लेखक अनुजा चौहान का मानना है कि हम अक्सर हिन्दी बोलने में झेंप जाते हैं, लेकिन हमें झेंपना नहीं चाहिए. जैसी भी टूटी फूटी हिन्दी बोलनी आती हो, हमें हिन्दी बोलनी चाहिए, धीरे-धीरे यह सुधर जाएगी.