सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच ने आज दूसरे दिन भी 'हिजाब बैन' से जुड़े एक मामले को लेकर वकीलों की दलीलें सुनीं. कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में मुस्लिम लड़कियों के स्कूल में 'सिर पर स्कार्फ पहनने पर पाबंदी' (आम शब्दों में हिजाब बैन) लगा दी है, इसी के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई हैं. इस पूरे मामले की जिरह का केन्द्र संविधान में दिया गया अभिव्यक्ति की आजादी, धार्मिक स्वतंत्रता और शिक्षा का मौलिक अधिकार है. वकील हाईकोर्ट के फैसले को संविधान के अनुच्छेद 19(1), 21 और 25 के प्रावधानों की कसौटी पर कस रहे हैं.
धार्मिक विधि-विधानों पर नहीं लगाया जा सकता प्रतिबंध
सुप्रीम कोर्ट में दूसरे दिन जिरह की शुरुआत देवदत्त कामत ने की. कामत ने पहले कोर्ट को उन सवालों के जवाब दिए, जो कल उनसे पूछे गए थे. उसके बाद उन्होंने अपनी दलीलें दीं. कामत ने कहा कि प्रतिबंध कानून व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य कारणों के लिए होते हैं. ऐसे में स्कूलों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध क्या कानून व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य कारणों से लगाए गए प्रतिबंध के दायरे में आता है? तो ऐसे में ये कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला वैध नहीं हो सकता और ना ही ये कोई संवैधानिक प्रतिबंध है.
कामत ने अपनी दलील को मजबूत बनाते हुए कहा कि हिजाब पहनना या नहीं पहनना एक धार्मिक विश्वास का मामला है. जबकि 'अनिवार्य धार्मिक विधि-विधानों' का सवाल तब उठता है जब राज्य उसे लेकर कोई कानून बनाता है और उन्हें मिटाने की कोशिश करता है, तब पूछा जाता है, कि क्या ये जरूरी है. सारे धार्मिक विधि-विधान अनिवार्य नहीं हो सकते, लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं कि सरकार उस पर प्रतिबंध लगा दे. ये तब तक नहीं किया जा सकता जब तक ये कानून व्यवस्था या किसी के स्वास्थ्य को प्रभावित ना कर रहा हो.
कामत ने अपना और सीनियर एडवोकेट के. पारासरन का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा कि मैं नमाम पहनता हूं, वो भी नमाम पहनते हैं. ये अनिवार्य धार्मिक विधि-विधान भले ही ना हो, लेकिन क्या इससे कोर्ट रूम का अनुशासन भंग होता है? क्या कोई उन्हें ये पहनने से रोक सकता है?
भगवा गमछा पहनना जानबूझकर धर्म का प्रदर्शन
देवदत्त कामत ने अपनी दलील पर आगे बढ़ते हुए कहा, एक और सवाल पूछा गया है कि क्या सिर पर स्कार्फ बांधने की अनुमति दे दी जाती है, तो कल को कुछ छात्र कहेंगे कि उन्हें भगवा गमछा पहनना है. मेरे हिसाब से भगवा गमछा पहनना अपनी धार्मिक मान्यताओं का स्वाभाविक प्रदर्शन नहीं है. बल्कि ये धार्मिक कट्टरवाद (Religious Jingoism) का जानबूझकर किया गया प्रदर्शन (Belligerent Display) है. ये ऐसा है कि अगर आप हिजाब पहनोगे, तो मैं अपनी धार्मिक पहचान बचाने के लिए कुछ पहनूंगा. संविधान का अनुच्छेद-25 इसे सुरक्षित नहीं करता है. रुद्राक्ष, नमाम और तिलक लगाने को अनुच्छेद-25 सुरक्षा प्रदान करता है.
सभी धार्मिक रीति-रिवाजों की सुरक्षा जरूरी
देवदत्त कामत के बाद वकील निजामुद्दीन पाशा ने इस मामले से जुड़ी इस्लामिक व्याख्याओं के बारे में कोर्ट को जानकारी दी. उन्होंने कहा कि इस्लाम के 'अनिवार्य विधि विधानों' की बात करें तो हमें शिरूर मठ के मामले को देखना होगा. इस मामले की सुनवाई के वक्त पहली बार 'अनिवार्य विधि विधानों' की चर्चा हुई थी. ये ना तो संविधान का हिस्सा है और ना ही संविधान सभा में इस मामले पर विचार किया गया. सवाल ये है कि क्या सिर्फ 'अनिवार्य विधि-विधानों' की रक्षा की जानी है या सभी धार्मिक रीति-रिवाजों को सुरक्षा दी जानी है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने अलग-अलग फैसलों में इस पर अलग-अलग मत दिए हैं. शिरूर मठ के मामले में सवाल ये था कि 'प्रार्थना किस तरह की जानी चाहिए?''
कर्नाटक HC ने की हिजाब की गलत व्याख्या
निजामुद्दीन पाशा ने कहा कि कर्नाटक हाई कोर्ट ने हिजाब की व्याख्या को गलत समझा. इसकी वजह भाषा का अंतर होना है. कुरान में हिजाब को 'खिमर' कहा गया है. ये अरबी शब्द है. हम भारत में इसे हिजाब कहते हैं. कुरान की आयतों में साफ-साफ कहा गया है कि महिलाओं को परदे से अपने आप को ढक कर रखना होता है. इस्लामिक कानून के स्रोत बताते हैं कि इस्लाम में तौहीद, हज, रोजा, नमाज और जकात अनिवार्य हैं. तौहीद का मतलब विश्वास से है और कुरान को खुदा के शब्द माना गया है. ऐसे में कुरान में ही कहा गया है कि अपने शरीर की गरिमा के लिए उसे ढक लें.
जबकि कर्नाटक हाईकोर्ट का मानना है कि हिजाब पहनना मेंडेटरी नहीं, इसलिए ये एसेंशियल नहीं है. निजामुद्दीन पाशा ने कहा कि हिजाब पहनना एक आध्यात्मिक रीत है. कोर्ट ये तय नहीं कर सकता कि ये पहनना कब सही है और कब गलत? इस पर जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि वो कोर्ट में इस्लामिक कानूनों की व्याख्या को जमा करें.
'तौहीद' और 'तौहीन' में उलझे जज
हालांकि कोर्ट में जब ये बहस चल रही थी तब दोनों जज 'तौहीद' शब्द को 'तौहीन' शब्द समझकर उलझन में पड़ गए. ऐसे में निजामुद्दीन पाशा ने समझाया कि तौहीन का मतलब अवहेलना करना होता है. जबकि तौहीद का मतलब इस्लाम के सिद्धांतों में विश्वास होना है.
सिखों की कृपाण और पगड़ी की बात भी उठी
कोर्ट में जिरह के दौरान सिखों के कृपाण और पगड़ी की बात भी उठी. निजामुद्दीन पाशा ने कहा कि सिख कृपाण और पगड़ी पहनते हैं, ये सिख धर्म के अनिवार्य विधि-विधान हैं. किसी सिख लड़के, भले उसके बाल छोटे क्यों ना हों, उसका पाटका पहनना किसी और को प्रभावित नहीं करता. फिर हिजाब पर पाबंदी क्यों है. हालांकि वकील की इस दलील को कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया. अदालत ने कहा कि इसकी तुलना सिख धर्म से ना की जाए. सिख धर्म के सिद्धांत बेहद साफ हैं.
मुस्लिम लड़कियां धर्म चुनें या शिक्षा?
निजामुद्दीन पाशा ने अपनी दलील में कहा कि जब एक लड़की को लगता है कि उसका परदा उसके लिए पूरी दुनिया से ज्यादा अहम है, तब उसे शिक्षा या परदे में से एक का चुनाव करने के लिए कहा, अनुच्छेद-21 के तहत मिले शिक्षा के अधिकार से वंचित करना है. हम से धर्म के आधार पर शिक्षा तक पहुंच से बेदखल नहीं कर सकते.
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सोमवार को भी सुनवाई जारी रहेगी.