उदारीकरण के बाद के भारत में जो महत्वपूर्ण सामाजिक बदलाव आए हैं उनमें एक है कामुकता के बारे में 'खुलापन'. कामुकता शब्द कुछ लोगों में आक्रोश जगाता है, तो कुछ में स्वीकृति की भावना. और यह आज एक कटु विवाद का मसाला बन गया है. इससे जुड़ी कश्मकश की सबसे बड़ी मिसाल दिल्ली हाइकोर्ट में देखी जा सकती है, जहां समलैंगिकता को अपराध न माने जाने पर बहस हो रही है.
हमारी यौन संस्कृतियां भी भिन्न हैं
इंडिया टुडे-एसी नीलसन-ओआरजी मार्ग ने 2008 में जो सेक्स सर्वेक्षण कराया था उसके परिणाम से परंपरावादी नैतिकता के पैरोकारों को काफी झटका लगा, लेकिन दूसरे लोगों को यह जानने का मौका भी मिला कि हमारी यौन संस्कृतियां भी कितनी भिन्न हैं. पहचान न उजागर करने की शर्त पर चारों महानगरों और सात बड़े शहरों के स्त्री-पुरुषों ने अपनी यौन प्राथमिकताओं और आदतों के बारे में बताया. इस सर्वेक्षण में परंपरागत वर्जनाओं में गिरावट और शादी, एक पत्नीत्व तथा विषमलैंगिकता से परे कई तरह के यौन व्यवहार के प्रति झुकाव का भी पता चला. यदि पहचान उजागर न करने का आश्वासन दिया जाए तो लोग अपने यौन जीवन के बारे में बताने को अधिक इच्छुक नजर आते हैं.
महिला पोर्नोग्राफी नहीं रहा पुरुषों का विशेषाधिकार
जाहिर है, असामान्य कामुकता, विवाहेतर संबंध (दुर्भाग्य से अध्ययन में इसे अवैध संबंध कहा गया) और पोर्नोग्राफी (कामुक साहित्य आदि) जैसे विषयों पर वर्जना टूटी है. मिसाल के तौर पर पोर्नोग्राफी को ही लें. सर्वेक्षण के मुताबिक, पांच में से तीन पुरुष और पांच में से एक महिला पोर्नोग्राफी को 'मान्य' मानती है. चूंकि पोर्नोग्राफी को हमेशा ही पुरुषों का विशेषाधिकार माना गया इसलिए यह बात गौर करने लायक है कि 21 फीसदी महिलाओं (सर्वेक्षण में भाग लेने वाली) ने पोर्नोग्राफी को स्वीकार्य माना. इनमें से 45 फीसदी ने इससे यौनाचार के मामले में कल्पनाशील होने की प्रेरणा ली. वीडियो इसका सर्वाधिक प्रचलित साधन है.
चित्रमय पोर्न सीरीज 'सविता भाभी'
हैदराबाद में इसका सबसे अधिक प्रचलन (68 फीसदी) है, तो कोलकाता दूसरे नंबर (59 फीसदी) पर है. यहां यह तथ्य भी दिलचस्प है कि पोर्नोग्राफी देखने वाली 25 में से एक महिला ने खुद अपना पोर्न वीडियो बनवाने की बात भी मानी. तो महिलाएं न सिर्फ पोर्न देख रही हैं बल्कि इसके निर्माण में हिस्सा भी ले रही हैं. लेकिन इससे यह कतई नहीं मान लिया जाना चाहिए कि ये वीडियो सार्वजनिक स्तर पर वितरण के लिए हैं, बल्कि वे संभवतः अंतरंग क्षणों को उतारने के लिए हैं. आज होम वीडियो लोगों के जीवन के हर हिस्से में प्रवेश कर गए हैं तो यौन जीवन भी अपवाद नहीं है. एक चित्रमय पोर्न सीरीज 'सविता भाभी' के इंटरनेट यौन कारनामों को 'होम पोर्न' की श्रेणी में रखा जा सकता है.
पोर्नोग्राफी पर बहस
ऐतिहासिक दृष्टि से तो पोर्नोग्राफी पर बहुत बहस हो चुकी है. परंपरागत नैतिकतावादी और कुछ नारीवादी गुटों (हालांकि एकदम अलग वजहों से) ने पोर्नोग्राफी का विरोध किया है. परंपरागत नैतिकता के पैरोकार इसे सेक्स के प्रति सम्मोहन मानते हैं जिसका यौनाचार के मुख्य उद्देश्य-संतानोपत्ति-से कोई सरोकार नहीं है. ये लोग पोर्नोग्राफी (और विवाहेतर संबंधों) को परंपरागत पारिवारिक मूल्यों के लिए खतरा मानते हैं. नारीवादियों का मानना है कि पश्चिमी देशों में पोर्नोग्राफी का इतिहास विवादास्पद रहा है. 'उग्र नारीवादी' कहलाने वाले पोर्नोग्राफी विरोधी नारीवादियों ने पोर्नोग्राफी पर सेंसर की मांग की है क्योंकि यह बलात्कार और महिलाओं के प्रति हिंसा को प्रोत्साहित करती है. '80 और '90 के दशक में इसे कैथरीन मॅकिनन और एंद्रिया द्वोर्किन से समर्थन मिला जिनके पोर्नोग्राफी पर सेंसर के जिहाद को 'पोर्नोग्राफी सिद्धांत है और बलात्कार उस पर अमल' जैसे नारों से प्रेरणा मिली.
सेक्सिज्म से लड़ों, सेक्स से नहीं
सेंसरशिप विरोधी नारीवादी स्थिति, जिसकी राजनीति से मैं सहमत हूं, सेक्स से लबरेज भाषणों और सेक्स पर खुली बात में अंतर करती है. जैसे सेक्स पर खुली चर्चा सेक्सिस्ट (महिलाओं के प्रति भेदभाव मूलक) नहीं होती, वैसे ही सभी सेक्सिस्ट चर्चा कामुक नहीं हो सकती. लिहाजा, सेक्सिज्म से लड़ा जाना चाहिए, न कि सेक्स से. सेंसर विरोधी नारीवादी बार-बार उन आंकड़ों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं जिनमें हिंसा और पोर्नोग्राफी में कोई संबंध नजर नहीं आता. इनमें वे आंकड़े भी हैं जिनका इस्तेमाल कट्टर नारीवादी अपने मत के समर्थन में करते हैं. इसकी पुष्टि में वे 1987 के एक अध्ययन को पेश करते हैं जिसका विषय था-'क्या पोर्नोग्राफी का कारोबार करने वालों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए?' हम तो ऐसा नहीं मानते. बल्कि हमारी राय में तो समझदारी भरा कदम यह होना चाहिए कि शैक्षिक कार्यक्रमों का विकास किया जाए, जो दर्शकों को ऐसे माध्यमों का समझदारी से प्रयोग सिखाए.{mospagebreak}भारत में पोर्नोग्राफी आम है लेकिन आम तौर पर इसकी चर्चा गुपचुप ही की जाती है. इस पर किसी भी तरह की सार्वजनिक बहस पर उन्मादी प्रतिक्रिया होती है. 1996 में फिल्म निर्माता महेश भट्ट ने बयान दिया था कि पोर्नोग्राफी देखने के इच्छुक लोगों को ऐसा करने का अधिकार है. इससे कुछ सामाजिक और महिला संगठन उत्तेजित हो गए और एफटीआइआइ (पुणे) की गवर्निंग काउंसिल से भट्ट को हटाने की मांग कर डाली. इसी तरह केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष दिवंगत फिल्म निर्माता विजय आनंद ने भी सुझव दिया था कि वयस्क फिल्में दिखाने के लिए अलग थिएटर होने चाहिए, तो उन्हें भी इस बयान की कीमत अपना इस्तीफा देकर चुकानी पड़ी थी.
समलैंगिकता का बदलता स्वरुप
कहा जाता है कि सेक्स के बारे में चर्चा और लिखा जाना ही यह तय करता है कि सेक्स को किस रूप में लिया जाता है. कामुकता को दिए गए अर्थ सामाजिक दृष्टि से मान्य होते हैं और दवाओं, मनोविज्ञान, धर्म, नैतिक संबंधों, कानूनों, सामाजिक और सांस्कृतिक रस्म-रिवाजों में कई तरह की भाषाओं के माध्यम से गुंथे होते हैं. मनुष्य की कामुकता की भाषा और आंदोलनों का इतिहास बताता है कि अपनी निज पहचान की मान्यता बदलते संदर्भों के अनुसार बदलती रहती है. मिसाल के तौर पर विचित्र या संदिग्ध कामुकता का जटिल इतिहास रहा है. पहले यह एक सामाजिक कलंक और निजी अभिव्यक्ति के रूप में उभरी. तो '70 के दशक के समलैंगिक उदारवादियों ने स्व के प्रति घृणा का आभास देते इसके अर्थ के चलते इसका परित्याग कर दिया. तो '90 के दशक में यह फिर उभरी, एक नितांत अलग अर्थ-विपरीत की जगह अपने लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षण-की परिभाषा के रूप में.
'वेश्या' नहीं सेक्स वर्कर कहो
इसी तरह दरबार महिला समन्वय समिति की सेक्स वर्कर 'वेश्या' शब्द को चुनौती देने के लिए खुद को सेक्स वर्कर कहलाना अधिक पसंद करती हैं. जैसाकि उनके विज्ञापन (परचे) में कहा गया है-वेश्यावृत्ति शब्द को ''शायद ही एक ऐसे पेशेवरों के समूह के रूप में लिया जाता है, जो यौन सेवाएं देकर अपनी आजीविका चलाती हैं बल्कि इसे ऐसे समूह के (खास तौर से महिलाओं के) रूप में पेश किया जाता है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य, यौन नैतिकता और सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरा है.'' यौन सेवाओं को एक श्रम के रूप में मान्यता दिलवाने के लिए ये लोग एक श्रम संगठन का गठन करने की मांग कर रही हैं.
वुमन इन प्रोस्टीट्यूशन
दूसरी ओर महाराष्ट्र के सांगली जिले में वेश्या एड्स मुकाबला परिषद (वैम्प) के सेक्स वर्कर खुद को 'वुमन इन प्रोस्टीट्यूशन' कहती हैं और खुद को एक धंधे में लगा हुआ मानती हैं, जिसे किसी पेशे के रूप में मान्यता नहीं मिली है. इस विशिष्टता का सर्वाधिक उपयोगी हिस्सा यह है कि यह लोगों को यह मानने को बाध्य करता है कि महिलाएं इस पेशे में आती-जाती रहती हैं, और यह बात दूसरे पेशों से अलग नहीं है. यानी, स्व-परिचय अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग तरह से दिया जा सकता है.
कामुकता की जटिलता
यदि हम कामुकता को इसकी सभी जटिलताओं में देखें तो हम पाएंगे कि हमारे पास उपलब्ध शब्द भंडार और समझ बहुत सीमित है. लिहाजा, यह महत्वपूर्ण है कि खुले दिलो-दिमाग वाले सेक्स सर्वेक्षण पुराने जमाने की 'एडल्ट्री' (अवैध संबंध) जैसी अभिव्यक्तियों को छोड़ दें और 'सनक भरे' (किंकी) सेक्स और 'कुंआरी' जैसे शब्दों की जगह ऐसी शब्दावली को चुनें जो लांछन और नैतिकतावाद से मुक्त हो. कामुकता के अध्ययन और सर्वेक्षणों को यदि समाज में फैली जटिल लैंगिक विविधता को समझना है तो अपने लिंग दायरे को 'ट्रांसजेंडर' (परालैंगिकता) तक फैला लेना चाहिए.
कानों के बीच स्थित होते हैं सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग
महाभारत के पात्रों की तरह दुनिया को पुरुष और स्त्री में ही नहीं बांटा जा सकता. हमारा शरीर हमारे लिंग और हमारी कामुकता का संकेत भर है. शेष के लिए विद्वान कारोल वांस के समझदारी भरे निष्कर्ष को याद करना जरूरी है कि ''मनुष्यों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग कानों के बीच में स्थित होते हैं.''
लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में ए.जे.के. मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर में जाकिर 'सैन चेयर प्रोफेसर हैं.