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प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना भी माना जाएगा अपराध, UAPA कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने पलटा 2011 का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐसा फैसला दिया है जिसके बाद अब गैरकानूनी संगठन का सदस्य होना भी अपराध माना जाएगा. इसमें UAPA के तहत कार्रवाई की जा सकती है. शीर्ष अदालत ने 2011 में दिए गए अपने ही फैसले को पलट दिया.

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सप्रीम कोर्ट का अहम फैसला
सप्रीम कोर्ट का अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन अधिनियम, 2008 (UAPA) के एक मामले पर फैसला दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रतिबंधित संगठन का सदस्य मात्र होने से भी व्यक्ति अपराधी होगा और इसके लिए गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के प्रावधानों के तहत सजा दी जा सकती है. कोर्ट ने  2011 के उन फैसलों को पलट दिया जिसमें दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा फैसला सुनाया गया था. फैसले के मुताबिक गैरकानूनी संगठन का सदस्य होना ही UAPA के तहत कार्रवाई का आधार बन सकता है.

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तीन जजों की पीठ का फैसला

2011 के फैसले में कहा गया था कि प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होने से किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि वह हिंसा का सहारा नहीं लेता या लोगों को हिंसा के लिए उकसाता है. अदालत ने अपने फैसले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 की धारा 10(ए)(i) को भी सही ठहराया है, जो गैरकानूनी संगठन की सदस्यता को भी अपराध घोषित करती हैं. इसमें जुर्माने के साथ दो साल की कैद की सजा हो सकती है. जस्टिस एमआर शाह, जस्टिस सी टी रविकुमार और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने यह फैसला सुनाया.

जस्टिस काटजू और सुधा मिश्रा ने दिया था फैसला
वर्ष 2011 में जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की 2-न्यायाधीशों की पीठ ने उल्फा का सदस्य होने के आरोपी व्यक्ति द्वारा टाडा के तहत दायर जमानत अर्जी पर फैसला दिया था. तब कोर्ट ने अरुप भुइयां को जमानत दे दी थी. खंडपीठ ने कहा कि प्रतिबंधित संगठनों की सदस्यता को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में जो फैसला सुनाया था उसके मुताबिक, हाईकोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसले गलत हैं. कोर्ट ने कहा कि अधिनियम की धारा 10 (ए) (i) संविधान के 19 (1) (ए) और 19 (2) के अनुरूप है.

तब अदालत ने कही थी ये बात

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शीर्ष अदालत ने 3 फरवरी, 2011 को उल्फा के संदिग्ध सदस्य भुइयां को बरी कर दिया था, जिन्हें टाडा अदालत ने पुलिस अधीक्षक के समक्ष उनके कथित इकबालिया बयान के आधार पर दोषी ठहराया था और कहा था कि केवल प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता से कोई अपराध नहीं होगा. कोर्ट ने कहा था कि जब तक वह हिंसा का सहारा नहीं लेता है या लोगों को हिंसा के लिए उकसाता है तब तक वह अपराधी नहीं है. पीठ ने कहा कि जहां तक इस अदालत द्वारा अरूप भुइयां के मामले में यूएपीए की धारा 10(ए)(आई) को पढ़ने का संबंध है, यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि इस तरह के प्रावधान को पढ़े बिना या केंद्र को मौका दिए कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता था.

2011 के फैसले के संबंध में केंद्र और असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से समीक्षा का अनुरोध करते हुए याचिकाएं दायर की थी जिसे स्वीकार किया गया. कोर्ट ने कहा कि संसंद द्वारा बनाए गए कानून के नियम की व्याख्या के अनुसार केंद्र सरकार का पक्ष सुनना आवश्यक है. 

 

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