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आधुनिक जीवनशैली से बोदा बनता बचपन

बहुत ज्‍यादा टीवी देखने की आदत, कंप्यूटर गेम और जंक फूड शहरी बच्चों को बना रहे हैं सुस्त और बोदे.

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अपनी मेज से चिपके रहने वाले या फिर बर्गर और कोला के बीच फंसे रहने वाले, निष्क्रिय जीवन शैली के शिकार बच्चों को उपभोक्ताओं के बीच आसानी से पहचाना जा सकता है. लेकिन जब बच्चे में निष्क्रियता के लक्षण नजर आने लगें तो समझ लीजिए कि अब समय आ गया है कि सोफे में धंसे लोग तन कर बैठ जाएं और अपने माथे पर चिंता के बल डाल लें.

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इस साल नवंबर माह के शुरू में एक चिंतित अभिभावक बाल रोग विशेषज्ञ रमेश कांचारला के क्लीनिक में आए. कांचारला हैदराबाद में बच्चों के रेनबो श्रृंखला के अस्पतालों के संस्थापक भी हैं. बच्चे की चिंतित मां ने बताया, ''मेरी बेटी नौ महीने की हो चुकी है लेकिन आम बच्चों की तरह अभी तक उसने घुटनों के बल चलना शुरू नहीं किया है. हालांकि वह बहुत ही सक्रिय और खुशमिजाज है.'' कांचारला को यह समझने में वक्त नहीं लगा कि बच्ची के साथ समस्या क्या है. उनके मुताबिक, ''आजकल यह आम बात है. बच्चे आखिर किस चीज के लिए, किस वस्तु को पाने के लिए घुटनों के बल रेंगेंग? उनके सारे खिलौने तो अचल होते हैं और महज एक बटन दबाने भर से काम करने लगते हैं.''

{mospagebreak}शारीरिक सक्रियता की कमी सबसे ज्‍यादा आम है 4 से 12 वर्ष के आयुवर्ग के बच्चों में. यह बचपन में मोटापे के रूप में सामने आती है. इस किस्म के बच्चों का ज्‍यादातर समय टीवी, कंप्यूटर या गेमिंग कन्सोल के आगे बैठे-बैठे और जंक फूड खाते हुए बीतता है. कांचारला, जो गैस्ट्रो एंट्रोलॉजिस्ट होने के साथ-साथ बच्चों के लीवर के रोगों के विशेषज्ञ भी हैं, कहते हैं, ''हमारे पास हर दिन बालपन में मोटापे के कम-से-कम दो मामले तो आते ही हैं, जबकि पांच साल पहले तक यह आंकड़ा हफ्ते में दो या तीन मामलों तक सीमित था.''

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एक अनुमान के मुताबिक प्रमुख महानगरों के स्कूल जाने वाले 20 फीसदी बच्चे या तो मोटापे या मोटापे से संबंधित लक्षणों से ग्रस्त हैं. सेहत पर पड़ने वाले अनेक दुष्प्रभावों में से एक है सामान्य से अधिक वजन. पुणे में चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक डॉ. संदीप साल्वी का कहना है, ''पिछले पांच सालों में अकेले पुणे में ही दमे से प्रभावित बच्चों की संख्या दोगुनी हो चुकी है.'' वे इस निष्कर्ष पर उस शोध के जरिए पहुंचे हैं, जो उनकी संस्था ने पिछले साल शहर में किया था. साल्वी के मुताबिक, दूसरे शहरों की स्थिति कुछ खास भिन्न नहीं होगी. दमा के उपचार में काम करने वाली एक बड़ी दवा कंपनी सिप्ला के प्रमुख वित्त अधिकारी एस. राधाकृष्णन कहते हैं, ''भारत में लगभग हर दस बच्चे में से एक को दमा है. स्कूल से उनकी अनुपस्थिति का यह एक प्रमुख कारण है.''

{mospagebreak}दमा के कारण हैं: बढ़ता वायु प्रदूषण और घटती शारीरिक सक्रियता. निष्क्रियता की वजह से फेफड़ों का पर्याप्त व्यायाम नहीं हो पाता. तैलीय जंक फूड में मौजूद वसायुक्त तेल, प्रिजर्वेटिव और फूड एडीटिव समस्या को और बढ़ा रहे हैं. उस पर, बच्चों की ओर जरूरत से ज्‍यादा ध्यान देने वाले माता-पिता (खासतौर पर वे जिनकी इकलौती संतान है) बच्चे को घर से बाहर खेलने नहीं देना चाहते और एक छींक आने पर एंटीबायटिक दवाओं की खुराक शुरू कर देते हैं. ऐसे अभिभावक बच्चों में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने ही नहीं देते.

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बच्चों की ज्‍यादातर समस्याएं मन तथा शरीर से संबंधित होती हैं, जो टीवी पर अनुचित चीजें देखने के कारण या बच्चे की ओर अभिभावकों के ध्यान नहीं देने के कारण या साथियों के दबाव के कारण विकसित होती हैं और यह आचरण संबंधी समस्याओं के रूप में सामने आ सकती है. नवी मुंबई के सबसे पुराने निजी मेडिकल कॉलेजों में से एक टेरना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में सहायक प्राध्यापक और न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट डॉ. नीरज रवानी कहते हैं, ''अभिभावकों की शिकायत होती है कि बच्चे उनकी सुनते नहीं, झल्‍लाते रहते हैं और साथियों के दवाब के कारण मांगें रखते हैं.'' रवानी का मानना है कि आचरण संबंधी समस्याएं खासतौर से उन बच्चों में होती है जो कामकाजी माता-पिता की इकलौती संतान हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अभिभावकों के पास न धैर्य होता है और न ही चर्चा करने या समाधान निकालने का समय और इस तरह के अभिभावक घर में शांति बनाए रखने के लिए बच्चे की बदमिजाजी के आगे हथियार डाल देते हैं. हां, संयुक्त परिवार की भी अपनी समस्याएं हैं जैसे, बच्चों का जरूरत से ज्‍यादा लाड़ करना और उनको कुछ ज्‍यादा ही संरक्षण में रखना, जिसकी शुरुआत आमतौर पर दादा-दादी की ओर से होती है.

{mospagebreak}कुछ मामलों में, दूसरों के स्तर का मुकाबले करने के इच्छुक माता-पिता जाने-अनजाने अपने बच्चों में भी यही आदत डाल देते हैं. हैदराबाद के बाल तथा किशोर मनोचिकित्सक डॉ. कल्याण चक्रवर्ती कहते हैं, ''जब अभिभावक हर उस चीज को खरीदना चाहते हैं जो उनके पड़ोसी के पास नहीं है, तो इस तरह वे अपने बच्चों में कभी संतुष्ट नहीं रहने की और बाजार में आने वाली हर नई वस्तु का इंतजार करने की प्रवृत्ति विकसित कर देते हैं.'' साफ तौर से, आज की पीढ़ी-अभिभावक और बच्चे-बाजार में मौजूद विकल्पों का फायदा तो उठा रही है लेकिन दूसरा पहलू देखें तो पता चलता है कि विकल्प जितने ज्‍यादा होते हैं, उनके साथ-साथ उत्सुकता भी उतनी ही बढ़ती जाती है.

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बड़ी गलतियां
बच्चे बहुत अधिक उपभोग के शिकार हैं:
मोटापाः मोटे तौर पर देखा जाए तो महानगरों के स्कूल जाने वाले 20 फीसदी बच्चे मोटे हैं.
मोटापे से संबंधित लक्षणः कम रेशों और उच्च कैलोरी वाला भोजन-बर्गर, शीतल पेय, तैलीय वस्तुओं-के कारण कब्ज जैसी समस्या हो सकती है.
दमाः शहरों मे बढ़ता प्रदूषण और बदलती जीवन शैली तथा खान-पान की आदतों के कारण बच्चों में दमे के मामले बढ़ रहे हैं.
व्यवहार संबंधी समस्याएं: बच्चों (खासतौर से माता-पिता के इकलौते बच्चे को) को समय न दे पाने के कारण अभिभावक इसकी क्षतिपूर्ति करने की कोशिश करते हैं. मीडिया एक्सपोजर उन्हें बात न मानने वाला, मांगें रखने वाला और झल्‍लाने वाला बना देता है.

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