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मौज-मस्‍ती के रूप में बढ़ रहे हैं अंतरंग संबंध

जड़ासक्ति या कामोत्तेजक वस्तुओं (फीटिश) के विचार की वंशावली काफी दिलचस्प है. यह यूरोप की सीमाओं से परे की 'पुरातन संस्कृतियों' के साथ यूरोप के जुड़ाव और साथ ही साथ इसकी सीमाओं में अत्यधिक व्याप्त 'अविवेकी' सोच का उत्पाद है.

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जड़ासक्ति या कामोत्तेजक वस्तुओं (फीटिश) के विचार की वंशावली काफी दिलचस्प है. यह यूरोप की सीमाओं से परे की 'पुरातन संस्कृतियों' के साथ यूरोप के जुड़ाव और साथ ही साथ इसकी सीमाओं में अत्यधिक व्याप्त 'अविवेकी' सोच का उत्पाद है.

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बाद के मामले में, सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के निर्यातक, व्यापारी, नाविक और दूसरे लोग अफ्रीकियों की दैवीय और जादुई ताकतों से जुड़ी वस्तुओं की शानदार कहानियां संग लेकर आते थे. यह बात तब की है जब यूरोप द्वारा अफ्रीकी इलाकों की लूट शुरू नहीं हुई थी, लेकिन अफ्रीकियों के 'अविवेक' और बच्चों जैसे व्यवहार-जिसने बाद में उपनिवेशवाद की सफाई के अहम पहलू का रूप अख्तियार कर लिया-की कहानियों ने आकार लेना शुरू कर दिया था. श्रद्धा, सम्मोहन और ताबीज से जुड़ी कुछ अफ्रीकी वस्तुएं बाद में कामोत्तजक वस्तुओं-पुर्तगाली शब्द फीटिश' जिसका अर्थ कृत्रिम है-के रूप में पहचानी जाने लगीं. कामोत्तेजक वस्तुओं की गति ने कार्ल मार्क्स के लेखन में एक अलग तरह का नाटकीय मोड़ ले लिया. मार्क्स के उपयोगी वस्तुओं के जड़ासक्तिवाद के विचार का उद्देश्य पूंजीवादी विचार की अतार्किकता को उजागर करना था जो स्वयं के जीवन की उपयोग की वस्तुओं और धन के रंग में रंगा हुआ था. मार्क्स के कहने के मायने यह थे कि यूरोपीय लोग तार्किकता के अपने लाख दावों के बावजूद अपनी सोच से अनगढ़ हो सकते हैं. आगे कहें तो, उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला वह यह था कि अफ्रीका का पुरातनवाद एक निचले दर्जे की सोच था.

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यूरोपीय यौन विज्ञानियों-इनमें सबसे प्रसिद्ध हैवलॉक एलिस (1859-1939) हैं-के लेखनों की लंबी सूची के जरिए जड़ासक्ति उस व्यवहार से जुड़ गई जहां वस्तुएं (उदाहरण के लिए दस्तानों का जोड़ा), या शरीर के अंग (कह सकते हैं पैर), जो स्पष्ट तौर पर किसी तरह से सेक्सुअल नहीं लगते, कामोद्दीपक महत्व की हो गईं. जड़ासक्तिवाद या कामोत्तेजक वस्तुओं संबंधी व्यवहार पर, अपारंपरिक, नासमझी, मनोविकृति, कम लैंगिकता, अव्यवस्था और अधोगति सरीखे शब्दों के जरिए विचार किया जाता रहा है. जड़ासक्ति और जड़ासक्तिवादी जल्द ही इलाज संबंधी प्रक्रिया की वस्तु बन गएः आप इसे एक अलग तरह का उपनिवेशवाद भी कह सकते हैं. जड़ासक्ति के इस इतिहास को मानव मानस के 'अंधकारमय महाद्वीप' के तौर पर देखा जाता है, सेक्स सर्वे 2009 हमें भ्रष्ट और असंगत की परिभाषा के बारे में संभावित बदलावों को लेकर सोचने के लिए मजबूर कर सकता है.

सर्वे पर चर्चा करने से पहले दो पहलू याद रखने की जरूरत है. पहला, सर्वे सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवहारों को आंकने के भ्रमात्मक उपकरण भी हो सकते हैं. कोई विशेष सवाल यह कहकर पूछना, ''यह सवाल काफी जरूरी है', इससे एक ऐसी दुनिया का भाव पैदा होता है जो पहले थी ही नहीं. दूसरा, जब सेक्स के बारे में सोचते हैं तो वैश्वीकरण और उपभोक्तावादी आधुनिकता का मौजूदा परिदृश्य काफी अहम हो जाता है. आज पहले से कहीं ज्‍यादा हमारे जीवन में 'विकल्पों की दुनिया'का विचार अहम भूमिका निभा रहा है. यही वह संदर्भ है जहां भारतीय लैंगिक संस्कृति धीमे तौर पर ही सही, लेकिन निश्चित तौर पर सरकार की पंचवर्षीय योजना के 'परिवार नियोजन' परिप्रेक्ष्य से आगे बढ़े 'सेक्स मौज-मस्ती की चीज' वाले बाजार के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर रही है. {mospagebreak}सेक्स को मौज-मस्ती (संतानोत्पत्ति से हटकर) के तौर पर देखने का विचार सर्वे के दौरान जड़ासक्ति या कामोत्तेजक वस्तुओं के शीर्षक में पूछे गए सवालों का मूल है. ऐसे में समकालीन भारतीय समाज में हो रहा यह सबसे महत्वपूर्ण बदलाव हैः मध्यवर्गीय महिलाओं और पुरुषों की गर्भाधारण से आगे की दुनिया रचने और लैंगिक-राष्ट्रवाद से आगे का जीवन जीने की इच्छा. संभवतः नए संसार में प्रवेश करने की चाह की झलक हमें उनके द्वारा दिए गए जवाबों में मिलती है, जैसे यौन संबंधों के दौरान कोई भूमिका अदा करने की फंतासी को लेकर. सर्वे में शामिल हुई महिलाओं में से 90 फीसदी ने कहा कि उन्होंने यौन संबंधों के दौरान कोई भूमिका अदा करने का खेल कभी नहीं आजमाया जबकि 23 फीसदी ने माना कि उन्होंने अपने सहभागी के लिए एक अजनबी की भूमिका अदा करने की कल्पना की है. इसी तरह 81 फीसदी पुरुषों ने इस सवाल का जवाब नकारात्मक दिया है, 27 फीसदी ने कहा कि वे अजनबी बन जाने की फंतासी पाले हुए हैं. अगर शहर विशेष की बात करें तो, दिल्ली की 40 फीसदी और लुधियाना की 21 फीसदी महिलाओं ने माना है कि उन्होंने यौन संबंधों के दौरान अजनबी की भूमिका निभाई है. मजेदार बात यह कि दिल्ली और लुधियाना के 16 फीसदी पुरुषों ने माना कि उन्होंने अजनबी की भूमिका अदा की है.

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इस संदर्भ में हमें तीन चीजों (या कम-से-कम तीन) का अनुमान लगाना होगा. पहला, हमारे सामाजिक नियम इस बात पर जोर देते हैं कि हमें उनसे शादी करनी चाहिए जो हमारी जैसी पृष्ठभूमि (कह सकते हैं कि वर्ग और जाति के संदर्भ में) रखते हैं, लेकिन अब इस बात को स्वीकार करने में काफी खुलापन दिख रहा है कि श्रृंगारात्मक जीवन सामाजिक कायदे-कानूनों से संचालित नहीं होता. दूसरा, इससे विवाह सरीखे अंतरंग संबंधों की जटिल प्रकृति को स्पष्ट करने की व्यापक इच्छा प्रकट हो सकती है. अगर यह सच है, तो हम प्यार और विवाह की सेतमेंत में ली जाने वाली धारणाओं के प्रति उभर रहे अधिक आलोचनात्मक रुख के बारे में कुछ (सतर्क) निष्कर्ष निकाल सकते हैं. अंततः अगर हम उदाहरण के लिए दिल्ली और लुधियाना के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो इस बात के संकेत मिलते हैं कि बड़ी संख्या में महिलाएं (पहले की अपेक्षा और इन शहरों में रहने वाले पुरुषों की तुलना में) यौन संबंधों के बारे में सोचने के दौरान आनंद के बारे में सोचने लगी हैं. महिलाओं की मुख्यधारा की कई हिंदी पत्रिकाओं में महिलाओं की लैंगिकता को लेकर स्पष्ट चर्चा संभवतः इस बात का संकेत है कि भारत में यौन संबंधों में रुचि न रखने वाली माताओं की संख्या में कमी आ रही है, और मसलन, राखी के स्वयंवर से पारंपरिक आधुनिकता की राहें प्रशस्त हो रही हैं.

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पारंपरिक आधुनिकता का विचार हमें कई जवाबों में परस्पर विरोधाभास के बारे में सोचने पर विवश करता है. मसलन, हम इस तथ्य के साथ कैसे सामंजस्य बैठाएंगे कि जहां अधिकतर औरतें भूमिका अदा करने के बारे में सोचती हैं (यानी यौन संबंधों का आनंद दोगुना करने के लिए), वहीं सर्वे में ऐसी महिलाओं की बड़ी संख्या है-बंगलुरू में 30 फीसदी, लुधियाना में 23 फीसदी, और मुंबई में 10 फीसदी- जो यह स्वीकार करती हैं कि उन्होंने अपने सहभागी द्वारा बलात्कार किए जाने की कल्पना की है. आगे बढ़ें तो बंगलुरू की 30 फीसदी महिलाओं ने कहा है कि उन्होंने बलात्कार संबंधी अपनी फंतासी को अमलीजामा पहनाया है, वहीं लुधियाना और मुंबई के लिए यह आंकड़ा क्रमशः 29 फीसदी और 5 फीसदी है. संभवतः मुंबई की महिलाओं ने अपनी बात पर दोबारा सोचा, लेकिन बंगलुरू और लुधियाना के मामलों में ऐसा नहीं था. क्या मर्दाना ताकत की कल्पनाएं-ऐसी विशेषताएं जो सविता भाभी कार्टून चरित्र में काफी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई गईं-आज भी महिलाओं के जीवन में भूमिका अदा कर रही हैं? भविष्य में किए जाने वाले सर्वे में एक और अन्य जटिल कारक पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है. इसलिए कि महिलाओं ने न सिर्फ बलात्कार किए जाने के सवाल के जवाब दिए, बल्कि दूसरे सवाल के भी उत्तर दिए जिसमें पूछा गया था कि क्या उन्होंने सहभागी पर बलात्कार करने की कभी कल्पना की हैः क्या वे अनिवार्य रूप से इतरलिंगी संबंधों के बारे में सोच रही हैं? चाहे जो बात हो, जवाब परेशान कर देने वाले हैं.{mospagebreak}हमें उन पुरुषों की संख्या भी विचार करने को मजबूर कर सकती है जो अपने सहभागी पर बलात्कार करने की कल्पना करते हैं: कुल 29 फीसदी, बंगलुरू में 56 फीसदी, मुंबई में 33 फीसदी और हैदराबाद में 29 फीसदी. क्या यह बलात्कार को लेकर एक राष्ट्रीय फंतासी है जिसे बराबर संख्या में स्त्री और पुरुष साझा करते हैं? और, क्या इसका महिलाओं की स्थिति में (धीमे) हो रहे परिवर्तन से वास्तव में कोई लेना-देना है जो बदले में शक्ति के स्थापित संबंधों से आक्रामक प्रतिक्रिया को बुलावा दे रहा है? या अक्षरशः यह ताकत ही कामोत्तेजक है और जो कामुक संस्कृति के निर्माण में अहम भूमिका अदा कर रही है? आखिरकार, इस सब के बावजूद, क्या ऐसा नहीं है कि भारतीय वैश्वीकरण के सबसे मुखर चेहरे बंगलुरू को बलात्कार की फंतासी के मामले में सर्वाधिक ऊंचा आंकड़ा दर्ज कराना चाहिए था.

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अंतरंग क्षणों में सेक्स के खिलौनों (टॉयज) के बारे में सोचने या उनका प्रयोग करने वाली महिलाओं का आंकड़ा सभी शहरों में काफी मामूली हैः क्रमशः 5 फीसदी और 9 फीसदी. शायद दोनों ही वर्गों (सोचती हैं/प्रयोग किया) में उन शहरों की महिलाओं की संख्या अधिक है जहां इन खिलौनों तक उनकी पहुंच आसान हैः मुंबई और हैदराबाद. अहम बात यह भी है कि सेक्स खिलौनों का प्रयोग करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं की संख्या उनका प्रयोग करने वाली महिलाओं से अधिक है. कुल मिलाकर ऐसे पुरुषों की संख्या का प्रतिशत भी काफी है जो सेक्स खिलौनों का प्रयोग कर चुके हैं या करने के बारे में सोचते हैं. अधिकतर शहरों में, प्रयोग कर चुके पुरुषों की बजाए प्रयोग करने के बारे में सोचने वाले पुरुषों की संख्या अधिक है. किसी समय सेक्स खिलौनों को लेकर हौव्वा अब कम होता जा रहा है, और महिलाओं में यह रुझान खासा दिलचस्प है. पहली बात, इससे पता चलता है कि पुरुष केंद्रित (इतरलिंगी) लैंगिक संस्कृति के उस गढ़ में दरार पड़ गई है, जहां पुरुष आनंद का स्व-नियंत्रित और विशिष्ट प्रतिनिधि होता था. साथ ही, इससे उपभोक्ता संस्कृति के अंतरराष्ट्रीयकरण की झलक भी मिलती है, जहां उपभोग की वस्तुओं को आनंद के मार्ग के रूप में देखा जा रहा है, और सेक्स खिलौने इस रुख को सीधे ही अपनाने को रेखांकित करते हैं.

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उस सामग्री का क्या जो सेक्स खिलौनों की अपेक्षा आसानी से हासिल की जा सकती है? चॉकलेट सॉस, बर्फ, आइसक्रीम और शहद भी यौन संबंधों की सबसे अधिक पसंद की जाने वाली सहायक सामग्री के तौर नजर आते हैं. हालांकि सर्वे में शामिल महिलाओं ने इसे लेकर बहुत ज्‍यादा रुचि नहीं दिखाई है (देश भर में 9 से 11 फीसदी के बीच) संभवतः ऐसा शारीरिक जरूरतों संबंधी अर्थव्यवस्था का आर्थिक हालात से सामना होने के कारण है, ऐसे में जीत आर्थिक स्थिति की ही होती हैः अगर इनकी कीमत देखी जाए तो चॉकलेट सॉस और आइसक्रीम खाने में ज्‍यादा संतोष देंगी. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि अत्यधिक खर्च योग्य आय के चलते मुंबई की महिलाएं चॉकलेट सॉस को आइसक्रीम की टॉपिंग के अलावा कहीं और प्रयोग करने के बारे में भी बखूबी जानती हैं. कुल मिलाकर, अधिकतर पुरुष चिपचिपे खाद्य पदार्थों को अपनी यौन संबंधी रूटीन (शायद रूटीन शब्द सही नहीं है) का हिस्सा बना चुके हैं, बनाने का विचार रखते हैं. दिल्ली और जयपुर में इनका प्रतिशत (क्रमशः 36 फीसदी और 26 फीसदी) सर्वाधिक है. इलायची और हलवा जैसी देसी वस्तुएं पुरुष या महिलाओं में ज्‍यादा रंग नहीं जमा पाईं (जैसा कई शहरों में बर्फ ने किया). शायद 'अच्छे सेक्स' का विचार राष्ट्रीय सीमाओं से परे होने से ज्‍यादा जुड़ा हुआ है, ऐसे में चॉकलेट और आइसक्रीम सरीखी वैश्विक वस्तुएं ज्‍यादा मांग में हैं: तो हलवा 'परंपरा' से जुड़ाव दिखाने को एकदम उपयुक्त रहेगा, लेकिन लैंगिक आधुनिकता की दरकार उत्तर-हलवा की समझ की है.{mospagebreak} उत्तर-हलवा समझ की बात करते हुए, बॉन्डेज (बंधन) और डिसिप्लीन सैडोमैसोचिस्म (अनुशासन और दर्द के जरिए आनंदानुभूति) (बीडीएसएम) सरीखी क्रियाओं का क्या जो पश्चिम की देन हैं?  महिलाओं की अपेक्षा उन पुरुषों की संख्या (7 फीसदी और 21 फीसदी) अधिक है जो बीडीएसएम को आजमाना चाहेंगे. शायद महिलाओं को लगता है कि वे अपने रोजमर्रा के जीवन में पहले से ही पुरुष बंधन और अनुशासन का काफी बोझ ढो रही हैं. हालांकि इस बात की जानकारी नहीं मिलती है कि आखिर क्यों कोलकाता के पुरुष और महिलाओं ने इसे लेकर अतिउत्साह दिखाया हैः यहां के 69 फीसदी पुरुषों और 25 फीसदी महिलाओं ने इसे आजमाने की बात स्वीकार की. मातहती का विचार हमें सर्वे के एक और हिस्से में ले जाता है, जो उस अंतरंग संबंधों से जुड़ा है जिसकी चाह स्त्री और पुरुष दोनों को रहती है. शुरुआत करें, मुख मैथुन की सूचना से. मुख मैथुन करने वाले पुरुषोंकी संख्या (64 फीसदी) महिलाओं (43 फीसदी) से ज्‍यादा है, जबकि इसकी कल्पना करने के मामले में भी महिलाओं (32 फीसदी) की अपेक्षा पुरुषों (58 फीसदी) की संख्या ज्‍यादा है. ऐसे में, पता चलता है कि पुरुष महिलाओं की अपेक्षा अपनी अधिक चला रहे हैं, और महिलाएं इसे आजमाने को लेकर इसलिए कम उत्साही हैं क्योंकि इस पर उनके सहभागी की ओर से कोई उत्साही प्रतिक्रिया नहीं मिलती या उनसे झाड़ मिलती है. हालांकि एक अन्य सवाल के जवाब में, 46 फीसदी पुरुषों और 49 फीसदी महिलाओं ने कहा है कि वे चाहेंगे कि यौन संबंधी गतिविधियों में एक के हाथ में कमान रहने के बजाए दोनों ही सहभागी बराबर की भागीदारी करें. इसीलिए पटना के 61 फीसदी पुरुष और कोलकाता के 78 फीसदी पुरुष बराबर की भागीदारी में यकीन रखते हैं.

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ऐसे 'अंधकारमय महाद्वीप' के रूप में जड़ासक्ति के विचार का क्या, जिसे हमने शुरू में उठाया था? अगर एक निष्कर्ष पर पहुंचें तो वह यह होगा कि सर्वे से हमें निजी बातों की चर्चा करने के दौरान सहजता के स्तर का पता चलता है जिसे पहले काफी अनैतिक या गलत माना जाता था. यह पुनर्विचार की एक प्रक्रिया भी है जोकि पथभ्रष्ट और सामान्य व्यवहार का निर्माण करती है. संभवतः श्वेत-श्याम के मायनों से अलग यह दूसरों और अपने बारे में सोचने की दिशा में पहला कदम हो सकती है.

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनॉमिक ग्रोथ में सोशियोलॉजी के प्रोफेसर हैं.

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