ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर. वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं.. बंटवारे के दर्द को बयां करती इस नज्म को लिखा था फैज अहमद फैज ने. फैज ने 1979 में एक नज्म लिखी हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे. क्रांति और इस नज्म का काफी पुराना नाता रहा है. विरोध प्रदर्शनों के दौरान इस नज्म को अक्सर सुना जाता है लेकिन अब इसे हिंदू विरोधी बताया जा रहा है. देखें वीडियो.