
इंडिया टुडे ग्रुप ने हाउ इंडिया लिव्ज (How India Lives) और कैडेंस इंटरनेशनल (Kadence International) के साथ मिलकर देश का पहला सकल घरेलू व्यवहार (Gross Domestic Behaviour) सर्वे करवाया है. ये सर्वे देश भर में सामाजिक और व्यक्तिगत व्यवहार का अध्ययन करने के लिए किया गया है.
क्या है GDB सर्वे
इस सर्वे का मकसद यह जानना है कि हमारे देश का कौन सा राज्य शिष्टाचार, सिविक सेंस, सभ्यता, इंसानियत, दया और सहानुभूति और महिला-पुरुष के बीच समानता के मामले में कहां खड़ा है और भारतीयों की इन पर राय है. यही वजह है कि इस सर्वे को सकल घरेलू व्यवहार (Gross Domestic Behaviour Survey) नाम दिया गया है. जिस तरह देश के आर्थिक हालात को सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) के जरिए मापा जाता है, उसी तरह सकल घरेलू व्यवहार के जरिए लोगों के व्यवहार और शिष्टाचार को मापा गया है.
Gross Domestic Behaviour सर्वे की हर एक डिटेल यहां क्लिक कर पढ़ें
इस सर्वे में महिला-पुरुष के बीच समानता के मामले में केरल टॉप पर जबकि उत्तर प्रदेश काफी पिछड़ा नजर आया. घर के अहम मामलों में अंतिम फैसला लेने के अधिकार से लेकर घर के मर्द की पसंद से वोट डालने जैसे मुद्दों पर उत्तर प्रदेश के लोगों के बीच पुरुष प्रधान समाज वाली मानसिकता हावी नजर आई. हालांकि इस राज्य के लोग बेटियों के नौकरी करने का समर्थन भी करते दिखाई दिए.
लोगों में कहां तक बचे हैं शिष्टाचार
सर्वे में 21 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के 98 जिलों में 9,188 लोगों से बातचीत की गई है. सर्वे में 50.8 फीसदी पुरुष और 49.2 फीसदी महिलाओं ने हिस्सा लिया है. सर्वे में हिस्सा लेने वाले लोगों में 54.4 फीसदी शहरी और 45.6 फीसदी ग्रामीण लोग शामिल हैं. सर्वे में नागरिक शिष्टाचार, सार्वजनिक सुरक्षा, महिला-पुरुष के लिए नजरिया, विविधता और भेदभाव से जुड़े 30 सवाल पूछे गए थे.
इस राज्य ने कहा, बेटी-बेटा बराबर नहीं
सर्वे में जब लोगों से पूछा गया कि क्या परिवार की बेटियों को भी बेटों के जितना पढ़ने या शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए? तो इस सवाल पर 93 फीसदी लोगों ने हां में जवाब दिया जबकि 6 फीसदी लोग इससे सहमत दिखाई नहीं दिए.
ओडिशा के सबसे अधिक 98% उत्तरदाता मानते हैं कि बेटियों को शिक्षा पाने का अधिकार बेटों जैसा ही है जबकि आपको जानकर हैरानी होगी कि GDP, औद्योगीकरण और आर्थिक विकास के मामले में देश के टॉप राज्यों में शामिल गुजरात के 22 फीसदी उत्तरदाता इस धारणा से सहमत नहीं हैं कि उनकी बेटियों को बेटों के बराबर उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए.
बेटियों की नौकरी के पक्ष में UP
इसी तरह जब लोगों से पूछा गया कि क्या परिवार की महिलाओं को घर से बाहर निकलकर काम करने और नौकरी के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए? तो इस 84 फीसदी लोगों ने अपना समर्थन दिया जबकि 15 फीसदी लोगों ने इस विचार का विरोध किया. जबकि बेरोजगारी और साक्षरता दर में देश के कई राज्यों से निचले पायदान पर रहने वाले उत्तर प्रदेश के 98% उत्तरदाता अपनी बेटियों को घर से बाहर निकलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करने के इच्छुक हैं जबकि विकसित राज्य माने जाने वाले गुजरात के 38% उत्तरदाताओं ने इस विचार का विरोध किया.
घरेलू हिंसा पर चौंका देगा आंकड़ा
स्त्री-पुरुष के बीच समानता के मामले में दक्षिण भारत के इस राज्य का हाल बेहाल दिखा. सर्वे में जब पूछा गया कि क्या पति का पत्नी को पीटना तब उचित है जब वह घरेलू मामलों में उसके फैसलों पर आपत्ति जताए? इस सवाल पर 83 फीसदी लोगों ने असहमति जताई जबकि 16 फीसदी उत्तरदाता इसका समर्थन करते दिखे. उत्तराखंड के 98% उत्तरदाता इस तरह की घरेलू हिंसा के खिलाफ हैं जबकि आंध्र प्रदेश के 31% उत्तरदाता धारणा के पक्ष में हैं.
इस मुद्दे पर केरल ने किया टॉप और यूपी रहा फ्लॉप
इसी तरह एक और सवाल के जवाब में भी साफ नजर आया भारतीय समाज में अभी भी पुरुष प्रधानता चरम पर है. इस सवाल में पूछा गया था कि क्या महिलाओं को उसी प्रत्याशी को वोट देना चाहिए जिसे परिवार के पुरुष सदस्यों ने वोट दिया है? इस दौरान सर्वे में शामिल 51 फीसदी लोगों ने इस पर सहमति जताई जबकि 48 फीसदी लोग इससे सहमत दिखाई नहीं दिए. केरल के 93% उत्तरदाता मानते हैं कि महिलाएं अपनी पसंद से मतदान करें जबकि उत्तर प्रदेश में 91% उत्तरदाता कहते हैं कि महिलाओं को परिवार के पुरुष की पसंद के उम्मीदवार को वोट देना चाहिए.
शादी की आजादी पर क्या बोले लोग
इस सवाल पर किया क्या महिला को अपनी पसंद से शादी करने की आजादी होनी चाहिए, फिर चाहें माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध ही क्यों न हो? इस सर्वे में हिस्सा लेने वाले 32 फीसदी उत्तरदाता इस धारणा के पक्ष में दिखे, जबकि 67 फीसदी लोगों ने इसके खिलाफ वोट किया.
केरल के 67% उत्तरदाता सोचते हैं कि महिलाओं को अभिभावकों की इच्छा के खिलाफ जाकर शादी करने की आजादी होनी चाहिए जबकि चंडीगढ़ में 92% उत्तरदाता इस विचार के विरोध में दिखाई दिए.
यूपी ने कहा, पुरुष को ही फैसला लेने का हक
वहीं, जब प्रतिभागियों से यह सवाल किया गया कि क्या घर के प्रमुख मुद्दों पर परिवार के पुरुषों का फैसला अंतिम होना चाहिए? तो इस पर 69 फीसदी उत्तरदाताओं ने सहमति जताई जबकि 30 फीसदी लोगों ने इसका विरोध किया. केरल के 75 फीसदी उत्तर दाता घरेलू मामलों में पुरुषों का फैसला अंतिम होने के विरोध में हैं जबकि उत्तर प्रदेश के 96 फीसदी उत्तरदाता मानते हैं कि पुरुषों को ही फैसला करना चाहिए.
जिस तरह पुरुष अपनी सैलरी अपने पास रखता है और खर्च करता है तो क्या महिला को भी परिवार के पुरुष सदस्यों की मंजूरी के बगैर अपनी कमाई के पैसे के इस्तेमाल की आजादी होनी चाहिए? तो इस सवाल 69 फीसदी लोगों ने सहमति जताई जबकि 31 फीसदी लोग इस विचार के खिलाफ दिखे. केरल के 91% उत्तरदाताओं का मानना है कि महिलाएं अपनी कमाई के पैसे खर्च करने के लिए स्वतंत्र हैं जबकि ओडिशा के 70% उत्तरदाता कहते हैं कि इस तरह के खर्च के लिए महिलाओं को परिवार की मंजूरी लेनी चाहिए.
महिलाओं की योग्यता और क्षमता पर संदेह!
वहीं, इस सर्वेक्षण पर सेंटर फॉर वुमंस स्टडीज की अध्यक्ष राखी कलिता मोरल ने अपनी राय रखी है. उन्होंने कहा कि यह सर्वेक्षण दिखाता है कि भारतीय समाज अभी भी महिलाओं की योग्यता और क्षमता पर संदेह करता है.
राखी कलिता मोरल ने कहा, सर्वेक्षण में महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंताजनक रुझान सामने आए जो बताते हैं कि उनकी क्षमता, योग्यता या अपेक्षित अधिकारों की धार को इस तरह कुंद किया गया कि वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुरूप ही ढल जाएं.
राखी कहती हैं, 'समानता की ओर' (टुवर्डस इक्वेलिटी) रिपोर्ट के पचास साल बाद ये सर्वे देश में महिलाओं की स्थिति पर कुछ चिंताजनक आंकड़े सामने लाता है. जाहिर है, '70 और 80' के दशक में महिलाओं के आंदोलनों के बावजूद यह स्थिति सवाल खड़े करती है. बात न मानने पर पत्नी को पीटने को गलत न मानना अभी भी लिंग आधारित हिंसा का बहुत ठोस संकेतक है और हर स्थिति और हर जगह समान रूप से नजर आती है.
उन्होंने आगे कहा कि अगर स्त्री-पुरुष समानता और इसके लिए महिलाओं के संघर्ष को इस अर्थ में देखा जाए कि उन्हें मताधिकार और वोट देने की सहूलत शुरू में ही मिल गई थी तो करीब एक सदी बाद भी मर्जी से और स्वतंत्र सोच के साथ ऐसा करने में असमर्थ होना निश्चित तौर पर महिलाओं के अधिकारों को जायज नहीं ठहराता. यह धारणा कि वयस्क महिलाओं के बौद्धिक निर्णय या जायज पसंद-नापसंद भी परिवार में पुरुषों की पुष्टि पर निर्भर करती है. भारत में स्त्री-पुरुष समानता की बात को पूरी तरह बेमानी कर देती है.