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मानसिक रोगों को गंभीरता से नहीं लेते भारतीय

भारत में बढ़ रहे हैं मानसिक रोगी, पर नहीं लेते इसे गंभीरता से. जानें क्या कहती है रिपोर्ट...

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Represtational Photo
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इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का मानना है कि देश में मानसिक रोगों को अभी भी उचित महत्व नहीं दिया जा रहा. देशभर में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत की सामान्य जनसंख्या का लगभग 13.7 प्रतिशत हिस्सा मानसिक बीमारियों से ग्रस्त है. इसके अलावा, इनमें से लगभग 10.6 प्रतिशत लोगों को तत्काल चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है.

भारत में पहले एक राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम प्रारंभ किया गया था, लेकिन उस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हो पाई. ऐसा ही एक मानसिक विकार है सिजोफ्रेनिया, जो एक पुराना और गंभीर मानसिक विकार है और जिसकी वजह से व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने का तरीका प्रभावित होता है.

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आईएमए के अध्यक्ष डॉ. के.के. अग्रवाल ने कहा कि सिजोफ्रेनिया 16 से 30 साल की आयु में हो सकता है. पुरुषों में इस रोग के लक्षण महिलाओं की तुलना में कम उम्र में दिखने शुरू हो सकते हैं. बहुत से लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं होता कि उन्हें यह रोग हो गया है, क्योंकि इसके लक्षण बहुत लंबे समय बाद सामने आते हैं.

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उन्होंने कहा कि ऐसे लोग दूसरों से दूर रहने लगते हैं और अकेले होते जाते हैं. वे अटपटे तरीके से सोचते हैं और हर बात पर संदेह करते हैं. ऐसे लोगों के परिवार में अक्सर पहले से मनोविकृति की समस्या चली आ रही होती है. युवाओं में ऐसी स्थिति को प्रोड्रोमल पीरियड कहा जाता है. रोग का पता लगाना इसलिए भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बहुत से लोग मानते हैं कि उन्हें ऐसा कुछ है ही नहीं. जागरूकता का अभाव एक बड़ा मुद्दा है.

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डॉ. अग्रवाल ने कहा कि कभी-कभी, सिजोफ्रेनिया वाले मरीजों को अन्य दिक्कतें भी हो सकती हैं जैसे कि किसी मादक पदार्थ की लत, तनाव, जुनून और अवसाद. अनुसंधानकर्ताओं का यह भी सुझाव है कि इस स्थिति के लिए भ्रूणावस्था में न्यूरोनल विकास भी जिम्मेदार हो सकता है.

उन्होंने बताया कि सिजोफ्रेनिया रोगियों का उपचार आमतौर पर दवा, मनोवैज्ञानिक परामर्श और स्वयं-सहायता की मदद से होता है. उचित उपचार के साथ, ज्यादातर लोग सामान्य और उत्पादक जीवन जीने लगते हैं. ठीक हो जाने के बाद भी दवाएं लेते रहना चाहिए, ताकि लक्षण वापस न लौट आएं.

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इस बीमारी से बचाव के लिए कुछ उपयोगी उपाय -

- सही उपचार कराएं. इलाज को बीच में बंद न करें.

- ऐसे रोगियों को यही लगता है कि वे जो सोच रहे हैं, वही सच है.

- ऐसे रोगियों को बताएं कि हर किसी को अपने तरीके से सोचने का अधिकार है.

- खतरनाक या अनुचित व्यवहार को बर्दाश्त किए बिना ऐसे मरीजों से सम्मान के साथ पेश आए और उनकी मदद करें.

- यह पता लगाने की कोशिश करें कि क्या आपके क्षेत्र में कोई सहायता समूह सक्रिय है.

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