तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लंबे-चौड़े भाषण
अतीत का दुःख तथा भविष्य के सपने
वर्तमान का पता नहीं.
इसके [वर्तमान] अतिरिक्त न जानें क्या-क्या
क्या बदला हमारे बीच, कुछ नहीं
सब पुराने ढर्रे पर.
हां, दिवस में एक नाम और जुड़ गया
मिल गए घंटों परिचर्चा के, बहसों के
चाय की चुस्कियों के.
जिनकी समस्या वही नदारद
वो जिनकी पैदावार ही इसलिए होती है की
वे रसोई और बिस्तर से ज्यादा न सोचें
वंश बढाएं और अपने बनाये खाने की तारीफ़ सुनें
और मान लें की इससे ज्यादा प्रशंसा
किसी चीज़ से नहीं मिल सकती
किसी भी चीज़ से नहीं.
सशक्त महिलाओं की सभा समाप्त
वे लौट पड़ीं
अगली बार फ़िर
सशक्तिकरण दिवस
सशक्त तरीके से मनाने का प्रण लेकर.
ये कविता हमें क्षमा सिंह ने भेजी है. वे काशी हिंदू विश्वविदयालय में शोध छात्रा हैं.