share social media
Please rotate your device

We don't support landscape mode yet. Please go back to portrait mode for the best experience

नॉर्थ-ईस्ट की कहानीः बगावत, मुख़ालफ़त, प्यार और तकरार...दिल के इतने करीब फिर भी क्यों हैं दूरियां!

जरा कल्पना कीजिए क्या होगा अगर राजधानी दिल्ली लगातार दो महीने तक हिंसा की आग में जलती रहे... उत्तर प्रदेश, पंजाब या हरियाणा जैसे प्रभावशाली राज्यों में महीनों तक दंगे भड़कते रहें... ऐसे में ना महाराष्ट्र की सियासत बड़ी खबर बन पाएगी और ना दिल्ली की बाढ़. लेकिन देश का एक राज्य ढाई महीने से हिंसा का दंश झेल रहा है, वहां जनजीवन ठप है मगर सियासत से लेकर आम जनमानस तक में चुप्पी है. ऐसी चुप्पी जो पूर्वोत्तर से बाकी भारत के रवैये पर सवाल उठाती है. क्या वजह है कि पूर्वोत्तर में होने वाली बड़ी से बड़ी घटना राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाती? इसका जवाब जानने के लिए हमें इन ‘सेवन सिस्टर्स और वन ब्रदर’ के इतिहास में झांकना पड़ेगा.

पूर्वोत्तर के राज्यों अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और सिक्किम को ‘सेवन सिस्टर्स और वन ब्रदर’ कहा जाता है. ये राज्य आपस में तो भाई बहनों की तरह रचे-बसे हैं लेकिन एक दूसरे से इनके विवाद भी किसी से छिपे नहीं हैं. कहने को तो पूर्वोत्तर के ये राज्य देश का हिस्सा हैं लेकिन उत्तर, दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों की तुलना में ये मेनलैंड इंडिया से कनेक्ट नहीं कर पाए. ये कनेक्शन मजबूत नहीं होने के कई कारण हैं लेकिन हम शुरुआत करेंगे इनके अतीत से. उस अतीत से जो इनके वर्तमान को प्रभावित कर रहा है लेकिन भविष्य को भी अपनी जद में लेने को तैयार है.

आठ राज्यों वाला पूर्वोत्तर बाकी देश से महज 22 किलोमीटर चौड़ी लैंडस्ट्रिप से जुड़ा हुआ है, जिसे अमूमन ‘सिलिगुड़ी कॉरिडोर‘ या फिर ‘चिकन नेक‘ भी कहा जाता है. यह देश का सबसे अधिक डाइवर्स इलाका है, जहां 200 से अधिक जनजातियां रहती हैं, जिनकी अपनी संस्कृति, परंपराएं और भाषाएं हैं. इन आठ राज्यों की 99 फीसदी सीमाएं अन्य देशों से सटी हैं. यही वजह है कि मेनलैंड इंडिया के मुकाबले यहां की संस्कृतियों और भाषाओं में खासा अंतर देखने को मिलता है. 

गुलाम भारत में नॉर्थ-ईस्ट

ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्वोत्तर कोई सिंगल एनटीटी नहीं था. यहां अनगिनत जनजातियां मौजूद थीं. आजादी के समय पूर्वोत्तर के इलाके में असम, अरुणाचल प्रदेश और प्रिंस्ली स्टेट ऑफ मणिपुर एंड त्रिपुरा ही थे. उस समय नगालैंड,  मेघालय और मिजोरम असम का हिस्सा हुआ करते थे. लेकिन बाद में एक-एक कर ये सभी स्टेट भारत का हिस्सा बने. आजादी के समय यह विविधता और बढ़ी.

बंगाल से लोगों ने पूर्वोत्तर की तरफ कूच करना शुरू कर दिया. आजादी के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भी शरणार्थी आकर यहां बसने लगे. 71 की जंग के बाद जब बांग्लादेश बना तो एक बार फिर शरणार्थियों की आबादी पूर्वोत्तर आने लगी. इसके अलावा इंटर-स्टेट माइग्रेशन भी खूब हुआ.

पूर्वोत्तर में उग्रवाद की एक वजह ये भी है. जब बाहरी लोगों ने यहां आकर बसना शुरू किया तो स्थानीय लोगों को अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आया. नतीजा ये हुआ कि अलग-अलग जनजातियों के उग्रवादी संगठन मशरूम की खेती की तरह उगने लगे. अलग-अलग स्थानीय संगठनों की ओर से अलग देश की मांग भी उठने लगी. ये संगठन बाहरियों को उनके क्षेत्रों से खदेड़ने की मुहिम शुरू करने लगे.

एक फैसला और पूर्वोत्तर में उग्रवाद की शुरुआत

पूर्वोत्तर को अब देश का सबसे अशांत इलाका माना जाता है. लेकिन पहले यहां स्थिति कुछ और ही थी. दरअसल ब्रिटिश शासन के दौरान इस क्षेत्र में नॉन इंटरफेरेंस (दखल नहीं देने) की नीति लागू कर दी गई. यानी इस क्षेत्र में किसी तरह का दखल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. इसके पीछे वजह ये थी कि अंग्रेज नॉर्थ ईस्ट के संसाधनों का दोहन करना चाहते थे. वे नॉर्थ ईस्ट का इस्तेमाल कच्चे माल के निर्यातक के तौर पर करते थे. लेकिन आजादी के बाद जब इन राज्यों को भारत में एक-एक कर शामिल किया गया. तो सवाल उठा इन राज्यों के ट्राइबल कल्चर को भारत में शामिल करने का, जिसका यहां के ज्यादातर समुदायों ने विरोध किया. ये लोग अपनी संस्कृति को बचाए रखना चाहते थे. यही वजह थी कि इन क्षेत्रों में विद्रोह की शुरुआत हुई.

1950 के दशक में पहला विद्रोह

सरकारी आंकड़े उठाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि पूर्वोत्तर के राज्यों में पहला विद्रोह या उग्रवाद की पहली घटना 1950 के दशक में नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) के द्वारा नगा हिल्स में देखने को मिली. यह वह दशक था, जब भारत ने नगाओं के अलग नगालैंड की मांग को खारिज कर दिया था और यहीं से विद्रोह की शुरुआत हुई.

इसके बाद 1956 में भारतीय सेना ने यहां पर काउंटर इन्सर्जेंसी ऑपरेशन (Counter Insurgency Operation) शुरू किया, जिसके बाद इस क्षेत्र को डिस्टर्बड एरिया (Disturbed Area) घोषित कर दिया गया. इसके बाद कई और जनजातीय समूहों ने आजादी के लिए विद्रोह शुरू किया. इस तरह नगाओं के विद्रोह के बाद पूर्वोत्तर में एक-एक कर विद्रोह होते चले गए.

पूर्वोत्तर में हर दशक में एक बड़ा विद्रोह देखने को मिला है. 1966 में मिजोरम के लुशाई हिल्स डिस्ट्रिक्ट के लोगों ने असम सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया था. उनका कहना था कि असम सरकार उनकी मांग और चिंताओं को पूरी तरह से अनदेखा कर रही है. यह विद्रोह इतना जबरदस्त था कि यह लगभग 20 साल तक चला.

मणिपुर को धोखे से भारत में शामिल करने का आरोप

1960 के दशक में ही मणिपुर में इम्फाल वैली की मैतेई समुदाय ने एक और विद्रोह किया था. उनका कहना था कि 1949 में मणिपुर के प्रिंस्ली स्टेट को भारत के साथ धोखे से शामिल किया गया था. त्रिपुरा भी आजादी के समय प्रिंस्ली स्टेट हुआ करता था. उस समय वहां 60 फीसदी स्वदेशी और 40 फीसदी बंगाली आबादी थी. हालांकि, उस समय वह भारत के साथ शांतिपूर्ण तरीके से विलय तो हो गया लेकिन आगे आने वाले सालों में वहां कुछ डैमोग्राफिक बदलाव देखने को मिले. बेहतर शिक्षित और समृद्ध बंगाली समुदाय के लोगों को नौकरियों और बाकी चीजों में प्राथमिकता दी जाने लगी. इस वजह से त्रिपुरा के स्थानीय लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ा. 1980 के दशक में त्रिपुरा नेशनल वॉलेंटियर्स ने इसके खिलाफ विद्रोह किया. इस तरह असम में भी कई कारकों की वजह से वहां एक लंबा विद्रोह शुरू हुआ.

इस तरह समझा जा सकता है कि पूर्वोत्तर के अलग-अलग राज्यों में विद्रोह के अलग-अलग कारण रहे हैं लेकिन साथ में कुछ कॉमन फैक्टर भी हैं. आंकड़े बताते हैं कि तीन दशकों में पूर्वोत्तर में 22 हजार से ज्यादा उग्रवादी घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें छह हजार से ज्यादा नागरिक मारे गए हैं. जबकि डेढ़ हजार से ज्यादा जवान शहीद हो चुके हैं. 

बोडोलैंड की मांग की आग में जलता असम

असम मूल रूप से कई छोटी-छोटी जनजातियों की भूमि है. 1826 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने जनजातीय समूहों के राजवंश को हराकर असम पर कब्जा कर लिया था. 1832 में कछार और 1832 में जैंतिया हिल्स पर कब्जा किया गया. 1874 में असम अलग प्रांत बना,  जिसकी राजधानी शिलॉन्ग थी. 1947 में असम भारत का राज्य बना. असम में लोगों को तीन श्रेणियों- जनजातीय, गैर-जनजातीय और अनूसूचित जाति में बांटा गया है.

असम में विद्रोह की शुरुआत 1979 में तब हुई, जब यहां यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी ULFA बना. उसी साल ऑल स्टूडेंट्स असम यूनियन यानी AASU भी बना, जिसने अवैध प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा. 80-90 का दशक आते-आते उल्फा सबसे बड़ा उग्रवादी संगठन बन गया. ज्यादा से ज्यादा युवा उसके साथ जुड़ते हुए. उल्फा असम को एक अलग देश बनाने की जिद पर अड़ा था. उल्फा से युवाओं के जुड़ने के कई कारण थे, जैसे- अवैध अप्रवासी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और गैर-असम नागरिकों का कारोबार में दबदबा. 1990 में सरकार ने उल्फा को आतंकी संगठन मानते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया.

1987 में ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (ABSU) ने बोडो जनजाति के लिए अलग 'बोडोलैंड' की मांग को लेकर आंदोलन कर दिया. इसके बाद बोडो जनजाति के कई उग्रवादी संगठन बनते चले गए. उल्फा और बोडो के अलावा कार्बी और दिमासास जनजाति और आदिवासियों ने भी अपने-अपने संगठन बना लिए. कुछ की मांग थी कि असम को अलग देश बना दिया तो कुछ अपने लिए और ज्यादा अधिकार मांग रहे थे.

90 के दशक के बाद से ही इन अलगाववादी और उग्रवादी संगठनों के खिलाफ एक्शन तेज हो गया. नतीजा ये हुआ कि कई अलगाववादी बांग्लादेश भाग गए. कई मारे गए और कई ने सरेंडर कर दिया. जो संगठन बचे उन्होंने भारत सरकार और असम सरकार के साथ समझौता कर लिया. सरकार का दावा है कि असम में उग्रवाद अब पूरी तरह से खत्म हो गया है. इसी साल मई में केंद्र सरकार, असम सरकार और दिमासा नेशनल लिबरेशन आर्मी में शांति समझौता हुआ था. इसके बाद सरकार ने दावा किया कि अब यहां कोई भी उग्रवादी संगठन सक्रिय नहीं है.

असम में साल 2000 में उग्रवाद की 536 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 76 जवान शहीद हुए थे और 419 आम नागरिक मारे गए थे. साल 2022 में राज्य में सिर्फ 7 घटनाएं हुई थीं.

असम से अलग होकर बना था अरुणाचल प्रदेश

आजादी के समय अरुणाचल अलग राज्य नहीं था. ये नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी नेफा का हिस्सा हुआ करता था. 1962 में चीन से युद्ध होने के 10 साल बाद 1972 में अरुणाचल प्रदेश को असम से अलग कर दिया गया और नया राज्य बना दिया गया. अरुणाचल में 26 प्रमुख जनजातियां और बहुत सारी उप-जनजातियां हैं. शुरुआत में ये केंद्र शासित प्रदेश था, लेकिन 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया.

अरुणाचल प्रदेश में वैसे तो कोई यहां का स्थानीय अलगाववादी या उग्रवादी संगठन नहीं पनप पाया. लेकिन असम और नागालैंड से चलने वाले कई उग्रवादी संगठन यहां एक्टिव रहे. यहां बांग्लादेश से आए चकमा रिफ्यूजियों के बसने के कारण समय-समय पर कई हिंसक घटनाएं जरूर होती रही हैं. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (NSCN) यहां का सबसे बड़ा अलगाववादी संगठन था.

अरुणाचल प्रदेश आमतौर पर शांत रहता है, लेकिन वहां किडनैपिंग और फिरौती की घटनाएं बढ़ रही हैं. सरकार का दावा है कि यहां उग्रवाद या अलगाववाद जैसी समस्या से छुटकारा पा लिया गया है. 2015 में NSCN के साथ शांति समझौता हो चुका है. साल 2000 में अरुणाचल में 74 घटनाएं हुई थीं, जिनमें तीन आम नागरिक मारे गए थे. 2022 में 24 घटनाएं हुईं, जिनमें दो नागरिकों की मौत हुई थी. 

मैतेई और कुकी समुदाय के बीच पिसता मणिपुर

ब्रिटिश इंडिया में मणिपुर एक रियासत हुआ करता था. 1947 में मणिपुर के महाराजा को कार्यकारी प्रमुख बनाते हुए यहां एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया गया. जनवरी 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला. यहां की प्रमुख आबादी मणिपुरी लोगों की है जिन्हें मैतेई के नाम से जाना जाता है. पहाड़ियों में बसने वाली 29 जनजातियों को नगा और कुकी में बांटा गया है.

1960 में यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (UNLF) बना. ये मैतेई समुदाय से जुड़े लोगों का उग्रवादी संगठन था. भारत में विलय होने पर मैतेई समुदाय से जुड़े नाराज लोगों ने इसे बनाया था. तभी से यहां उग्रवाद शुरू हुआ. इसके बाद 90 के दशक में कुकी समुदाय ने भी अपना उग्रवादी संगठन बना लिया. कुकी ने नगाओं का मुकाबला करने के लिए ये संगठन बनाया था.

मणिपुर में उग्रवाद के साथ-साथ जातीय संघर्ष भी है. यहां मैतेई और नगा-कुकी के बीच संघर्ष होता है. मणिपुर में मैतेई लोगों की आबादी 53 फीसदी से ज्यादा है. लेकिन इनके पास जनजाति यानी एसटी का दर्जा नहीं है. जबकि, नगा और कुकी एसटी हैं. मैतेई लंबे समय से एसटी का दर्जा मांग रहे हैं. आरक्षण की व्यवस्था होने के कारण मैतेई सिर्फ जमीनी इलाकों पर ही बस सकते हैं. जबकि, नगा और कुकी पहाड़ी इलाकों के साथ-साथ जमीन पर भी रह सकते हैं. यही वजह है कि मैतेई भी एसटी का दर्जा मांग रहे हैं. अगर उन्हें भी एसटी का दर्जा मिल जाता है, तो वो भी जमीन के साथ-साथ पहाड़ी इलाकों में बस सकेंगे. नगा और कुकी इसके खिलाफ हैं.

मणिपुर ढाई महीने से हिंसा में जल रहा है. कुकी समुदाय की ओर से निकाली गई रैली में हिंसा भड़क गई थी. तब से ही राज्य में मैतेई और नगा-कुकी के बीच हिंसा हो रही है. अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. केंद्र सरकार ने जांच आयोग और शांति कमेटी का गठन तो किया है, लेकिन अब तक कुछ हल नहीं निकल सका है. साल 2000 में मणिपुर में 251 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 51 जवान शहीद हुए थे और 93 आम लोग मारे गए थे. साल 2022 में 137 घटनाएं हुईं, जिनमें एक जवान शहीद हुआ और 5 नागरिकों की मौत हो गई.

खासी-जयंतिया और गारो है मेघालय में विद्रोह की जड़

असम से अलग होकर 1970 में राज्य बना मेघालय. 1972 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला. यहां मुख्य रूप से खासी, गारो और जयंतिया जनजातियों के लोग हैं. माना जाता है कि खासी म्यांमार से होते हुए यहां आए हैं. गारो के बारे में कहा जाता है कि तिब्बत में उनकी जड़ें थीं. वहीं, जयंतिया जनजाति ऑस्ट्रिक प्रजाति के हिन्यूट्रेप से जुड़ी हैं. मेघालय एक ईसाई बहुल राज्य है.

मेघालय में खासी-जयंतिया और गारो के बीच संघर्ष चलता रहता है. यहां अलग-अलग जनजातियों के उग्रवादी संगठन हैं. यहां संघर्ष की शुरुआत 1992 में तब हुई, जब हिन्यूट्रेप आचिक लिबरेशन काउंसिल का गठन हुआ. ये यहां का पहला उग्रवादी संगठन था. हालांकि, बाद में ये संगठन टूट गया. एक संगठन बना- हिन्यूट्रेप नेशनल लिबरेशन काउंसिल (HNLC), जो खासी और जयंतिया की आवाज उठाता था. दूसरा संगठन बना- आचिक नेशनल वॉलेंटियर्स काउंसिल (ANVC), जो गारो लोगों का था. अपना दबदबा कायम करने के लिए दोनों ही संगठनों ने आसपास के राज्यों के उग्रवादी संगठनों से भी हाथ मिलाया.

2009 में एक और नया संगठन बना, जिसका नाम गारो नेशनल लिबरेशन आर्मी (GNLA) था. इस संगठन ने गारो जनजाति के लिए अलग 'गारोलैंड' की मांग रख दी. उसी साल केंद्र सरकार ने इस संगठन को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया. 2007 में HNLC के सरगना ने सरेंडर कर दिया था. इसके बाद संगठन कमजोर हो गया. 2014 में ANVC ने केंद्र सरकार और मेघालय सरकार के साथ समझौता कर लिया. हालांकि, GNLA अब भी एक्टिव माना जाता है. नवंबर 2022 में मेघालय सरकार ने राज्य में उग्रवाद खत्म होने का दावा किया था.

साल 2000 में मेघालय में उग्रवाद की 73 घटनाएं हुई थीं, जिनमें सुरक्षाबलों के 8 जवान शहीद हुए थे और 11 आम नागरिकों की मौत हुई थी. 2022 में सिर्फ एक घटना हुई, जिसमें चार उग्रवादी मारे गए थे. 

नगाओं के लिए अलग देश की मांग

आजादी के समय नगालैंड, असम का ही हिस्सा हुआ करता था. 1 दिसंबर 1963 को नगालैंड अलग राज्य बना. नगालैंड का ज्यादातर इलाका पहाड़ी है. यहां के मैदानी इलाकों में कुकी, कछारी, गारो, मिकरी,बंगाली, और असमिया आदि लोगों को छोड़ कर लगभग पूरी तरह से नगा जनजातियां ही रहती हैं. यहां लगभग दो दर्जन से ज्यादा नगा और गैर-नगा जनजातियां बसी हैं.

आजादी के बाद ही यहां संघर्ष शुरू हो गया था. जापू फिजो की अगुवाई में नगा नेशनल काउंसिल ने नगाओं के लिए अलग देश की मांग को लेकर सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया. नगालैंड में जनजातियों के बीच उतना संघर्ष नहीं है, जितना ज्यादा दो गुटों के बीच है. 1975 में केंद्र सरकार और नगा संगठनों के बीच समझौता हो गया.

नतीजतन, 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (NSCN) बना. हालांकि, कुछ ही सालों में ये संगठन NSCN-IM और NSCN-K में बंट गया. दोनों ही संगठन नगालैंड, असम, मणिपुर, अरुणाचल और पड़ोसी देश म्यांमार के नगा बहुल इलाकों को मिलाकर अलग देश बनाने की मांग कर रहे थे. कई सालों तक चली बातचीत के बाद दोनों संगठन अपनी मांगों से पीछे हट गए. 2015 में केंद्र सरकार और NSCN के बीच एक समझौता हुआ था. हालांकि, अब भी कई मुद्दों पर बातचीत अटकी हुई है. यहां उग्रवाद पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है. दिसंबर 2021 में नागालैंड में सेना की गोलीबारी में 16 लोगों की मौत होने के बाद यहां हालात बहुत खराब हो गए थे. यहां अब भी NSCN और उससे जुड़े संगठनों के बीच संघर्ष होता रहता है. साल 2000 में यहां 195 उग्रवादी घटनाएं हुई थीं, जिसमें सुरक्षाबलों के चार जवान शहीद हो गए थे और 26 लोग मारे गए थे. साल 2022 में यहां उग्रवाद की 31 घटनाएं हुई थीं. 

मिजोरम में मिजो लोगों के लिए अलग देश की मांग

आजादी के समय असम का ही हिस्सा था मिजोरम. 1972 में केंद्र शासित प्रदेश बना. 20 फरवरी 1987 को मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला. इतिहासकारों का मानना है कि मिजो लोग मंगोलों की जाति का हिस्सा हैं. मिजोरम में मुख्य रूप से लुशेई, रालते, ह्मार, पाइहते और पावी (पोई) जैसी जनजातियां हैं.

यहां उग्रवाद तब बढ़ा जब 1955 में 'मौतम फेमिन' नाम का संगठन बना. बाद में इसका नाम 'मिजो नेशनल फेमिल फ्रंट' और फिर 'मिजो नेशनल फ्रंट' पड़ा. संगठन मिजो लोगों के लिए अलग देश की मांग कर रहा था. 1972 में इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा इसी वादे पर दिया गया था कि जल्द ही पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा. अप्रैल 1986 में केंद्र सरकार और मिजो नेशनल फ्रंट के बीच शांति समझौता हो गया.

साल 2000 में यहां संघर्ष तब शुरू हुआ, जब त्रिपुरा से ब्रू समुदाय के लोग यहां आने लगे. त्रिपुरा में जातीय संघर्ष में ब्रू लोगों को विस्थापित होने पर मजबूर कर दिया. इसके बाद ये लोग त्रिपुरा से मिजोरम आकर बसने लगे. मिजोरम में अक्सर शांति ही रहती है. साल में उग्रवाद की कुछ ही घटनाएं होतीं हैं. 1986 में मिजो नेशनल फ्रंट और सरकार के बीच हुई समझौते के बाद से यहां शांति बनी हुई है. साल 2000 में मिजोरम में उग्रवाद की आठ घटनाएं हुई थीं, जिसमें सुरक्षाबलों के 7 जवान शहीद हुए थे और 4 नागरिकों की मौत हुई थी. 2019 से 2022 के बीच बीते चार साल में यहां एक भी घटना नहीं हुई है. 

त्रिपुरा में स्थानीय आबादी अल्पसंख्यक

1949 में त्रिपुरा भारत में शामिल हुआ. तब इसे केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिला था. 21 जनवरी 1972 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया. असम के बाद त्रिपुरा पूर्वोत्तर का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है. यहां बंगाली बोलने वालों की आबादी सबसे ज्यादा है. इसके बाद त्रिपुरी भाषी लोग हैं.

त्रिपुरा में पूर्वी बंगाल और फिर बांग्लादेश से आने वाले प्रवासियों की वजह से यहां की डेमोग्राफी में जबरदस्त बदलाव आया. प्रवासियों के आने की वजह से यहां प्रवासियों की आबादी बढ़ती गई और स्थानीय जनजातियां अल्पसंख्यक बन गईं. यहां उग्रवाद की शुरुआत 1960 में त्रिपुरा नेशनल वॉलेंटियर्स (TNV) के गठन से शुरू हुई. टीएनवी का गठन बंगाली प्रवासियों के खिलाफ हुआ था. 1988 में टीएनवी और सरकार के बीच समझौता हो गया. जुलाई 1990 में ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स बनी, जिसने राज्य में थोड़ी अशांति फैलाई.

यहां 2015 के बाद से शांति बनी हुई है. साल में एक या दो छुटपुट घटनाएं होती हैं. टीएनवी ने तो सरकार के साथ समझौता कर लिया था. लेकिन उसके अलावा यहां नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) नाम का संगठन एक्टिव है. साल 2000 में त्रिपुरा में उग्रवाद की 826 घटनाएं हुई थीं, जिसमें सुरक्षाबलों के 17 जवान शहीद हुए थे और 360 नागरिकों की मौत हुई थी. 2015 से 2022 के बीच यहां उग्रवाद की सिर्फ 5 घटनाएं ही हुई हैं.

सिक्किम उग्रवाद से अछूता

सिक्किम में राजशाही हुआ करती थी. नामग्याल राजवंश ने 300 से भी ज्यादा सालों तक सिक्किम पर शासन किया. 1970 के दशक में यहां के लोगों ने राजशाही के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी. इसके बाद राज्य में जनमत संग्रह करवाया गया. ज्यादातर लोगों ने लोकतंत्र के पक्ष में वोट दिया. इस तरह से 16 मई 1975 को सिक्किम भारत का राज्य बना. दिसंबर 2002 में सिक्किम नॉर्थ ईस्टर्न काउंसिल का हिस्सा बना. इस तरह से सिक्किम पूर्वोत्तर का आठवां राज्य बना. सिक्किम एकमात्र ऐसा राज्य है जहां आज तक उग्रवाद पनप नहीं पाया.

असम से जुड़े हैं पूर्वोत्तर के राज्यों के सीमा विवाद

पूर्वोत्तर के राज्यों के सीमा विवाद असम से जुड़े हुए हैं. क्योंकि आजादी के बाद से अब तक चार राज्य असम से ही अलग होकर बने हैं. 1963 में नगालैंड बना. 1969 में मेघालय बना,  लेकिन इसे पूर्ण राज्य का दर्जा 1972 में मिला. अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम को 1972 में केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया और फिर 1987 में पूर्ण राज्य.

असम-अरुणाचल सीमा विवाद: असम और अरुणाचल के बीच 804 किमी लंबी सीमा है. अरुणाचल दावा करता है कि जब उत्तर-पूर्वी राज्यों का पुनर्गठन किया गया था, तब कई वन क्षेत्र असम में शामिल हो गए थे. इस विवाद पर एक समिति का गठन हुआ था, जिसने असम के कुछ हिस्सों को अरुणाचल में मिलाने की सिफारिश की थी. इसके विरोध में असम सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई. ये मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है.

असम-नगालैंड सीमा विवाद: असम दावा करता है कि नगालैंड ने उसकी सीमाओं पर अतिक्रमण किया हुआ है. नगालैंड के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए असम ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया है, जो अभी पेंडिंग है. असम की मांग है कि जिन इलाकों पर नगालैंड ने अतिक्रमण करके रखा है, उसका असली मालिक असम को घोषित किया जाए.

असम-मेघालय सीमा विवाद: 1972 में असम से अलग होकर मेघालय बनाया गया था. तभी से दोनों राज्यों के बीच सीमा को लेकर विवाद चल रहा था. असम और मेघालय 885 किमी लंबी सीमा साझा करते हैं. दोनों राज्यों के बीच 12 जगहों को लेकर सीमा विवाद था. इन 12 जगहों पर असम और मेघालय दोनों ही अपना-अपना दावा करते थे. 12 विवादित जगहों में से 6 का विवाद पिछले साल सुलझा लिया गया है. लेकिन अब भी 6 जगहों पर नियंत्रण को लेकर विवाद बना हुआ है.

असम-मिजोरम सीमा विवाद: दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद अंग्रेजों की देन है. अंग्रेजों ने 1875 में एक अधिसूचना जारी की थी जिसमें लुशाई हिल्स (अब मिजोरम) को कछार के मैदानों से अलग कर दिया गया. इसके बाद 1933 में भी एक अधिसूचना जारी की जिसमें लुशाई हिल्स और मणिपुर के बीच सीमांकन किया गया था. इसमें तय किया कि मणिपुर की सीमा लुशाई हिल्स, असम के कछार जिले और मणिपुर के ट्राई-जंक्शन से शुरू होती है. मिजोरम 1875 तो असम 1933 की अधिसूचना को मानता है. असम और मिजोरम के बीच करीब 165 किमी लंबी सीमा है. 

x

Credits

Report: Ritu Tomar/Priyank Dwivedi

Cover Illustration: Vani Gupta

Photos: Getty Images/AFP

Infographics: Arun Uniyal