9 हफ्ते, 300 रैलियां और 25 हजार मील का सफर... जब पहले आम चुनाव में प्रचार करने उतरे थे नेहरू

15-03-2024

1947 में भारत जब आजाद हुआ, तब पहले प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने कई चुनौतियां थीं. उन्हें बिखरती कांग्रेस को भी संभालना था और नए-नए आजाद मुल्क को भी खड़ा करना था. पहली चुनौती थी लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव करवाने की.

आजाद हुए ढाई साल हुए थे और चुनाव आयोग का गठन कर दिया गया. मार्च 1950 में सुकुमार सेन मुख्य चुनाव आयुक्त बने.

रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखते हैं, 'प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि 1951 के बसंत तक चुनाव करवा लिए जाएं, लेकिन सुकुमार सेन के लिए ये बहुत ही मुश्किल काम था. सेन ने नेहरू को कुछ दिन इंतजार करने के लिए मना लिया.'

भारत के पहले आम चुनाव में 17 करोड़ 60 लाख से ज्यादा मतदाता थे. उस समय 21 साल या उससे ज्यादा उम्र के लोगों को ही वोट देने का अधिकार था. उस वक्त दो बड़ी चुनौतियां थीं. पहली तो यही कि 85 फीसदी से ज्यादा आबादी न तो पढ़ना जानती थी और न ही लिखना. ऐसे में मतदान पत्र, मतदान पेटी और पार्टियों के लिए चुनाव चिह्न तैयार करना बड़ी चुनौती थी. दूसरी चुनौती ये थी कि आम चुनाव के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जाने थे. ऐसे में चुनाव बड़ा सिरदर्द बन गए थे.

चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट तैयार करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. इसमें भी समस्या ये थी कि महिलाएं अपना नाम लिखवाने से हिचकती थीं. वो अपनी जगह किसी की मां या पत्नी के रूप में अपना नाम दर्ज करवाना चाहती थीं. नतीजतन वोटर लिस्ट से 28 लाख महिलाओं का नाम काट दिया गया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, 'भारत में जब पहले आम चुनाव की तैयारियां चल रही थीं. तब दुनिया में काफी उथल-पुथल थी. वियतनाम अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था. उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया में भी जंग जारी थी. उसी साल जॉर्डन के शाह, ईरान के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या भी कर दी गई थी.'

कांग्रेस पर लगे इल्जाम...

आजादी के बाद ही कांग्रेस बिखरने लगी थी. जेबी कृपलानी ने कांग्रेस से अलग होकर कृषक मजदूर प्रजा पार्टी बना ली थी. गांधीवादी नेता रहे जयप्रकाश नारायण ने भी सोशलिस्ट पार्टी बना ली.

आखिरकार 1952 के शुरुआती महीनों में चुनाव करवाना तय हुआ. लेकिन कुछ सुदूरवर्ती इलाकों में महीनों पहले ही चुनाव कराए जाने थे.

'इंडिया आफ्टर गांधी' में रामचंद्र गुहा लिखते हैं, 'जेबी कृपलानी और जेपी नारायण जैसे नेताओं ने कांग्रेस पर गरीबों से किए वादों से मुकरने का इल्जाम लगाया. उन्होंने दावा किया कि वो पुरानी 'गांधीवादी' कांग्रेस के विचारों के साथ हैं, जो जमींदारों और पूंजीपतियों की बजाय किसानों और मजदूरों के हित की बात करती थी.'

इनके अलावा एक दक्षिणपंथी पार्टी जनसंघ भी थी. इसकी स्थापना श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी. मुखर्जी केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे थे. जनसंघ ने उस वक्त हिंदुस्तान के सबसे बड़े वोट बैंक हिंदुओं को साधने की कोशिश की. जनसंघ के नेता कांग्रेस और नेहरू की तीखी आलोचना करते थे.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं, 'जनसंघ ने ऐलान किया कि वो अपनी मातृभूमि को फिर से एक करने का काम करेगी. वो पाकिस्तान को फिर से हिंदुस्तान में समाहित कर लेगी. जनसंघ ने मुसलमानों को संदेहास्पद अल्पसंख्यक करार देते हुए दावा किया कि इन्होंने अभी तक इस जमीन और यहां की संस्कृति को अपनाना नहीं सीखा.'

पहले आम चुनाव में प्रचार का तरीका भी गजब था. जगह-जगह पर्चे और पार्टी के चुनाव चिह्न लगा दिए गए. कलकत्ता (अब कोलकाता) में तो गायों की पीठ पर बंगाली में लिखवा दिया गया- 'कांग्रेस को वोट दें'.

सबके निशाने पर एक- नेहरू और कांग्रेस

चाहे वामपंथी पार्टियां हों या दक्षिणपंथी...सभी के निशाने पर नेहरू और कांग्रेस ही थे. नेहरू उस वक्त चारों ओर से घिरे थे. विरोधी पार्टियां तो उनपर हमले कर ही रही थीं, पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों का गुस्सा भी उन्हें सहना पड़ा था. दक्षिण में आंध्र प्रदेश के लोग और उत्तर में सिख समुदाय नाराज था. कश्मीर समस्या भी जस की तस बनी हुई थी.

तमाम चुनौतियों, विरोधियों के हमले और पार्टी के असंतुष्ट नेताओं को जवाब देने के लिए जवाहर लाल नेहरू ने चुनाव प्रचार में उतरने का फैसला लिया.

1951 की 30 सितंबर को रविवार का दिन था. इसी दिन नेहरू ने अपना चुनाव प्रचार शुरू किया. उन्होंने सरहदी इलाके में पड़ने वाले लुधियाना से चुनावी बिगुल फूंका. रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि नेहरू ने अपने पहले भाषण में सांप्रदायिकता के खिलाफ आर-पार की लड़ाई छेड़ने का आह्वान किया.

नेहरू ने कहा, 'ये शैतानी सांप्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गए तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव होगा.' उन्होंने जनता से कहा कि वो अपने दिमाग की खिड़की खुली रखे और पूरी दुनिया की हवा इसमें आने दे.

दो अक्टूबर को नेहरू ने दिल्ली में एक बड़ी रैली की. यहां उन्होंने 95 मिनट के भाषण में सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा दुश्मन बताया. उन्होंने कहा, 'सांप्रदायिकता की देश में कोई जगह नहीं है और हम पूरी ताकत से इस पर प्रहार करेंगे.' नेहरू ने आगे कहा, 'अगर कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमी पर धर्म की वजह से हाथ उठाता है तो सरकार का मुखिया होने के नाते और सरकार से बाहर भी, जिंदगी की आखिरी सांस तक उससे लड़ता रहूंगा.'

नेहरू जहां-जहां गए, वहां सांप्रदायिकता के खिलाफ बोले. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गढ़ बंगाल की एक रैली में नेहरू ने जनसंघ को आरएसएस और हिंदू महासभा की नाजायज औलाद कहकर खारिज कर दिया.

बंबई (अब मुंबई) में उन्होंने जनता को याद दिलाया कि कांग्रेस को वोट देने का मतलब विदेश नीति की सैद्धांतिक निर्गुटता को बढ़ावा देना है. तो भरतपुर और बिलासपुर में उन्होंने वामपंथियों को आड़े हाथ लिया. अंबाला में उन्होंने महिलाओं से पर्दा प्रथा त्यागने की अपील की.

जेबी कृपलानी, डॉ. बीआर अंबेडकर और जेपी नारायण सरीखे नेताओं से तमाम मतभेद होने के बावजूद नेहरू कई रैलियों में इनकी तारीफ भी करते थे. नेहरू कहते थे, 'हमें ऐसे कई लोगों की जरूरत है जिनमें काबिलियत हो और जो अपने उसूलों के पक्के हों. ऐसे नेताओं का स्वागत है लेकिन उनमें से सारे अलग-अलग दिशाओं में गाड़ी खींच रहे हैं और इसका कोई भी नतीजा नहीं निकल पा रहा है.'

पंडित नेहरू ने नौ हफ्ते के चुनावी अभियान में लगभग 300 रैलियों को संबोधित किया. रैलियों से इतर उन्होंने सड़क किनारे खड़े होकर भी लोगों से बात की. सीधे तौर पर उन्होंने दो करोड़ से ज्यादा लोगों से संवाद किया. कांग्रेस ने अपनी एक पुस्तिका में दावा किया था कि नेहरू जहां जाते, वहां स्कूल और दुकानें बंद हो जातीं. नेहरू की जनसभा में लोगों को ले जाने के लिए स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं. लोग ट्रेन की सीढ़ियों तक पर बैठे रहते थे और जिन्हें यहां जगह नहीं मिलती, वो छत पर बैठ जाते थे.

ऐसा ही एक किस्सा नेहरू की खड़गपुर शहर की एक रैली से भी जुड़ा है. यहां नेहरू को सुनने के लिए एक तेलुगु महिला भी पहुंची थी, जो उस वक्त गर्भवती थी. नेहरू का भाषण चल ही रहा था कि उसी समय प्रसव पीड़ा शुरू हो गई. आनन-फानन में लोगों ने उस महिला के चारों तरफ घेरा बना दिया. सकुशल बच्चे का जन्म हो गया.

सिर्फ एक जगह नहीं पहुंचे नेहरू!

चुनाव प्रचार के दौरान नेहरू देश के हरेक कोने तक पहुंचे. लेकिन एक जगह वो नहीं पहुंच पाए थे, वो थी हिमाचल प्रदेश की चीनी तहसील. वो इसलिए क्योंकि यहां 25 अक्टूबर 1951 को ही वोट पड़ गए थे. यहां पहले ही वोटिंग करवा ली गई थी, क्योंकि सर्दियों में बर्फबारी से ये जगह बाकी दुनिया से कट जाती थी.

एक-एक वोट की कीमत

भारत में ऐसे समय चुनाव हुए थे, जब देश की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी अशिक्षित थी. लेकिन इसके बावजूद लोगों को अपने वोट की कीमत पता थी.

केरल की कोट्टायम सीट पर सबसे ज्यादा वोटिंग हुई थी. यहां 80 फीसदी से ज्यादा वोट पड़े थे. वहीं, सबसे कम महज 18 फीसदी वोट मध्य प्रदेश की शहडोल सीट पर पड़े थे. जबकि, पूरे देश में 60 फीसदी से ज्यादा वोटर्स ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था.

उड़िसा (अब ओडिशा) के एक जंगली इलाके में आदिवासी समुदाय के लोग तीर-धनुष लेकर पोलिंग बूथ पर आए थे. मदुरै में एक 110 साल के बुजुर्ग अपने पड़पोतों के साथ वोट डालने पहुंचे थे.

ग्रामीण महाराष्ट्र में 90 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्ग ने विधानसभा के लिए तो वोट डाल दिया था. लेकिन लोकसभा चुनाव के लिए वोट डालने से पहले ही उनकी मौत हो गई थी. लोकतंत्र की एक तस्वीर ये भी थी कि हैदराबाद में सबसे पहला वोट वहां के निजाम ने डाला था.

फिर आए नतीजे...

1952 की फरवरी के आखिरी तक देशभर में वोटिंग की प्रक्रिया खत्म हो गई थी. जब वोटों की गिनती हुई तो कांग्रेस आराम से जीत गई.

कांग्रेस को संसद की 489 में से 364 सीटों पर जीत मिली. जबकि, विधानसभाओं की 3,280 सीटों में से 2,247 पर कांग्रेस प्रत्याशियों की जीत हुई. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 45 फीसदी और विधानसभा चुनाव में 42.4 फीसदी वोट मिले.

उस वक्त कांग्रेस और नेहरू की इतनी बड़ी लहर होने के बावजूद 28 मंत्री चुनाव हार गए थे. इनमें जयनारायण व्यास और मोरारजी देसाई जैसे नेता भी शामिल थे.

नेहरू इलाहाबाद सीट से खड़े हुए थे. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी को एक लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था. नेहरू को 2,33,571 वोट मिले थे.

पूरी दुनिया हैरान थी कि एक नए-नवेले और कथित रूप से कमजोर मुल्क में इस तरह से चुनाव संपन्न हो गया. चुनाव से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने कहा था, 'हिंदुस्तान मानवजाति के इतिहास में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक प्रयोग करने जा रहा है.'

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Story By: प्रियंक द्विवेदी