IIT बॉम्बे की प्रवेश परीक्षा में सफल होने वाले 17 वर्षीय छात्र को तकनीकी कारणों से प्रवेश न मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने कानून से ऊपर उठकर छात्र की मदद करने की पहल की है.
कोर्ट ने इस मामले मे केंद्र सरकार से कहा है कि वह IIT बॉम्बे से इस बाबत जानकारी ले कि क्या उसको प्रवेश दिया जा सकता है? न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि इस मामले को किसी नज़ीर की तरह नही लिया जाएगा. इस मामले के लिए हम संविधान के द्वारा दिए गए विशेष अधिकार का इस्तेमाल कर रहे है.
दरअसल 17 वर्षीय छात्र ने संयुक्त प्रवेश परीक्षा JEE 2021 पास की है. छात्र को 27 नवंबर को सिविल इंजीनियरिंग शाखा में IIT बॉम्बे में एक सीट आवंटित भी कर दी गई.
किस छात्र की मदद करेगी सुप्रीम कोर्ट?
सीट आवंटन के बाद जब उसने फीस भरने का प्रयास किया तो तकनीकी वजह से फीस नहीं भरी जा सकी. इसके बाद जब वह खड़गपुर आईआईटी गया. वहां भी फीस भरने की बात कही तो संस्थान ने अपनी अक्षमता जाहिर कर दी.
जब इस मामले को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की गई तो हाई कोर्ट ने भी तकनीकी आधार पर छात्र की याचिका खारिज कर दी. हाई कोर्ट के उसी आदेश को छात्र ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. अब सुप्रीम कोर्ट 31 नवंबर को मामले की अगली सुनवाई होगी.
बॉम्बे हाई कोर्ट का स्किन टू स्किन वाला फैसला रद्द
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने आज गुरुवार को बॉम्बे हाई कोर्ट के स्किन टू स्किन वाले फैसले को भी रद्द कर दिया. खास बात ये है कि हाईकोर्ट के इस विवादित फैसले को देश के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने ही चुनौती दी. ये दूसरा मौका है जब अटॉर्नी जनरल ने किसी फैसले को चुनौती दी हो.
फैसले के बाद जब जस्टिस यू यू ललित ने कहा कि यह शायद पहली बार है जब अटॉर्नी जनरल ने आपराधिक मामले के फैसले को चुनौती दी है. इस पर जस्टिस एस रवींद्र भट ने बताया कि इससे पहले 1985 में अटॉर्नी जनरल ने राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी जिसमें एक दोषी को सार्वजनिक तौर पर फांसी देने के आदेश दिए थे.
कब-कब दी गई फैसले को चुनौती?
उस समय भारत के अटार्नी जनरल के परासरन ने आपराधिक पक्ष के एक फैसले के खिलाफ अपील की थी. ये मामला भारत के अटार्नी जनरल Vs लछमा देवी [A.I.R. 1986 SC 467] और अन्य के तौर पर है. दरअसल इस मामले में हाईकोर्ट ने मीडिया नें प्रचार के बाद दोषी को जयपुर के स्टेडियम ग्राउंड या रामलीला ग्राउंड में सार्वजनिक तौर पर फांसी देने का आदेश दिया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि सार्वजनिक फांसी से मौत की सजा देना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करने वाला एक बर्बर अभ्यास होगा. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया था.