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ऐंटीबायोटिक दवाओं को छकाता बैक्टीरिया

बैक्टीरिया अब दवाओं से भी ताकतवर हो रहे हैं. वह ऐंटीबायोटिक दवाओं को भी ठेंगा दिखा रहे हैं. क्या भारत एंटीबायोटिक दवाओं के बिना चलने वाली दुनिया के लिए तैयार है?

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मरीज की नब्ज डूबती जा रही है. उसका ब्लडप्रेशर गिरता जा रहा है. ऐंटीबायोटिक दवाएं बेअसर हो रही हैं.” डॉ. सुमित राय अर्जेंट कॉल पाकर भागते हुए इंटेंसिव केयर यूनिट में पहुंचे. कार दुर्घटना में घायल 22 वर्षीय युवक जबसे इलाज के लिए दिल्ली के सर गंगा राम हॉस्पिटल में भरती हुआ, तभी से उन्हें इस तरह की चुनौती का सामना करना पड़ रहा था.

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मरीज का ब्लड कल्चर, जो अस्पताल में दाखिले के समय किया गया था, उसमें ऐसे बैक्टीरिया का पता चला था, जो हर तरह की ऐंटीबायोटिक दवाओं से बेअसर थे. पिछले पांच दिन में उसके सिर का घाव तो भर चुका था, लेकिन बुखार चढ़ आया था, जो इस बात का संकेत था कि उसे इन्फेक्शन है. अस्पताल में क्रिटिकल केयर के वाइस चेयरमैन डॉ. राय कांच की दीवार से साफ देख रहे थे कि मरीज का चेहरा पीला पड़ता जा रहा है. उन्होंने आह भरते हुए कहा, ''वह धीरे-धीरे सेप्टिक के संकट की ओर बढ़ रहा है. जल्दी ही उसका इन्फेक्शन काबू से बाहर हो जाएगा.”

कौन बता सकता है कि कौन-सा रोगाणु (जर्म) किसके शरीर में छिपा है और जानलेवा खतरा पैदा करने के मौके का इंतजार कर रहा है? 103 डिग्री तक बुखार. पीड़ादायक दाने, जो बाद में मवाद से भरी फुंसियां बन जाती हैं. काले रंग का, खून से युक्त या रुक-रुक कर आने वाला मल. सूजी हुई ग्रंथियां, जो बेहद बढ़ी हुई दिखती हैं.

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अगर 24 से 48 घंटों के भीतर आपका शरीर इस बात का संकेत देता है कि रोगाणुओं पर दवाओं का कोई असर नहीं हो रहा है, तभी आपको पता चलता है कि आपके शरीर पर ऐंटीबायोटिक दवाएं काम नहीं कर रही हैं. अगर आप इस पर ध्यान नहीं देते हैं, तो वे आपके रक्तप्रवाह पर हमला कर देंगे, जिससे आपकी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है. भले ही यह सब विज्ञान पर आधारित किसी भयावह कहानी जैसा लगे, लेकिन यह एकदम सच है.anti biotic

आधुनिक युग की, चमत्कारी, ऐंटीबायोटिक दवाओं से लैस डॉक्टर आज जानते हैं कि व्यावहारिक तौर पर वे हर तरह के मरीज का इलाज कर सकते हैं. लेकिन इस प्रगति को अचानक ही अदृश्य बैक्टीरिया की फौज से तगड़ी चुनौती मिल रही है. इनका आकार एक मिलीमीटर के 10 लाखवें हिस्से के बराबर होता है. अस्पताल इन्फेक्ïशन का बड़ा स्रोत बन रहे हैं. और दुनियाभर में नई ऐंटीबायोटिक का विकास थम गया है, खासकर भारत के सामने मुश्किल हालात हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को मौजूदा बजट सत्र के दौरान संसद में ऐंटीबायोटिक रेजिस्टेंस (एबीआर) के बढ़ते खतरे पर चौतरफा सवालों का सामना करना पड़ा. भविष्य को लेकर एक बेहद जरूरी सवाल किया जा रहा है: अगर एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर हो गईं तो क्या होगा?

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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) 2010 में ही इस, गंभीर और तेजी से बढ़ते और ग्लोबल खतरे की चेतावनी दे चुका है. जनवरी में दावोस में 2013 के विश्व आर्थिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) में डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक मार्गरेट चान ने चेतावनी दी कि बैक्टीरिया सामान्य एंटीबायोटिक के प्रति इतने रेजिस्टेंट हो रहे हैं कि इनके कारण 'आधुनिक दवा का अंत’ हो सकता है. एबीआर की वजह से हर साल अमेरिका में 1,00,000, चीन में 80,000 और यूरोप में 25,000 लोगों के काल का ग्रास बन जाने से डब्ल्यूईएफ इसे मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए प्रमुख खतरों में से एक मानता है, जिससे निबटने के लिए दुनिया अभी तैयार नहीं है.

बदलने की कला में माहिर

अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1945 में पेंसिलिन का आविष्कार करने के लिए जब नोबेल पुरस्कार हासिल किया था, उसी दिन उन्होंने चेतावनी दे दी थी कि एंटीबायोटिक की वजह से एक दिन बैक्टीरिया पलटवार कर सकते हैं. जीवन के इतिहास में बैक्टीरिया सबसे सयाने हैं—हर 20 मिनट में उनकी संख्या दोगुनी हो जाती है और हर बैक्टीरिया एक घंटे में तीसरी-पीढ़ी की 16 संतति पैदा करता है. हर पीढ़ी विपरीत वातावरण में जिंदा रहने के लिए जरूरी जींस अगली पीढ़ी को दे देती है.

काउंसिल ऑफ साइंटिफिक ऐंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआइआर) की मुख्य वैज्ञानिक सरला बालचंद्रन कहती हैं, ''एंटीबायोटिक सूक्ष्म अणु होते हैं, जो बैक्टीरिया को नष्ट करने के लिए उनकी कोशिकाओं में घुस जाते हैं. खुद को बचाने के लिए बैक्टीरिया अपना जेनेटिक मेकअप बदल लेते हैं.” वे तेजी से अपनी संख्या बढ़ा लेते हैं और प्रतिरोधी जींस अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते हैं. यह डार्विन का प्राकृतिक रूप से चयन का सिद्धांत है. ''अगर आप एंटीबायोटिक का कोर्स पूरा नहीं करते हैं तो सारे बैक्टीरिया नहीं मरते और ऐसे में बहुत संभावना है कि आपके शरीर में प्रतिरोधी बैक्टीरिया पनप जाएं.”antibiotic

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पटना की 20 वर्षीया डिंपल कुमार ने एंटीबायोटिक का पूरा कोर्स खत्म न करने की अपनी इसी गैर-जिम्मेदाराना आदत की वजह से अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी थी. उन्हें इससे तब तक फर्क नहीं पड़ा, जब तक कि कमर पर सलवार कसकर बांधने से फुंसियां नहीं निकल आईं. इस वजह से उन्हें इन्फेक्शन हो गया. छह महीने तक डॉक्टर एंटीबायोटिक की डोज बढ़ाते रहे, पर इन्फेक्शन गहराई तक कोशिकाओं में फैलता गया. जब मवाद से भरे फोड़े बन गए, सूजन हो गई, तेज बुखार हुआ और ब्लडप्रेशर गिरने लगा तो उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा. चार हफ्तों में चार सर्जरी के बाद ही एंटीबायोटिक दवाएं कारगर हो पाईं. वे कहती है, ''मैं खुशकिस्मत थी, वरना मैं मर ही गई होती.”

दबे पांव आती महामारी

वह एक  खतरनाक बैक्टीरियल जीन था, जिसका नाम थोड़ा मुश्किल है—न्यू डेल्ही मेटालो-बीटा-लैक्टामेज (एनडीएम-1) जिसने सबसे पहले 2010 में एबीआर की ओर लोगों का ध्यान खींचा. चेन्नै के माइक्रोबायोलॉजिस्ट कार्तिकेयन कुमारस्वामी ने चिकित्सा के क्षेत्र में तब हंगामा खड़ा कर दिया, जब एक ब्रिटिश शोधकर्ता के साथ उन्होंने पहली बार लैंसेट इन्फेक्शियस डिजीजेज में रिपोर्ट दी कि एनडीएम-1 इन्फेक्शन भारत में इलाज कराकर लौटने वाले मरीजों में पाए गए हैं. एनडीएम-1 सभी ज्ञात एंटीबायोटिक के प्रति बैक्टीरिया को रेजिस्टेंट बना देता है, यहां तक कि आखिरी हथियार के तौर पर इस्तेमाल होने वाली कारबापेनम के प्रति भी. उस रिपोर्ट के बाद खूब आरोप-प्रत्यारोप लगे.

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दिल्ली के नाम पर रोगाणु का नाम रखा जाना अपमान के तौर पर देखा गया और इस रिपोर्ट को डर फैलाने वाली और भारत के फलते-फूलते मेडिकल टूरिज्म के उद्योग पर सोच-समझ हमला बताकर खारिज कर दिया गया. कुमारस्वामी कहते हैं, ''यह तेजी से बढ़ता संकट है. सरकार को राष्ट्रीय सर्वेक्षण कराना चाहिए. एंटीबायोटिक नीति तैयार करनी चाहिए. लेकिन कोई भी सुनने को तैयार नहीं है.”

वाशिंगटन स्थित सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिसी (सीडीडीईपी) के डायरेक्टर और हेल्थ इकोनॉमिस्ट रमणन लक्ष्मीनारायणन कहते हैं, ''महामारी दबे पांव हमारी ओर बढ़ रही है.” वे पिछले 16 साल से एबीआर का आर्थिक मॉडल तैयार कर रहे हैं. वे कहते हैं, ''आपने गौर किया होगा कि अब डॉक्टर दवा के लंबे कोर्स देते हैं और एंटीबायोटिक दवाएं ज्यादा महंगी होती जा रही हैं. यह दिखाता है कि एबीआर बढ़ रहा है.” अपने अध्यापकों से कहानियां सुनकर वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने 1996 में प्रतिरोध अर्थशास्त्र (रेजिस्टेंस इकोनॉमिक्स) के नए क्षेत्र में कदम रखा.'' सूजाक से बचने के लिए अमेरिकी सैनिकों के वियतनाम की वेश्याओं पर महंगी पेंसिलिन के अधिकाधिक इस्तेमाल ने इसे पूरी तरह प्रतिरोधी बना दिया. लेकिन इस क्षेत्र में कदम रखने के 10 साल बाद ही उन्हें मामूली घाव वाले एबीआर के शिकार मिलने लगे. यह पिछले 5-6 साल में तेजी से बढ़ा है. हम खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं.” खतरे की घंटी बजने लगी है.Antibiotic

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भारत में हर साल जीवन के पहले चार हफ्ते में ही 10 लाख शिशु मर जाते हैं. रक्त में बैक्टीरिया के कारण 1,90,000 मौतें होती हैं. सीडीडीईपी की रिपोर्ट के मुताबिक, 30 प्रतिशत शिशु एबीआर से मरते हैं. लक्ष्मीनारायणन कहते हैं, ''शिशु मां के गर्भ में शुद्ध और सुरक्षित माहौल में रहता है. इसलिए जब वह मां के पेट से बाहर लोगों के बीच आता है, तो उसे इन्फेक्शन का बहुत ज्यादा खतरा रहता है.” इन्फेक्शन का सबसे बड़ा स्रोत अंबिलिकल कॉर्ड (नाभि रज्जु) होता है. अगर उसकी स्वच्छता का ख्याल नहीं रखा जाता है तो शिशु में इन्फेक्शन पहुंच जाता है. ''अस्पतालों में दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के बढऩे से वे भी रोगाणु के संपर्क में आ जाते हैं. अगर यह बैक्टीरिया रक्त में प्रवेश कर जाता है तो मौत का खतरा बहुत ज्यादा बढ़ जाता है.”

रोगाणुओं की बढ़ती संख्या

भारत में हर जगह से भयावह तस्वीर सामने आ रही है: एबीआर की वजह से शिशु पहले चार हफ्ते में दम तोड़ देते हैं; महानगरों में टीबी के मरीजों पर किसी भी ज्ञात ऐंटीबायोटिक का असर नहीं हो रहा है; अस्पतालों में एबीआर इन्फेक्ïशन बढ़ रहे हैं; बड़े शहरों में नल और नालों के पानी में हत्यारे रोगाणु; दवाओं की रद्दी से नदियों में ऐंटीबायोटिक प्रदूषण; घरेलू पशुओं और फसलों पर ऐंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल जिनसे प्रतिरोधी बैक्टीरिया पैदा होने का खतरा हो जाता है. सर्वेक्षणों में कभी रोगग्रस्त न रहने वाले लोगों में भी ऐंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोध के मामले आए हैं.

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पश्चिम दिल्ली के एक अस्पताल में पिछले साल 60 वर्षीया मीरा स्याल अस्थमा की शिकायत के बाद नियमित चेक-अप के लिए गईं. उन्हें सांस लेने में परेशानी हो रही थी, लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें अस्पताल में भरती करने के लिए कहा. अगले दिन उन्हें वेंटिलेटर पर डाल दिया गया.antibiotic

परिजनों को बताया गया कि उन्हें निमोनिया है और वे कुछ दिन में अच्छी हो जाएंगी. अगले कुछ दिन में उनका बुखार तेजी से बढ़ गया और फिर वे कभी ठीक नहीं हो पाईं. वेंटिलेटर पर रखने से वे निमोनिया के खतरनाक बैक्टीरिया के संपर्क में आ गई थीं. उन बैक्टीरिया पर दवाओं का असर नहीं था.

दिल्ली के एम्स में औषधि विभाग के प्रोफेसर डॉ. रणदीप गुलेरिया कहते हैं, ''भारत के अस्पतालों में यह तेजी से बढ़ता संकट है.” गंगा राम अस्पताल में माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. चांद वट्ठल कहते हैं, ''यह ग्लोबल वार्मिंग से कम खतरनाक नहीं है. इसका हल तुरंत निकालने की जरूरत है.” डॉ. वट्ठल और उनके सहकर्मियों ने 2002 से 77,618 मरीजों का अध्ययन किया है. उनके इस अध्ययन के नतीजे दिखाते हैं कि एबीआर में खतरनाक ढंग से बढ़ोतरी हो रही है: बैक्टीरियम क्लेबसीला निमोनी, जो इंसानी फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है और आखिरी उपाय के तौर पर दी जाने वाली दवा कार्बापेनम के प्रति एक दशक में 2.4 से 52 फीसदी तक प्रतिरोधी हो चुका है.

लापरवाही भरा रवैया

दिल्ली में पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के डायरेक्टर डॉ. के.एस. रेड्डी कहते हैं, ''एंटीबायोटिक के प्रति हमारा रवैया बहुत लापरवाही भरा होता है. वे अक्सर सस्ती हैं, आसानी से उपलब्ध हैं और डॉक्टर की पर्ची के बिना ही खरीदी जा सकती हैं.” डॉक्टर कहते हैं कि अगर वे मरीज को एंटीबायोटिक दवा नहीं लिखते हैं तो वे उनके पास आना बंद कर देते हैं. 2010 में डब्ल्यूएचओ के सर्वेक्षण से पता चलता है कि दिल्ली में 53 फीसदी लोग डॉक्टरी सलाह के बिना खुद ही एंटीबायोटिक दवाएं ले लेते हैं, तबीयत बेहतर होने पर चार में से एक मरीज कोर्स पूरा नहीं करता है और 18 प्रतिशत डॉक्टर सर्दी-जुकाम में एंटीबायोटिक दवाएं लिखते हैं.

इसका एक कड़वा सबूत डॉ. अनीता कोटवानी से मिला, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में फार्माकोलॉजिस्ट हैं. 2011 में उनके अध्ययन में पाया गया कि शहर में बेची जा रही दवाओं में से 39-43 प्रतिशत दवाएं एंटीबायोटिक होती हैं. इतना ही नहीं, अस्पतालों में इस्तेमाल होने वाली शक्तिशाली दवाएं भी साधारण इन्फेक्शन में आराम से इस्तेमाल हो रही हैं. भारत में 2005 से एंटीबायोटिक दवाओं की खपत सालाना 6 से 7 प्रतिशत के बीच बढ़ी है. इसका नतीजा बेहद चिंताजनक है: उदाहरण के लिए लैंसेट जर्नल के मुताबिक, दिसंबर, 2012 में एमॉक्सिलिन, जो भारत में साधारण जुकाम में ज्यादातर इस्तेमाल होती है, का असर खत्म हो चुका है.

डॉ. वट्ठल इसके लिए मेडिकल की पढ़ाई में एबीआर पर जोर न देने को जिम्मेदार ठहराते हैं. ''ज्यादातर डॉक्टर किसी भी इन्फेक्शन में फटाफट एंटीबायोटिक दवाएं लिख देते हैं, जिसकी कोई जरूरत नहीं होती है.” कोलकाता के फोर्टिस अस्पताल में चेस्ट स्पेशलिस्ट डॉ. राजा धर का कहना है कि डॉक्टरों को जिम्मेदारी लेनी होगी. ज्यादातर मरीजों में प्रतिरोध विकसित होने का बड़ा कारण यही है कि एंटीबायोटिक दवाओं का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल हो रहा है, गलत इलाज हो रहा है, गैर-जरूरी दवाएं दी जा रही हैं और मरीज डॉक्टरों की सलाह को ठीक से मानते नहीं हैं. वे कहते हैं, ''डॉक्टर मरीजों की सोच तैयार करने में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं.”

रोगाणु हैं, पर दवा नहीं

नई एंटीबायोटिक दवाएं इस विपत्ति को दूर कर सकती हैं. पर 1987 के बाद से किसी बड़ी एंटीबायोटिक दवा की खोज नहीं हुई है. इंडियन फार्मास्युटिकल एलायंस के महासचिव डी.जी. शाह कहते हैं, ''एंटीबायोटिक का विज्ञान जटिल है.” बैक्टीरिया को निशाना बनाने के लिए हमें अलग तरीकों की खोज करने की जरूरत है. इस तरह का रिसर्च खर्चीला और समय लेने वाला है. वे कहते हैं, ''दुनिया की बड़ी दवा कंपनियों के लिए यह फायदेमंद नहीं है क्योंकि ऐंटीबायोटिक का इस्तेमाल कम समय के लिए होता है.

दीर्घकालिक मर्ज के लिए असरदार दवाएं, जिनका इस्तेमाल लोग आजीवन करते रहते हैं, कहीं ज्यादा फायदे का सौदा है.” संकट की असल वजह पेटेंट का चक्कर है. 2010 से 2014 के बीच बड़ी संख्या में प्रमुख दवाएं पेटेंट से मुक्त हो रही हैं. पेटेंट दवा के मूल निर्माता के अधिकार को 20 साल तक सुरक्षित रखता है. यह अवधि खत्म होने के बाद दूसरे लोग भी उस दवा के सस्ते जनेरिक संस्करणों को बना और बेच सकते हैं.

क्या ऐसे उपाय हैं, जिनसे हम आधुनिक दवा की उपलब्धियों को व्यर्थ जाने से रोक सकें? भारत को ऐंटीबायोटिक नीति और मेडिकल की पढ़ाई में एबीआर को शामिल करने, दवा कंपनियों की निगरानी, ताकि डॉक्टर की सलाह के बिना दवा न बेची जा सकें और अस्पतालों में इन्फेक्ïशन नियंत्रण सुनिश्चित करने की जरूरत है. हम एक खतरनाक स्थिति में आ गए हैं, जहां जिंदगी किसी भी अनपेक्षित तरीके से खत्म हो सकती है: शेविंग रेजर से कटने, गिरने से खरोंच लगने या दांतों का रूट कैनाल कराने से. 2013 की डब्ल्यूईएफ रिपोर्ट में मार्गरेट चान के अनुसार, ''हम उत्तर-ऐंटीबायोटिक युग की प्रात: वेला में हैं.”

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