बूंद हूं एक नन्ही सी
सहेज लो तो सागर बन जाऊं
नहीं तो माटी में समां जाऊं
वृक्षों के कपोलों में स्वर्ण आभा जैसी चमकूं
रवि के तेज से कहीं अपना अस्तित्व न खों दूं,
स्वाति नक्षत्र के दिन
सीप के आगोश में जाउं
मोती बनकर फिर में इतराऊं
बरसते बरसते पहुँच जाऊं
किसी व्यक्ति के मुख पर
तो आंसू जैसी दिखलाऊं,
सारी मिलकर जब हम बरसे
तो कर्ण प्रिय संगीत बन जाऊं,
शीत लहर में जाऊं में तो
स्वेत सी बर्फ बन जाऊं
बूंद हूं एक नन्ही सी,
जिसमे चाहो ढल जाऊं