कोरोना वायरस की दूसरी लहर युवाओं के लिए ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है. कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जहां संक्रमित लोगों में कार्डिएक अरेस्ट और ब्लड क्लॉटिंग की समस्या देखने को मिली है. ऑक्सीजन और दवाओं की कमी से भी हालात बदतर हुए हैं. इस विषय पर मेडिकल एक्सपर्ट्स ने 'आज तक' से बातचीत में विस्तार से जानकारी दी है.
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कोरोना वायरस क्यों युवाओं को अपना शिकार बना रहा है? इस बारे में फॉर्टिस अस्पताल के चेयरमैन डॉ. अशोक सेठ ने कहा, 'म्यूटेंट वायरस पिछली बार की तुलना में 50 प्रतिशत ज्यादा संक्रामक हुआ है. दूसरा, ज्यादातर युवा ही नौकरी या किसी जरूरी काम से बाहर निकल रहे हैं. इससे उनके संक्रमित होने की संभावना भी बढ़ रही. लिहाजा, इस बार संक्रमितों में युवाओं की संख्या ज्यादा है.'
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डॉ. सेठ ने आगे कहा, 'दुर्भाग्यवश ये वायरस इंसान के हृदय को भी नुकसान पहुंचा रहा है. ये हृदय में क्लॉटिंग की समस्या को बढ़ा सकता है. यानी हृदय में खून के थक्के जम सकते हैं. ये खून के थक्के फेफड़े और धमनियों में भी जम सकते हैं. ऐसा होने पर रोगियों में हार्ट अटैक की संभावना भी काफी बढ़ जाती है.'
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डॉ. सेठ ने कहा कि कोरोना से हृदय की मांसपेशियां कमजोर पड़ जाती हैं. हृदय में इंफ्लेमेशन बढ़ने की वजह से ऐसा होता है. इससे हार्ट फेलियर, ब्लड प्रेशर में दिक्कत और धड़कन की गति तेज या धीमी होने लगती है. फेफड़ों में खून के थक्के जमने की वजह से भी दिल की सेहत पर बुरा असर पड़ता है. ऐसी दिक्कतें युवाओं में ज्यादा देखने को मिल रही हैं.
कब तक बढ़ती है क्लॉटिंग की समस्या? डॉ. सेठ ने बताया कि कोरोना संक्रमित होने के पांचवें दिन क्लॉटिंग होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है. ये शरीर में एक इन्फ्लेमेटरी रिएक्शन होता है. इससे पहले रोगी कुछ हल्के लक्षण ही महसूस होते हैं- जैसे खांसी या बुखार. ये वायरस का सीधा प्रभाव नहीं है, बल्कि एक इन्फ्लेमेटरी और इम्यूनोलॉजिकल रिएक्शन है.
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डॉ. सेठ ने कहा कि सातवें दिन शरीर में वायरस का रेप्लीकेशन समाप्त होना शुरू हो जाता है. लेकिन इसी दौरान बॉडी का इन्फ्लेमेटरी रिस्पॉन्स भी शुरू हो जाता है. इसलिए पहले चार दिन ज्यादा चिंता की बात नहीं होती है, लेकिन 5 से 12 दिन के बीच स्थिति काफी गंभीर रहती है. मरीजों की गंभीर स्थिति या मौतें इन्हीं 5 से 12 दिनों के बीच देखी जाती है. हालांकि, 12 दिन गुजरने के बाद मरीज की जान को खतरा कम हो जाता है.
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डॉ. सेठ ने बताया कि इंफेक्शन स्टेज के पांचवें दिन मरीजों को ब्लड थिनर के इंजेक्शन दिए जाते हैं. इलाज समाप्त होने के बाद भी कई बार इनकी दवाएं चलती रहती हैं. हालांकि मरीज की गंभीर हालत को देखने के बाद यानी इन्फ्लेमेटरी रिएक्शन का लेवल चेक करने के बाद ही मरीजों को ब्लड थिनर दिया जा सकता है.
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उन्होंने कहा कि इन्फ्लेमेटरी रिएक्शन या बुखार के लगातार पांच दिन रहने से पता चल जाता है कि शायद मरीज को दो दिन बाद ऑक्सीजन की दिक्कत होने वाली है. सीधे वायरस इंफेक्शन की वजह से फेफड़ों में दिक्कत नहीं होती है, बल्कि इंफ्लेमेशन बढ़ने की वजह से ऐसा होता है.
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वहीं, मेदांता के चेयचरमैन डॉ. नरेश त्रेहन ने बताया कि कोरोना की दूसरी लहर में कम आयु के पुरुष ज्यादा संक्रमित हुए हैं. डॉ. त्रेहन ने बताया कि पिछली बार भी हमने 10-15 प्रतिशत पोस्ट कोविड-19 मरीजों में हार्ट इन्फ्लेमेशन से जुड़ी समस्या देखी थी. लेकिन इस बार ये इन्फ्लेमेटरी रिएक्शन ज्यादा घातक साबित हो रहा है. इसमें कई मरीजों का हार्ट पम्पिंग रेट 20-25 प्रतिशत तक चला जाता है.
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सीटी स्कैन के आधार पर डॉ. त्रेहन ने कहा कि इस बार वायरस ने लोगों के फेफड़ों को ज्यादा डैमेज किया है. उन्होंने ये भी कहा कि मरीजों की ऑक्सीजिनेशन उतनी ज्यादा प्रभावित नहीं हुई है, जितना बुखार और छांती में सीवियर इंफेक्शन देखा गया है. इसलिए जब भी कोई मरीज अस्पताल और उसमें गंभीर लक्षण दिखाएं दें तो उनकी कार्डिएक एको भी की जानी चाहिए ताकि ये पता चल सके इन्फ्लेमेशन से हार्ट मसल पर कितना असर पड़ रहा है.