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अनाम रिश्तों की मुश्किल भरी राह

भारतीय दंड विधान की धारा 377 पर हाल का फैसला समलिंगियों में प्रेम की स्वीकार्यता की लंबी लड़ाई में महज एक पड़ाव, लेकिन जब तक समाज का मानस न बदले और सरकार कोई रुख न अपनाए, कुछ नहीं बदलेगा.

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''हम घोषणा करते हैं कि भारतीय दंड विधान की धारा 377, जो एकांत में समान लिंग के वयस्कों के बीच आपसी रजामंदी से बनाए गए यौन संबंधों को अपराध मानती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन है. लेकिन धारा 377 के तहत बिना रजामंदी के समान लिंग वालों के बीच यौन संबंध और अवयस्क के साथ ऐसे ही यौन संबंध अपराध माने जाएंगे.'' (2 जुलाई को दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह और न्यायाधीश एस. मुरलीधर की खंडपीठ के फैसले में पैराग्राफ 132 से उद्धृत)

 

दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत में जब ये पंक्तियां पढ़ी गईं तो वहां मौजूद भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई. ज्‍यादातर एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थे, उनकी आंखों में खुशी के आंसू उमड़ रहे थे. जब वे धीरे-धीरे सड़क पर आए तो जश्न जैसा नजारा दिखने लगा. कुछ नाच रहे थे, कुछ एक-दूसरे को गले लगा रहे थे तो कुछ सिर्फ मुस्करा रहे थे. यह उनके लिए ऐतिहासिक क्षण था. इस एक फैसले से 'एलजीबीटी' (लेस्बियन-समलिंगी स्त्री, गे-समलिंगी पुरुष, बाइसेक्सुअल-उभयलिंगी संबंध और ट्रांसजेंडर-बहुलिंगी संबंध) जैसे अजीब नाम से संबोधित की जाने वाली बिरादरी को एकाएक ही जीने का, अपने ढंग से प्रेम करने का अधिकार मिल गया. समलैंगिकता को, जिसे अब तक बच्चों और पशुओं के साथ यौन संबंध के समान अपराध माना जाता था, वैधता हासिल हो गई.

सबको साथ लेकर चलने का बड़ा सवाल
जवाहर लाल नेहरू और बी.आर. आंबेडकर के विचारों को उद्धृत करते हुए फैसले में इसे 'सबको साथ लेकर चलने' के सिद्धांत को संविधान की मूल भावना बताया गया. ''जहां समाज सभी को साथ लेकर चलता है और सबकी भावनाओं को समझता है, सभी नागरिकों को सम्मान दिया जाता है और उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता... भेदभाव समानता का विरोधी है और यह समानता की ही स्वीकार्यता है जो प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान देगी.'' मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह और न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर की सदस्यता वाली दिल्ली हाइकोर्ट की खंडपीठ का ऐतिहासिक फैसला सेक्स को काम वासना के समान मानता है और इस तरह इसे भेदभाव का आधार नहीं माना जा सकता. फैसले में स्पष्ट कहा गया, ''अधिसंख्य समाज जिसे 'विचलन' या 'अलग' मानता है, उन्हें समाज से बहिष्कृत नहीं किया जा सकता.'' इसलिए संवैधानिक कानून आपराधिक कानून को 'एलजीबीटी' के बारे में लोगों की आम गलत धारणाओं का बंधक बनने की इजाजत नहीं देता.

न्‍यायिक हस्‍तक्षेप की पुरानी मांग
यह सब इतना आसान नहीं था. यह फैसला 2001 में एक इतरलिंगी महिला और नाज फाउंडेशन की संस्थापिका अंजलि गोपालन की ओर से की गई पहल का नतीजा है. अंजलि ने सन्‌ 1861 के भारतीय दंड विधान की धारा 377, जो वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध मानती है, के कुछ प्रावधानों को हटाने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की थी. 2001 में दिल्ली हाइकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था. पांच साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे वापस अदालत को भेज दिया. इस बार आनंद ग्रोवर के नेतृत्व में लायर्स कलेक्टिव के समर्पित वकीलों की टीम की मदद से वे जीत हासिल करने में सफल रहीं. उनके लिए इससे अच्छा अवसर नहीं हो सकता था. शहरी लोग न सिर्फ टीवी धारावाहिकों (जस्सी जैसी कोई नहीं) और फिल्मों (दोस्ताना) में समलैंगिकों को देखने के आदी हो चुके थे बल्कि बंगलुरू, चेन्नै और दिल्ली में वे उनकी रंग-बिरंगी परेड भी देखते रहे हैं.

अभी भी जीत पूरी नहीं
जाहिर है, अंजलि इस जीत का श्रेय ग्रोवर के नेतृत्व में 'लायर्स कलेक्टिव' के समर्पित वकीलों को ही दें जिन्होंने दृढ़ निश्चय के साथ सारी बाधाओं का सामना करते हुए उनके मामले को आगे बढ़ाया. लेकिन यह जीत अभी पूरी नहीं है.
 
विरोधियों ने दिखाया बीमारी का भय
हाइकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली एक याचिका पर 9 जुलाई को मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए नाज फाउंडेशन और केंद्र को नोटिस जारी कर दिए. एक ज्‍योतिषी सुरेश कुमार कौशल की इस याचिका में कहा गया कि समलैंगिकता हर दृष्टि से 'अप्राकृतिक' है और उसकी इजाजत नहीं दी जा सकती. उन्होंने याचिका में तर्क दिया है कि अप्राकृतिक क्रिया के नतीजों की कोई कल्पना नहीं कर सकता. {mospagebreak}जानवर भी ऐसा काम नहीं करते. उन्होंने कहा कि इससे एचआइवी के विषाणु फैलेंगे, यह साबित हो चुका है.

धर्मगुरुओं की नजर में नैतिक मूल्‍यों पर खतरा  
जैन, मुस्लिम, ईसाई धर्म के लोगों ने भी इस फैसले का विरोध किया है. जमाते इस्लामी-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सईद जलालुद्दीन उमरी ने कहा, ''यह हमारे नैतिक मूल्यों को खत्म करने की साजिश है, जो लोग यह काम कर रहे हैं उनके लिए समाज में कोई जगह नहीं है.'' विख्यात इस्लामिक शिक्षण संस्था दारूल उलूम देवबंद के उलेमा ने समलैंगिकता को इस्लाम विरोधी और नाजायज बताते हुए इसके खिलाफ अभियान चलाने की अपील की. संस्था के नायम मोहतमिम मौलाना अब्दुल खालिक मद्रासी ने सभी सांसदों से अपील की कि वे संसद के दोनों सदनों में दिल्ली हाइकोर्ट के इस फैसले का विरोध करें.

अदालत के फैसले में हुई देरी
कुछ हिंदू नेताओं ने आरोप लगाया कि  मुकदमा अदालत में दाखिल करने के लिए याचिकाकर्ताओं को एक विदेशी एजेंसी से पैसा मिल रहा है. ये आरोप सिर्फ दोहराए जाते रहे लेकिन इनके कोई ठोस सबूत पेश नहीं किए गए. फिर भी अदालत में मामले को पटरी से हटाने में वे जरूर कामयाब रहे. अदालत ने अपना फैसला 7 नवंबर, 2008 को सुरक्षित रखा. सात महीने बाद 105 पृष्ठों का प्रारंभिक फैसला आया.

अब वैध हो गया यह कृत्‍य
फिलहाल, जो पुरुष किसी अन्य पुरुष के साथ हमबिस्तर होते हैं और जो महिलाएं दूसरी महिलाओं के साथ हमबिस्तर होती हैं, उनके लिए अब यह कृत्य वैध हो गया है. सेवा उद्योग के एक उद्यमी 28 वर्षीय मयंक शर्मा और बंगलुरू के सॉफ्टवेयर कंसल्टेंट 25 वर्षीय राजीव चंद्रन को लें. दोनों को देश भर से बधाई संदेश मिल रहे हैं. वे खुश हैं लेकिन उनके ही शब्दों में कई बाधाएं हैं. ''अभी बहुत कुछ बदलाव लाने की जरूरत है. हम दंपती हैं और एक बच्चा गोद लेना चाहेंगे पर भारतीय कानून कहता है कि अकेले पिता को सिर्फ बालक ही दिया जा सकता है. मैं पूछता हूं, समलैंगिक पुरुष दंपती के मामले में कानून क्या कहेगा. संपत्ति और बीमा जैसे व्यावहारिक मुद्दे भी हैं.''

पहले उठानी पड़ती थी परेशानी
देश भर में खुशियों के साथ कुछ अंदेशे भी हैं, खासकर उन लोगों के लिए जो जीवन भर समलैंगिकों के लिए लड़ते रहे. जैसे 63 वर्षीय अशोक राव कवि, जो समलैंगिक पुरुष के तौर पर खुलकर सामने आने वाले पहले व्यक्ति थे. वे रामकृष्ण संप्रदाय में हिंदू संन्यासी बनने की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे. 1984 में उनके गुरु ने उन्हें संसार में वापस जाकर समलैंगिक लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने की सलाह दी. उनका तर्क है कि 26 लाख समलैंगिकों की बिरादरी सिर्फ धारा 377 का शिकार नहीं है बल्कि गुंडा कानून और जन व्यवस्था कानून के तहत भी उसे परेशान किया जाता रहा है.
 
फैसले से मूक आबादी को मिली आवाज
दिल्ली स्थित गे-आर्ट-फोटोग्राफर 55 वर्षीय सुनील गुप्ता, जो 35 वर्षों से दिल्ली में समलैंगिक मामलों के गवाह रहे हैं, को लगता है कि यह फैसला समलैंगिक बिरादरी की एक बड़ी मूक जनसंख्या को आवाज देगा. ''मेरा अनुभव बताता है कि बहुत-से समलैंगिक पुरुष जिनकी महिलाओं से जबरन शादी कर दी गई, पड़ोसियों या सहकर्मियों के रूप में रहने वाले अपने सहभागियों के साथ समलैंगिक संबंध बनाए रहे.'' फिल्म निर्माता रमा कागती, जो उभय लैंगिकता पर हनीमून ट्रैवल्स फिल्म बना चुकी हैं, भी इससे सहमत हैं. उन्हें लगता है कि भारतीय ''मतभेदों को स्वीकार करने में ज्‍यादा खुलापन दिखाएंगे और आपसी सद्भाव से रहना सीखेंगे.''{mospagebreak}
फैसले के भौगोलिक प्रसार पर सवाल
हालांकि फैसले के भौगोलिक प्रसार को लेकर अभी सवाल उठ रहे हैं, लेकिन कोलकाता में प्रेमी युगल 23 वर्षीय पिनाकी घोष और जयंत रॉय उस दिन का सपना देख रहे हैं जब वे आपस में शादी रचा सकेंगे और एक बच्चा गोद लेंगे. यहां तक उनका सफर आसान नहीं रहा है. वे दोनों समलैंगिक लोगों के मिलने की जगह माने जाने वाले फिल्म परिसर नंदन में एक दूसरे से मिले थे. पिनाकी, जो पर्यावरण विषय पर स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे हैं, कहते हैं, ''मैंने नंदन में हम दोनों को जानने वाले एक मित्र के जरिए उसका मोबाइल नंबर मांगा. मुझे पता था कि वह मुझे पसंद करता था और तब मैंने अपनी ओर से पहला कदम उठाया. उसके बाद हमने पीछे मुडक़र नहीं देखा.''
 
करना पड़ता है छींटाकशी का सामना
यह सब आसान नहीं है. वे अब भी साथ-साथ नहीं रह सकते और सार्वजनिक परिवहन में सफर करते समय अगर एक दूसरे से सटकर बैठते हैं तो उन्हें अक्सर लोगों की छींटाकशी का सामना करना पड़ता है. 40 वर्षीय डॉक्टर जाहिद शफी अंसारी और विकास के क्षेत्र में काम करने वाले 43 वर्षीय रंजन कौल के साथ भी ऐसा ही है. वे पांच साल पहले गे चैटिंग वेबसाइट पर मिले थे और तभी से घरेलूपन की तस्वीर बने हुए हैं. उनकी जिंदगी में एक कांताबेन भी हैं जो सुबह काम करने आती है तो दोनों बिस्तर से उठकर अलग हो जाते हैं.

समलैंगिक जोडि़यों की होने लगी शादी
लेकिन पंजाब की समलैंगिक बिरादरी में इस फैसले का भारी असर हुआ है. उनमें अब साहस आ गया है. भारतीय परिवार नियोजन संघ के एचआइवी-एड्स योजना प्रबंधक अश्विनी कुमार के मुताबिक, फैसला आने के तीन दिन के भीतर चंडीगढ़, पंचकूला और मोहाली में 15 समलैंगिक जोड़ों ने शादी कर ली. वे कहते हैं, ''यह एक अच्छा कदम है. वे भले ही गुप्त रूप से यौन संबंध बनाते रहे हों पर शादी हो जाने के बाद उम्मीद है कि वे सुरक्षित सेक्स संबंध बनाएंगे और उससे एचआइवी व एड्स से प्रभावित लोगों की संख्या में कमी आएगी.''
 
अब सुप्रीम कोर्ट पर नजर
25 वर्ष के सचिन कुमार एक बुटीक में काम करते हैं और 24 वर्ष की संजना एड्स पर काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन में हैं. उन्होंने करीब पांच साल तक एक दूसरे से मिलने के बाद शादी कर ली. वे टीवी से चिपके हुए हैं. संजना के शब्दों में, ''मुझे नहीं पता कि क्या होगा. मुझे बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट कुछ भी कर सकता है.'' उन्हें उम्मीद है कि फैसले से समाज में बदलाव आएगा. ''कुछ लोग हमें चिढ़ाएंगे, कुछ लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा.''  एक और प्रेमी युगल चंडीगढ़ में डेयरी मालिक जरनैल सिंह (27 वर्ष) और पंचकूला में कुरुक्षेत्र के 27 वर्षीय आर्केस्ट्रा डांसर दीप (अब बदला नाम सपना) ने शादी कर ली.
 
महिलाएं साधे रहती हैं चुप्‍पी
महिला समलैंगिकता का उल्लेख करना भी काफी कठिन है. महिलाएं पुरुषों के मुकाबले अपने समलैंगिक संबंधों पर ज्‍यादा चुप रहती हैं. क्रिएटिव रिसोर्सेज फॉर एंपावरमेंट इन एक्शन की संस्थापक सदस्य प्रमदा मेनन कहती हैं, ''इस देश में मिहलाओं की कामुकता को युगों से दबाया जाता रहा है. समाज पुरुषों के मुकाबले महिलाओं से ज्‍यादा खतरा महसूस करता है, क्योंकि उन्हें पारंपरिक मूल्यों और पारिवारिक मूल्यों का वाहक समझ जाता है. वे अपने मायके का विरोध नहीं कर सकतीं और आर्थिक स्वतंत्रता का मुद्दा उनके मामले को मुश्किल बना देता है. उनमें से ज्‍यादातर की जबरन शादी कर दी जाती है.'' कभी-कभी उन्हें इतना दबाया जाता है कि उनके पास सिर्फ आत्महत्या का ही विकल्प बचा रहता है. यही वजह है कि भारत में महिला समलैंगिकों में आत्महत्या की दर बहुत ज्‍यादा है. {mospagebreak}1996 से 2004 के बीच अकेले केरल में इस तरह की आत्महत्या के 24 दर्ज मामले सामने आ चुके हैं. चेन्नै में दो विवाहित महिलाओं क्रिस्टी जयंती मालार (38 वर्ष) और रुक्मणी (40 वर्ष) ने परिवार के उत्पीड़न के कारण आग लगाकर आत्महत्या कर ली थी. दोनों के जले शरीर एक दूसरे से आलिंगनबद्ध थे.
 
संघर्ष के दिनों में पारिवारिक सहयोग जरूरी
महिंद्रा ऐंड महिंद्रा में अधिकारी और लेखक परमेश साहनी, जिन्होंने गे बॉम्बे नाम की किताब लिखी थी, कहते हैं कि अपनी पुस्तक के लिए शोध करते हुए वे कई ऐसे लोगों से मिले जो परिवार के मामले में उनकी तरह भाग्यवान नहीं थे. साहनी को संघर्ष के दिनों में परिवार का पूरा सहयोग मिला. कानून समलैंगिक रिश्तों के बारे में वर्षों के पूर्वाग्रह को एक झटके में खत्म नहीं कर सकता. हां, 30 वर्षीया रोज जैसे कुछ साहसी लोगों द्वारा लाए जा रहे सामाजिक बदलाव से जरूर मदद मिल सकती है. वे टीवी शो पेश करने वाली पहली उभयलिंगी हैं. वे कहती हैं, ''पहले मैं मजाक का विषय हुआ करती थी. आज लोग मेरा आटोग्राफ लेने आते हैं क्योंकि मैं मीडिया की एक हस्ती हो गई हूं.'' रोज की आत्मकथा माइ सेक्सुअलिटी का प्रकाशन धारा 377 के कारण भारत में नहीं हुआ. वे कहती हैं, ''मैं इसे जल्दी ही प्रकाशित कराऊंगी.''
 
आजाद खयाल लोगों में जगी आशा
आजादी की वकालत करने वाला हर कोई उनकी तरह आशान्वित है. यह फैसला समलैंगिक बिरादरी को छोटे से दायरे से बाहर निकालने में मदद करेगा, चाहे वह बंगलुरू का आजाद बाजार हो, जो समलैंगिकों के खास पसंद वाले कपड़े, गहने और गृह सज्‍जा के सामान व नारों वाले टीशर्ट रखता है या फिर पहल फाउंडेशन जो फरीदाबाद में भारत का पहला समलैंगिकों का ब्यूटी पार्लर चलाता है. लखनऊ, जिसे 'नवाबों' के शहर के रूप में जाना जाता है और जिनमें से कई तो समलैंगिक होने की वजह से ख्यात भी रहे, अमूमन पारंपरिक शहर ही है.

नृत्‍य से झलकता समलैंगिकता का रूप
बिहार में समलैंगिक संस्कृति भले ही प्रचलित न हो लेकिन लौंडा नर्तकों के रूप में समलैंगिकता का रूप जरूर दिखता है. ये नर्तक महिलाओं का रूप बनाकर शादियों में नाचते हैं. दूसरे समाजों की तरह बिहार में भी समलैंगिकता परदे के  पीछे है. बिहार के तमाम हिस्सों में लौंडा नाच प्रचलित है. गोपालगंज, बक्सर, सीवान, भोजपुर, समस्तीपुर, वैशाली, पटना, मुजफ्फरपुर और छपरा में लौंडा नाच बहुत लोकप्रिय है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मार्च 2007 में 'लौंडा डांसरों' पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में युवकों और लड़कों को पैसे देकर महिलाओं जैसे कपड़े पहनाकर उनसे नृत्य करवाए जाते हैं और बाद में उन्हें वेश्यावृत्ति के लिए भी मजबूर किया जाता है. होली जैसे त्यौहारों, विवाह समारोहों में वे पुरुष समुदाय के मनोरंजन और यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए नृत्य करते हैं, यहां तक कि राजनैतिक दल भी अपनी पार्टियों में मनोरंजन के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं.
 
कई समलिंगी जनजाति से संबंधित
झारखंड एड्स कंट्रोल सोसायटी के लिए एक एनजीओ सिटीजन फाउंडेशन द्वारा खदान क्षेत्र में कराए सर्वेक्षण से खुलासा हुआ कि चाइबासा जिले और उसके आसपास 20 किमी के दायरे में कम से कम 590 समलैंगिक हैं. सिटीजन फाउंडेशन के प्रमुख गणेश रेड्डी बताते हैं कि इनमें से कई समलिंगी हो जनजाति से संबंधित हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अनेक कारणों से समलैंगिक गतिविधियों में संलग्न हैं जिनमें से एक बड़ा कारण तो यही है कि चाइबासा खदान क्षेत्र और उसके आसपास महिलाओं की संख्या नगण्य है. ऐसे लोग हर पेशे में पाए गएः किसान, कामगार और यहां तक कि खनिज अधिकारी भी.{mospagebreak}
बच्‍चों के शोषण के लिए अलग से कानून नहीं
धारा 377 संबंधी जहां तक अपराधों का प्रश्‍न है, इसका प्रयोग मुख्य रूप से प्रयोग बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामलों में होता है. इस ओर लॉयर्स कलेक्टिव की शिवागी राय ने इशारा किया है, ''इस धारा के तहत 90 फीसदी मामले बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार के होते हैं क्योंकि बच्चों के शोषण के लिए अलग से कोई अन्य कानून नहीं है.'' पिछले 150 सालों में विश्वसनीय रिकॉर्ड के अभाव के चलते इस बारे में कुछ भी साफ नहीं कहा जा सकता कि समलैंगिकता को लेकर कितने मामले दाखिल हुए हैं और कितने लोगों को सजा सुनाई गई हैं. लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन ने कहा, ''मेरी जानकारी में अभी तक समलैंगिकता के लिए किसी को सजा नहीं हुई है.'' यह इस मामले की तथ्यात्मक सचाई है.

कोर्ट का फैसला जादू की छड़ी नहीं
असल में हाइकोर्ट का फैसला कोई जादू की छड़ी नहीं है. मसलन, एक प्रकाशक के लिए काम करने वाले 27 वर्षीय अकरम जिनका एक 33 वर्षीय वकील महेश (बदले हुए नाम) के साथ संबंध है लेकिन वे अपने रिश्ते को उजागर नहीं करना चाहते. ऐसा इसलिए क्योंकि इस रिश्ते को उजागर करने से भेदभाव हो सकता है और सार्वजनिक जगहों पर अपमान झेलना पड़ सकता है. समलैंगिक कार्यकर्ता गौतम भान के मुताबिक यह फैसला न केवल समलैंगिकों की जीत है बल्कि भारतीय संविधान की जीत भी है.
समलैंगिकता के मद्देनजर निरपराधीकरण का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि उन लोगों के साथ भेदभाव जारी रहता है. और इस लिहाज से अभी लंबी लड़ाई बाकी है. सरकार को अब ढुलमुल रवैया छोड़कर इस मुद्दे पर स्पष्ट राय बनानी होगी. इसके अलावा इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस की भी जरूरत है ताकि समाज में समलैंगिकता को लेकर बेहतर समझ बन सके.

- अमिताभ श्रीवास्तव पटना में, सुभाष मिश्र लखनऊ में और अरविंद छाबड़ा चंडीगढ़ में, अभिजीत दासगुप्ता कोलकाता में, मैथिली चक्रवर्ती और पंक्ति मेहता मुंबई, आदि वेलप्पन चेन्नै में.

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