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देश के जवान की जिंदगी उसकी खुद की नहीं बल्कि वतन के नाम लिखी होती है. वो अपनी जिंदगी हथेली पर लिए ताउम्र सरहदों की पहरेदारी करता है. अपनी इस ड्यूटी के दौरान कभी-कभी शहीद भी हो जाता है और पीछे रह जाती है एक पत्नी जो फौजी पति की शहादत को नम आंखों से स्वीकार कर लेती है, छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें इल्म तक नहीं होता कि उनके पिता अब लौटकर नहीं आएंगे. बू़ढ़े मां-बाप जो अपने बुढ़ापे की बैसाखियों को गंवा चुके होते हैं.
केंद्र सरकार ने 2017 में एक आरटीआई के जवाब में बताया था कि शहीद की परिभाषा का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है. आमतौर पर युद्ध या विशेष ऑपरेशन के दौरान जान गंवाने वाले जवानों को ही शहीद का दर्जा मिलता है. लेकिन वतन के लिए हर वो जवान शहीद है, जो देश की सेवा करते हुए कुर्बानी देता है. और इन्हीं शहीदों की शहादत को जिंदा रखे हुए हैं Force Behind the Forces कही जाने वाली वीरनारियां. वीरनारी दरअसल शहीदों की विधवाओं को कहा जाता हैं. पति की शहादत के बाद इन्हें हर मोर्चे पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. ससुराल पक्ष का बदलता व्यवहार, समाज की असंवेदनशीलता और जानकारी का अभाव इन वीरनारियों की दिक्कतें बढ़ा देता है. aajtak.in ने ऐसी ही कुछ वीरनारियों से बात कर उनका दर्द जाना.
बिहार के चंपारण की रहने वालीं वीरनारी रंजना के पति भारतीय तटरक्षक (कोस्ट गार्ड) में तैनात थे. 2023 की शुरुआत में ड्यूटी के दौरान वह शहीद हो गए. पति की शहादत रंजना को जिंदगी भर का गम दे गया. ग्रामीण परिवेश से ताल्लुक रखने वाली रंजना ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं. आर्थिक सहायता और पेंशन के लिए उन्हें काफी चक्कर काटने पड़े. आठवीं तक की स्कूली शिक्षा ने उनके संघर्ष को दोगुना कर दिया.
रंजना बताती हैं, ‘इस संघर्ष के दौरान मुझे अहसास हुआ कि किसी महिला का शिक्षित होना कितना जरूरी है. मैंने पेंशन के लिए सरकारी दफ्तरों के बहुत चक्कर काटे. दस्तावेजों को समझने में मुझे काफी समय लग गया. इस वजह से कई बार सरकारी अधिकारियों का बर्ताव भी मेरे साथ बुरा रहा. कई मौकों पर लगा ही नहीं कि मेरे पति ने इस देश के लिए शहादत दी है. खैर, वो एक मुश्किल दौर था, जो गुजर गया.’
पति की शहादत के बाद परिवार और समाज के भीतर जंग लड़ना भी वीरनारियों की एक कड़वी सच्चाई है. वीरनारी रंजना ने बताया कि 'पति जब शहीद हुए तो कुछ समय बाद ही राज्य सरकार की तरफ से आर्थिक मुआवजे की प्रक्रिया शुरू हो गई. शुरुआत में ससुराल वालों का व्यवहार ठीक रहा. लेकिन बाद में वे मुआवजे में हिस्सा मांगने लगे. जब मैंने बच्चों की परवरिश और उनकी पढ़ाई-लिखाई की बात कहकर हिस्सा देने से मना कर दिया तो ससुराल में सभी का बर्ताव अचानक से बदल गया. इतने बड़े सदमे के कुछ दिन बाद मुझे मानसिक रूप से परेशान करने के नए-नए तरीके ढूंढे जाने लगे. मुआवजे के लिए जिन दस्तावेजों की जरूरत पड़ती थी, उन्होंने वे दस्तावेज तक छिपा दिए. ताकि मुझे वो मुआवजा नहीं मिल सके.’
साल 2022 में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के 39 जवानों से भरी बस जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में खाई में गिर गई थी. इस दुर्घटना में कई जवानों की मौत हो गई थी. जान गंवाने वालों में राजस्थान के सीकर की रहने वालीं वीरनारी सरला के पति भी थे. इस हादसे के समय सरला लगभग नौ महीने की गर्भवती थीं. वह बताती हैं, 'कहने को मेरा बहुत बड़ा परिवार है. सास-ससुर, ननद, देवर, भाभी सभी हैं लेकिन जब बच्चों की परवरिश की बात आती है तो मैं एक सिंगल मदर हूं. तब मेरे साथ कोई खड़ा नजर नहीं आता.'
सरला ने आजतक को बताया कि 'पति की शहादत के बाद राज्य सरकार की तरफ से अनुकंपा नौकरी की बात चलने पर ससुराल वालों ने मुझ पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. लगातार दबाव बनाया गया कि मैं ये नौकरी अपने अपने देवर को दे दूं.' वह कहती हैं कि ससुराल की तरफ से मानसिक प्रताड़ना इतनी ज्यादा थी कि उनकी मांग के आगे झुकना पड़ा और वो सरकारी नौकरी देवर के हिस्से चली गई.
सरला की दिक्कतें यहीं नहीं रुकीं. उन्होंने बताया 'जब मेरा सिलेक्शन लेक्चरार के पद पर हुआ तो मुझ पर दोबारा दबाव बनाया जाने लगा. इस बार दबाव देवर से जबरन शादी को लेकर था. लेकिन इस बार मैंने ठान लिया था कि झुकना नहीं है. मेरे ससुराल वाले अब भी मुझ पर ये दबाव बना रहे हैं.'
भारतीय सेना में तैनात हवलदार हरप्रीत सिंह चार साल पहले देश की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे. उनकी पत्नी वीरनारी रणदीप कौर बताती हैं कि 'जिस वक्त यह खबर मिली कि पति शहीद हो गए हैं. मेरे बच्चों की बोर्ड परीक्षाएं चल रही थीं. उनके फाइनल एग्जाम थे. मुझे समझ ही नहीं आया कि पति की शहादत का शोक मनाऊं या बच्चों को देखूं. पति के जाने का गम था लेकिन बच्चों के भविष्य की भी चिंता थी. अचानक से मेरे परिवार का व्यवहार भी बदल गया.'
रणदीप कौर बताती हैं कि 'मेरे परिवार ने मुझे बेसहारा छोड़ दिया. मेरे ससुर सेना की यूनिट से पति का सामान लेने गए थे. लेकिन मुझे इसकी खबर तक नहीं दी गई. उनका जो भी सामान आया था, उसे ट्रंक में रख दिया लेकिन मुझे हाथ तक लगाने नहीं दिया. उनकी यूनिफॉर्म और बाकी सामान को मैंने आज तक हाथ नहीं लगाया है. मेरे ससुराल वालों को मैं अपशकुनी लगती हूं.'
रणदीप कहती हैं कि पति की शहादत के बाद लगा था कि परिवार और समाज से सहारा मिलेगा. लेकिन ना परिवार काम आया और ना ही समाज. वह बताती हैं, 'मेरे ससुर ने सैनिक बोर्ड में गलत बयानबाजी कर सरकारी मुआवजा रुकवा दिया. एजीआई से मिलने वाले पैसों पर भी रोक लगवा दी. बेटी को उच्च शिक्षा के लिए कनाडा भेजना था, लेकिन पैसे नहीं थे. जब यूनिट से संपर्क किया, तब जाकर पता चला कि ससुराल वालों ने ऑब्जेक्शन लगवा रखा है. बड़ी मान-मनौव्वल के बाद यूनिट की मदद से सरकारी पैसा मिल पाया.'
हरियाणा की रहने वालीं वीरनारी सुनीता दुहान के पति बीएसएफ में थे. कुछ साल पहले ड्यूटी के दौरान वो शहीद हो गए और यहीं से सुनीता का संघर्ष भी शुरू हुआ. वह बताती हैं कि पति की शहादत के बाद सरकार की तरफ से जो भी थोड़ा बहुत पैसा मिला था. उसे रिश्तेदारों ने मांगना शुरू कर दिया.
सुनीता रुआंसे मन से बताती हैं कि 'समाज वीरनारियों के प्रति संवेदनशील बने रहने का दिखावा करता है. साल में कुछेक दिन सरकारी कार्यक्रमों में शॉल ओढ़ाकर हमारा सम्मान कर दिया जाता है. लेकिन लोग हमें सामाजिक कार्यक्रमों में बुलाने से भी कतराते हैं.'
वह बताती हैं कि जब रिश्तेदारों को पता चला कि सरकार की तरफ से आर्थिक मदद मिल गई है तो फोन करके या घर आकर उधारी मांगने लगे. इतना ही नहीं, अगर किसी जवान की कम उम्र की वीरांगना अपने बच्चों के भविष्य की खातिर दूसरी शादी करने की सोचती भी है तो खुद उसके परिवार के लोग उस पर केस कर देते हैं.
समाज में विधवाओं से भेदभाव आज भी बड़ी कुरीति बना हुआ है. वीरनारियां भी इसी दंश को झेल रही हैं. कहने को वे शहीद सैनिकों की पत्नियां हैं लेकिन समाज उन्हें वैवाहिक कार्यक्रमों या सामाजिक कार्यों तक में शामिल करने से बचता है.
किसी भी परिस्थिति में वीरनारी के दोबारा शादी करने पर पेंशन और सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं. अनुकंपा नौकरी छीन ली जाती है या फिर अगर भविष्य में उनके बच्चे भविष्य में अपने पिता की अनुकंपा नौकरी करना चाहते हैं तो उन्हें भी नौकरी से वंचित कर दिया जाता है. वीरनारी के कई बार दूसरी शादी करने पर ससुराल वाले खुद नौकरी से हटाने की मांग करते हुए केस कर देते हैं. दोबारा शादी करने पर शहीद की विधवा के सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं.
युद्ध या विशेष ऑपरेशन के दौरान शहीद हुए जवानों को ही 'शहीद' का दर्जा मिलता है. अगर अन्य किसी परिस्थिति में किसी जवान की मौत ऑन या ऑफ ड्यूटी होती है तो उसे शहीद का दर्जा नहीं मिलता. लेकिन शहीद हैं कौन? खुद गृह मंत्रालय का कहना है कि भारत सरकार ने कहीं भी 'शहीद' शब्द को परिभाषित नहीं किया है.
तीन सशस्त्रबलों आर्मी, एयरफोर्स और नेवी को मिलाकर देश में कुल 11 डिफेंस फोर्सेज हैं. इनमें आठ पैरामिलिट्री फोर्सेज भी हैं जिनमें बीएसएफ, आईटीबीपी, एनएसडी, असम राइफल्स, सीआरपीएफ, इंडियन कोस्ट गार्ड, सीआईएसएफ और एसएसबी शामिल हैं. हर फोर्स में एक जैसी सुविधाएं नहीं हैं. अलग-अलग फोर्स में शहीदों के परिवार वालों को अलग-अलग आर्थिक सहायता मिलती है.
भारत अब तक चार बार 1962, 1965, 1972 और 1999 में जंग के मैदान में उतर चुका है. श्रीलंका में बीते कुछ सालों में जो ऑपरेशन हुआ है, उसमें भी 1500 से 2000 जवानों की शहादत हुई है. अमूमन शहीद का दर्जा मिलने के बाद शहीद के परिवार को आर्थिक सहायता दी जाती है लेकिन शहीद का दर्जा मिलने पर ही पेंच फंसा हुआ है.
बैटल कैजुअल्टी में भी राज्य सरकार शहीद परिवार को आर्थिक मदद देती है. यह आर्थिक मदद हर राज्य में अलग-अलग है. पंजाब और दिल्ली जैसे राज्य में शहीद के परिवार को सबसे अधिक एक करोड़ रुपये तक मिलते हैं. वहीं, जम्मू कश्मीर, गुजरात और नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में पांच से दस लाख रुपये तक मिलते हैं. दिल्ली में सबसे अधिक एक करोड़ रुपये तय किए गए हैं, लेकिन यहां पेंच ये है कि दिल्ली से फौज में भर्तियां नहीं होतीं.
युद्ध के मैदान में या किसी ऑपरेशन में शहीद होने वाले अधिकतर जवान भारतीय सशस्त्र बलों के सबसे निचले रैंक (सिपाही, लांस नायक, नायक, हवलदार) से जुड़े होते हैं. ज्यादातर मामलों में शहादत के समय सैनिकों की औसत उम्र 22 से 32 साल होती है. लाजिमी है कि शहीदों की वीरनारियों की औसत उम्र 18 से 30 साल के आसपास होती है. इतनी कम उम्र में विधवा होने वाली वीरनारियों के समक्ष कई तरह की दिक्कतें खड़ी हो जाती हैं. एक तो अधिकतर महिलाएं ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़ी होती हैं. दूसरा उनका शिक्षा का स्तर उतना अधिक नहीं होता. इससे दिक्कतें बढ़ती ही हैं.
इनमें से अधिकतर वीरनारियों को साधारण पेंशन मिलती है जो 10,500 रुपये से 15,000 रुपये महीना है. अचानक से परिवार की पूरी जिम्मेदारी, सामाजिक आलोचना और पैसे की किल्लत इन्हें अवसाद और हताशा की स्थिति में पहुंचा देती है.
विडंबना ये है कि वीरनारी का दर्जा सिर्फ उन्हीं महिलाओं को मिलता है, जिनके फौजी पति सीमा पर या फिर आतंकी हमले में शहीद होते हैं. लेकिन इस तरह के मामले दो से तीन फीसदी ही होते हैं. मतलब ये कि बाकी की 98 फीसदी वीरनारियों की आर्थिक सुरक्षा ना के बराबर है. इस पर सरकार भी गौर नहीं करती.
देश के लिए जान गंवाने वाले परिवार वालों की पूरी कोशिश रहती है कि उन्हें शहीद के परिवार का दर्जा मिल जाए. ताकि कुछ आर्थिक मदद मिल सके. साथ ही शहीद का दर्जा मिलने पर सीबी फंड, पेंशन और बच्चों की स्कूल फीस का जिम्मा भी केंद्र सरकार लेती है. लेकिन कमाल की बात ये है कि यह मदद और सुविधाएं भारतीय सशस्त्रबलों के जवानों को कुछ ही परिस्थितियों (युद्ध के मैदान या विशेष ऑपरेशन या आतंकी घटनाओं) में शहीद होने पर ही मिलती है. नतीजतन हजारों शहीद या विकलांग हुए जवानों के परिवारों को इस तरह की कोई भी सरकारी मदद या मान्यता नहीं मिलती. केंद्र सरकार की ओर से मिलने वाली पेंशन भी कुछ समय बाद आधी कर दी जाती है.
देश में शहीदों के ऐसे हजारों परिवार हैं, जिन्हें एक अदद मदद की उम्मीद हैं. ऐसे ही शहीद सैनिकों के लिए काम कर रहे वीरनारी शक्ति रिसैटेलमेंट फाउंडेशन के संस्थापक प्रशांत तिवारी बताते हैं कि जैसे ही कोई जवान शहीद होता है तो उसके परिवार के साथ हमारा सफर शुरू हो जाता है. परिवार को हर मोर्चे पर मदद दी जाती है. शहीद परिवार के साथ हमारा चार सालों का सफर होता है. इस दौरान वीरनारियों की लीगल काउंसिलिंग से लेकर उनके परिवार की देखरेख, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य में मदद का जिम्मा उठाया जाता है. हैरानी की बात ये है कि आमजन में ये धारणा बनी हुई है कि किसी जवान की शहादत के बाद उसका परिवार केंद्र या राज्य सरकार की देखरेख में आसानी से जिंदगी बिताता है. लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है.
Report: Ritu Tomar
Cover Image: Vani Gupta
Photos: Special Arrangement
Infographics: Arun Uniyal