एक सड़क दुर्घटना में पूजाला विजया गौरी जब गंभीर तौर पर घायल हो गईं, तो उनके परिजन उन्हें फौरन हैदराबाद के कृष्णा इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ले गए, जहां डॉक्टरों ने उन्हें 'ब्रेन डेड' घोषित कर दिया. आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिले में स्कूल शिक्षिका गौरी के पति श्रीचलम ने, जो पुलिस उपाधीक्षक हैं, और उनकी दोनों पुत्रियों ने फैसला किया कि वे उनके गुर्दों, लीवर और आंखें दान करके उन्हें जीवित रखेंगे. गौरी के अंग निकालकर पांच जरूरतमंद मरीजों में प्रत्यारोपित कर दिए गए. श्रीचलम कहते हैं, ''अब मेरी पत्नी पांच और लोगों में जी रही है.''
ब्रेन डेड लोगों के अंग दान करना और मृत शरीरों से उन्हें निकालने देना उतना सरल नहीं है. 10,000 मौत में से एक से भी कम से प्रत्यारोपण के लिए उपयुक्त अंग मिल पाते हैं, जबकि जीवन को बचाने वाली इन प्रक्रियाओं की जिन्हें जबरदस्त जरूरत है, उनके लिए पर्याप्त अंगों के लिए लाखों लोगों को अपने सारे अंग दान करने के लिए सामने आना होगा. हर 13वें मिनट में प्रतीक्षा सूची में एक नाम और जुड़ जाता है. भारत में प्रत्यारोपण के लिए उपलब्ध अंगों की कमी के कारण प्रतिदिन 17 लोगों की मृत्यु हो जाती है, जबकि हर वर्ष सिर्फ 3,500 अंग प्रत्यारोपण-गुर्दे, हृदय और लीवर के-होते हैं और अंगों की कमी के कारण 1,00,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है.
मल्टी ऑर्गन हार्वेस्टिंग एड नेटवर्क ('मोहन') फाउंडेशन की कंट्री डायरेक्टर ललिता रघुराम कहती हैं, ''प्रत्यारोपण के लिए उपलब्ध अंगों की कमी की समस्या गंभीर होती जा रही है.''
जीवन शैली से संबंधित बीमारियों में वृद्धि होने के कारण भी मांग और आपूर्ति का अंतर बढ़ता जा रहा है. 'मोहन' के प्रबंध ट्रस्टी और चेन्नै स्थित यूरोलॉजिस्ट और प्रत्यारोपण सर्जन डॉ. सुनील श्रॉफ कहते हैं, ''डायबिटीज, हाइपरटेंशन, हिपेटाइटिस और अन्य गंभीर बीमारियों से ज्यादा से ज्यादा लोग पीड़ित होते जा रहे हैं, और इस कारण अंग के काम करना बंद कर देने के कारण मरने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी.'' इसके अलावा स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं की संख्या बढ़ने, और जिन अंगों और ऊतकों का प्रत्यारोपण हो सकता है, उनकी संख्या बढ़ने-अभी 37 अंगों और ऊतकों का प्रत्यारोपण संभव है-और प्रत्यारोपित अंगों को शरीर द्वारा नकारने की काट करने वाली बेहतर दवाइयों का आविष्कार होने से भी अंगों की मांग बढ़ती जा रही है. {mospagebreak}
भारत में अंग प्रत्यारोपण प्रक्रिया मानव अंग अधिनियम, 1994 से संचालित होती है, जिसका लक्ष्य मानव अंगों के व्यावसायिक सौदे से बचने और उपचार के उद्देश्यों से मानव अंगों को निकालने, संरक्षित करने और प्रत्यारोपित करने के लिए कानून उपलब्ध कराना है. उस कानून का सार यह है कि ब्रेन डेथ को भी मृत्यु की परिभाषा के तौर पर स्वीकार किया जाए, अंगों के व्यावसायिक सौदे को रोका जाए और उन प्रथम रिश्तेदारों (माता, पिता, भाई, बहन, बेटा, पुत्र, पुत्री और पत्नी) को परिभाषित किया जाए जो सरकार से अनुमति लिये बिना भी अंगों को दान करने का निर्णय ले सकते हैं.
कानून के अनुसार, कोई गैर-रिश्तेदार अगर अंग दान करना चाहे तो उसे किसी मजिस्ट्रेट की अदालत में शपथ पत्र देना होता है जिसमें यह कहा गया होता है कि अंगदान प्रेमवश किया जा रहा है. इसके बाद अंगदान करने वाले को तमाम परीक्षणों से गुजरना होता है, जिसके बाद जाकर वास्तविक प्रत्यारोपण संभव हो पाता है. इस उद्देश्य से स्थापित की गई प्राधिकार समिति यह सुनिश्चित करती है कि कानून के तहत जरूरी सारे दस्तावेज जमा करा दिए गए हैं. अगर पैसे का लेन-देन होता है, तो अंग देने वाले और अंग लेने वाले, दोनों को मुख्य अपराधी माना जाता है.
भारत में लगभग 98,000 संभावित अंगदानकर्ताओं के अंग प्रति वर्ष व्यर्थ जाते हैं. प्रति वर्ष 1,10,000 से ज्यादा लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं, जिनमें से 67 प्रतिशत मौतें 'ब्रेन डेथ' के कारण होती हैं. 'ब्रेन डेथ' को ठीक से न समझ् सकने के कारण भी अंग प्रत्यारोपण के मामलों की संख्या बढ़ नहीं पा रही है. 'ब्रेन डेथ' की अवस्था में हृदय धड़कता रहता है और वह शरीर के अंगों तक रक्त संचार करता रहता है.
'ब्रेन डेथ' होने और हृदय की धड़कन रुकने के बीच की संक्षिप्त अवधि में अंगों को निकालने की प्रक्रिया शुरू कर लेनी होती है. दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से, कई डॉक्टर भी यह नहीं जानते कि 'ब्रेन डेथ' की घोषणा कब करनी है. इसके अलावा 'ब्रेन डेथ' को चार डॉक्टरों द्वारा प्रमाणित किया जाना होता है, जिनमें से दो डॉक्टर एक सरकारी पैनल में से होने चाहिए, और इस कारण और देर होती है. अधिकांश डॉक्टर इस झ्हूंझ्ट में पड़ना नहीं चाहते, क्योंकि वे चाहते हैं कि अस्पताल का बिस्तर बाकी मरीजों के लिए जल्द से जल्द खाली हो जाए.{mospagebreak}
इसके अलावा, मृत शरीरों से अंग निकालने की प्रक्रिया को तेज करने के लिए बुनियादी व्यवस्था, विशेषज्ञता और संगठन के स्तर पर मौजूद भारी खाई को पाटना भी जरूरी है. एक गुर्दे को निकाले जाने के 48 घंटे तक प्रत्यारोपित किया जा सकता है, और लीवर को 12 घंटे के भीतर प्रत्यारोपित किया जा सकता है, लेकिन अन्य अंगों को और भी कम समय के भीतर प्रत्यारोपित करना होता है. लिहाजा, अस्पतालों के नेटवर्क के जरिए अंगदान करने वाले और अंगदान पाने वालों के बीच संपर्क स्थापित करना आवश्यक है. इसके लिए एक राष्ट्रीय पंजीकरण शुरू करना होगा. कुछ ही अस्पतालों में पर्याप्त विशेषज्ञता है-अंग निकालने में विशेषज्ञ सर्जन, शोक संतप्त परिवारों को अंगदान का महत्व और मूल्य समझ सकने वाले सलाहकार, और अंग को दूसरे शरीर द्वारा खारिज किए जाने की संभावना को कम से कम रखने के लिए अंगदान करने वाले और अंगदान पाने वालों के बीच तालमेल की सुविधाओं, मानव अंग अधिनियम को भी संशोधित करने की आवश्यकता है.
ग्लोबल हॉस्पिटल्स ग्रुप में लीवर प्रत्यारोपण विभाग के प्रमुख डॉ. मोहम्मद रेला कहते हैं, ''अंगदान करने के लिए आपका प्रत्यारोपण केंद्र पर मौजूद होना अनिवार्य नहीं होना चाहिए. सघन चिकित्सा इकाई (आइसीयू) और विशेषज्ञ डॉक्टरों वाले सारे अस्पतालों को अंग निकालने की अनुमति होनी चाहिए.'' इसके बाद क्षेत्रीय स्तर पर भी बाधाएं हैं. कुछ राज्य दान दिए गए अंगों के अंतरराज्यीय स्थानांतरण की अनुमति नहीं देते हैं.
पेशेवर चिकित्सकों का तर्क है कि अंगों की कमी के संकट से निबटने का हल मृत शरीरों से अंग निकालने में तेजी लाना है. अगर अंगदान की दर को मौजूदा 0.08 से बढ़ाकर 1 प्रति दस लाख जनसंख्या के स्तर तक ले आया जा सके, तो देश में जितने हृदय, लीवर और फेफड़ों की आवश्यकता है, उनकी पूर्ति हो सकेगी और किडनी की कमी भी कुछ हद तक दूर हो सकेगी. रेला कहते हैं, ''अगर 'ब्रेन डेथ' के कुल मामलों में से पांच प्रतिशत को भी काम में लाया जा सका, तो हम हजारों लोगों की जान बचा सकेंगे. भारत में प्रतिवर्ष 20,000 लीवर प्रत्यारोपणों की जरूरत है, जबकि वास्तव में सिर्फ 200-300 लीवर प्रत्यारोपण हो पाते हैं.''{mospagebreak}
मृत शरीरों से कम से कम नौ अंग निकाले जा सकते हैं और यह किसी जीवित अंगदानकर्ता से कहीं बेहतर है, जिसमें अधिकांशतः कोई रिश्तेदार एक अंग या, लीवर के मामले में, अंग का एक हिस्सा दान देता है. मृत शरीरों से अंग निकालने से अंगों के अवैध व्यापार पर भी रोक लगेगी. दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल के लीवर प्रत्यारोपण सर्जन डॉ. रवि मोहन्का कहते हैं, ''ठगी का धंधा इस कारण फल-फूल रहा है, क्योंकि अंग दान देने वाले डरे हुए होते हैं और मृत शरीर कम उपलब्ध होते हैं.''
तमिलनाडु में, जहां देश के एक तिहाई मृत शरीरों से निकाले गए अंगों का प्रत्यारोपण होता है, सरकार ने पिछले वर्ष एक आदेश पारित करके 34 अस्पतालों की नेटवर्किंग की और एक केंद्रीय अंग साझेदारी सूची स्थापित की, जिसमें इस बात का विवरण था कि अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता किसे है और कौन कितने समय से प्रतीक्षा कर रहा है. एक वर्ष में 40 मृत शरीरों से 140 अंग निकाले गए. सरकार ने 'ब्रेन डेथ' की घोषणा करने और मरीजों से अंगदान का आग्रह करने को भी अनिवार्य कर दिया है. इसके अलावा सरकार ने चेन्नै के स्टैनले अस्पताल को 5 करोड़ रु. भी दिए हैं ताकि एक पाइलट कैडेवर रखरखाव कार्यक्रम चलाया जा सके. अस्पताल अभी तक 9 मृत शरीरों से 54 अंग निकाल चुका है. ऐसी ही व्यवस्था आंध्र प्रदेश में स्थापित करने की प्रक्रिया चल रही है जबकि कर्नाटक और महाराष्ट्र अपने-अपने अंग साझेदारी नेटवर्क बना चुके हैं. मृत शरीरों के अंग दान करने में चार राज्य-तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र-अग्रणी हैं, जहां अंगदान करने की दर 0.3 प्रति दस लाख जनसंख्या है, जबकि राष्ट्रीय औसत 0.08 का है.
अंगों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए सरकार स्पेन से सबक ले सकती है, जहां यह मान कर चला जाता है कि सारे नागरिक अपनी मृत्यु के उपरांत स्वेच्छा से अंगदान कर रहे हैं, बशर्तें किसी ने विशेष तौर पर इनकार न किया हो. आज स्पेन मृत शरीरों से निकाले गए अंगों का दान करने में विश्व में अग्रणी है, जहां प्रति दस लाख जनसंख्या पर 34.4 अंग दान होते हैं. लेकिन इससे असहमत लोगों का तर्क है कि 'विशेष तौर पर इनकार' करने की प्रणाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश जैसा एहसास कराती है, जबकि 'अपनी ओर से सहमति जताने' की प्रणाली ज्यादा प्रोत्साहित करती है.{mospagebreak} स्पेनी मॉडल की जगह सरकार को ऐसी नीति जरूर बनानी चाहिए जिसमें ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, राशन कार्ड या यूनीक आइडी के लिए आवेदन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति से पूछा जाए कि वह मृत्यु उपरांत स्वेच्छा से अंगदान करने से 'विशेष तौर पर इनकार' करता है या 'अपनी ओर से सहमति जताता' है. हैदराबाद के एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ गैस्ट्रो-एंटरोलॉजी के अध्यक्ष डॉ. डी. नागेश्वर रेड्डी कहते है, ''विचार से इनकार करने की तुलना में सीधे न पर निशान लगाना कहीं कठिन होता है. इसके लिए उनको मजबूर भी नहीं किया जाता है.''
'विशेष तौर पर इनकार' करने की प्रणाली से अंगों की कमी पर तो निश्चित तौर पर असर पड़ेगा, लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं होगा. अधिकांश परिस्थितियों में, किसी अंग को प्रत्यारोपण के लायक होने के लिए उसे किसी ऐसे शरीर से निकाला गया होना चाहिए जो अपेक्षाकृत युवा हो और रोग मुक्त हो, जो किसी दुर्घटना में गंभीर तौर पर घायल हुआ हो, वेंटिलेटर पर रखा गया हो, और 'ब्रेन डेड' घोषित किया जा चुका हो. अगर अंग दान कर सकने वाला प्रत्येक व्यक्ति अंगदान करता है, तो भी इस तरीके से मरने वालों की संख्या इस कमी की पूर्ति करने के लिए काफी नहीं हो सकती है. ग्लोबल हॉस्पिटल्स के अध्यक्ष डॉ. के. रवींद्रनाथ कहते हैं. ''अंग प्रत्यारोपण को भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंडा में उसी तरह स्थान देना चाहिए जिस तरह पोलियो और एड्स के खिलाफ अभियान को दिया गया है.''
देश में अंग प्रत्यारोपण को सरल एवं कारगर बनाने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर अंग प्राप्त करने और उनके प्रत्यारोपण के केंद्र स्थापित करने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 1,500 करोड़ रु. खर्च करने का आश्वासन दिया है. लेकिन फिलहाल तो जिनकी जिंदगियां दान में अंग प्राप्त करने पर निर्भर हैं, उनके लिए यह कोई बड़ी राहत की बात नहीं है.