुमाऊं क्षेत्र के विधायकों की नाराजगी थी कि उनसे सलाह-मशविरा किए बिना यह फैसला लिया गया है. यही नहीं, स्थानीय जनभावनाएं भी यह थीं कि फिलहाल अल्मोडा या बागेश्वर से गैरसैंण जाने के लिए पर्याप्त साधन ही नहीं हैं. ऐसे में यह कदम बिना किसी तैयारी के उठाया गया है. इसके अलावा अल्मोड़ा कुमाऊं का ही नहीं, उत्तर भारत का प्रमुख सांस्कृतिक और ऐतिहासिक केंद्र रहा है. उसको गैरसैंण के अधीन लाना भी स्थानीय लोगों को नहीं पचा.
बता दें कि अल्मोड़ा को भी कमिश्नरी बनाने की भी मांग रही थी, जबकि गैरसैंण पहले केवल एक तहसील थी और उसे आज तक जिला भी घोषित नहीं किया गया था. सीएम रावत ने उसे सीधे कमिश्नरी बना दिया और अल्मोड़ा को उसके अधीन ला दिया. हालांकि, गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग राज्य आंदोलन के समय से ही रही थी, लेकिन रावत ने जल्दबाजी और बिना किसी को भरोसे में लिए यह कदम उठाकर इस पूरे मामले को अलग दिशा दे दी. यह कदम भी उनके खिलाफ ही गया. इसके अलावा, गढ़वाल के विधायक भी चमोली और रुद्रप्रयाग को गैरसैंण मंडल के अधीन लाने से खुश नहीं थे.
आगे भी बनी रहेगी चुनौती
गढ़वाल बनाम कुमाऊं की लड़ाई आगे भी सरकार के लिए सिरदर्द बन सकती है. त्रिवेंद्र सिंह रावत मूल रूप से गढ़वाल से हैं. अब बीजेपी ने तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाया है. वह भी गढ़वाल से हैं और राजपूत समुदाय से आते हैं. उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस हमेशा से सीएम और पार्टी अध्यक्ष के तौर पर क्षेत्रीय और जातीय संतुलन साधकर चलती रही हैं. पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष बंशीधर भगत ब्राह्मण समुदाय से हैं और कुमाऊं क्षेत्र से आते हैं. राज्य में विधानसभा चुनावों में अब एक साल का वक्त बचा है और आने वाले दिनों में उम्मीद है कि तीरथ सिंह रावत मंत्रिमंडल विस्तार भी करेंगे. उनके एक साल के कार्यकाल में देखना होगा कि वह मंत्रिमंडल विस्तार में कुमाऊं क्षेत्र की नाराजगी को दूर कर पाते हैं या नहीं?