भारत समेत दुनिया भर में फेफड़ों के कैंसर (लंग कैंसर) से मरने वालों की तादाद सबसे ज्यादा है. लंग कैंसर बेहद खतरनाक बीमारी है. अलग-अलग प्रकार के कैंसर के मुकाबले फेफड़ों के कैंसर में सबसे अधिक रोगी की मौत होती है. पिछले कुछ सालों में इलाज में प्रगति के बावजूद इस बीमारी से मरने वालों की संख्या में मामूली ही कमी आई है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैंसर के मामलों और उससे होने वाली मौतों का डेटा एकत्र करने वाली संस्था Global Cancer Observatory (ग्लोबोकेन) 2020 के अनुसार, फेफड़े का कैंसर वर्तमान में भारत में इस बीमारी से होने वाली मौतों की सबसे बड़ी संख्या के लिए जिम्मेदार है.
गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल ने हैशटैग बीट लंग कैंसर अभियान शुरू किया है. इसमें देश के जाने-माने लंग सर्जन डॉ. अरविंद कुमार और उनकी टीम ने एक दशक के दौरान अपने 300 से अधिक फेफड़ों के कैंसर के रोगियों पर किए एनालिसिस को साझा किया.
कैसे की गई रिसर्च
डॉ अरविंद कुमार के नेतृत्व में इस टीम ने जो रिसर्च की, उसमें उन्होंने पाया कि आउट पेशेंट क्लिनिक में आने वाले रोगियों की बढ़ती संख्या अपेक्षाकृत कम आयु वर्ग के धूम्रपान ना करने वालों की थी. इस नतीजे के लिए मार्च 2012 और नवंबर 2022 के बीच इलाज के लिए अस्पताल आए रोगियों का विश्लेषण किया गया था. इस दौरान मरीजों की जीवनशैली, रहन-सहन के पहलुओं का भी आकलन किया गया.
इन बिंदुओं की भी की गई जांच
इस अध्ययन में कुल 304 रोगियों को शामिल किया गया था. इस दौरान रोगी की उम्र, लिंग, धूम्रपान की स्थिति, बीमारी की शुरुआती जांच में उसकी स्टेज और फेफड़ों के कैंसर के प्रकार समेत अन्य मापदंडों का भी बारीकी से ध्यान रखा गया.
10 सालों की रिसर्च में डॉक्टरों को मिले चौंकाने वाले नतीजे
डॉक्टरों ने रिसर्च के दौरान पाया कि पुरुषों और महिलाओं दोनों में फेफड़ों के कैंसर की घटनाओं में समग्र वृद्धि देखी गई. पुरुषों के बीच प्रसार और मृत्यु दर के मामले में पहले ही ये बीमारी पहले नंबर पर थी. वहीं, महिलाओं में यह आठ साल की अवधि में नंबर 7 (ग्लोबोकैन 2012 के अनुसार) से नंबर 3 (ग्लोबोकैन 2020 के अनुसार) पर पहुंच गई. रिसर्च में पीड़ितों में लगभग 20 प्रतिशत की आयु 50 वर्ष से कम पाई गई. फेफड़ों का कैंसर भारत के लोगों के बीच पश्चिमी देशों की तुलना में लगभग एक दशक पहले विकसित हुआ था. सभी रोगियों में लगभग 10 प्रतिशत की आयु 40 वर्ष से कम थी. वहीं 2.6 प्रतिशत 20 साल के आसपास के थे.
हैरानी की बात ये थी कि इनमें लगभग 50 प्रतिशत रोगी नॉन स्मोकर्स (धूम्रपान ना करने लोग) वाले थे. इनमें भी 70 प्रतिशत रोगी 50 साल की उम्र से कम थे. वहीं, 30 वर्ष से कम आयु के 100 प्रतिशत रोगी नॉन स्मोकर्स थे.
फेफड़ों के कैंसर के मामलों में महिला रोगियों की संख्या में भी वृद्धि देखी गई. जो कुल रोगियों का 30 प्रतिशत थीं. ये सभी महिलाएं नॉन स्मोकर्स थीं. ग्लोबोकैन 2012 के अनुसार, इससे पहले तक अतीत में ये आंकड़ा बहुत कम था.
इस दौरान ये भी देखा गया कि 80 प्रतिशत से अधिक रोगियों की बीमारी का पता एडवांस्ड स्टेज में चला, जब मरीजों के ऊपर पूरी ट्रीटमेंट नहीं किया जा सकता था. यहां केवल उन्हें दर्द से राहत ही दी जा सकती थी.
लगभग 30 प्रतिशत मामलों में रोगी की बीमारी को गलत डायग्नॉस किया गया और उसे टीबी की बीमारी समझा गया. टीबी की बीमारी समझकर कई महीनों तक उसका इलाज किया गया जिसकी वजह से असल बीमारी का इलाज में देरी होती गई.
डॉक्टर ने दिया ये सुझाव
ये अध्ययन बताता है कि आने वाले दशक में कम आयु वर्ग की नॉन स्मोकर्स महिलाओं के बीच फेफड़ों के कैंसर की वृद्धि हो सकती है. यह जोखिम उम्रदराज पुरुषों के उस समूह से काफी अलग है जो तंबाकू का सेवन करते थे. इन नजीतों से ये भी पता चलता है कि पर्याप्त उपचार नहीं मिलने पर अधिकांश मामलों का देर से पता चलता है जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु दर की संभावना भी ज्यादा होती है. निकट भविष्य में फेफड़े के कैंसर एक महामारी की तरह अपना कहर बरपा सकता है.
इस रिसर्च में ये भी पता चला है कि इस बीमारी के पर्याप्त प्रबंधन के लिए देश में की-होल सर्जरी (वैट और रोबोटिक सर्जरी) समेत नवीनतम तकनीक से लैस खास थोरैसिक सर्जिकल केंद्रों की जरूरत है. भारत में बहुत कम ऐसे सेंटर्स हैं जो इस तरह के उपचार उपलब्ध कराते हैं. ये आंकड़े इस बीमारी से निपटने के भारत में इंतजाम की कमी को दर्शाता है.
समाज के विभिन्न वर्गों में फेफड़े के कैंसर के जोखिम के बारे में जागरुकता बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है ताकि इस बीमारी से निपटने के लिए प्रत्येक स्तर पर जरूरी कार्रवाई की जा सके.