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बढ़ता नयनसुख: देखने-बताने का अनबूझ आनंद

वॉयोरिज्‍म (परोक्ष यौनाचार) और एक्जबिशनिज्‍म (अंग प्रदर्शन) की प्रवृत्ति, ऐसा लगता है कि भारत में स्वीकार्यता हासिल करती जा रही है.

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2004 में, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल के दो किशोरवय विद्यार्थियों के कुख्यात एमएमएस ने मुक्त यौनाचार, साइबर प्रौद्योगिकी, निजता, सेंसरशिप और परोक्ष यौनाचार या दूसरों के यौन अंगों और यौनाचार को देखकर तृप्त होने की प्रवृत्ति आदि को लेकर ढेर से सवाल उठाए थे जो आज भी अनुत्तरित हैं और इस पर बहस जारी है.

2009 में, अनुराग कश्यप ने अमूमन आदर से देखी जाने वाली देवदास की प्रेम कथा, उत्कट आकांक्षा और सदमे को होशियारी के साथ आज के संदर्भ में निर्देशित किया. उनकी देव डी में शहरी लेनी/चंदा (दिन में वह बढ़ती उम्र की चंचल स्कूली छात्रा होती है और रात को महंगी कालगर्ल बन जाती है) निश्चित रूप से राजधानी के स्कूली बच्चों के एमएमएस कांड से प्रेरित थी.

2009 में, टीवी का रियल्टी शो सच का सामना, जिसमें प्रतिभागी को उसके जीवन के बेहद अंतरंग क्षणों से जुड़े 21 प्रश्नों का सामना करने से पहले लाई डिटेक्टर से गुजरना होता था, भारी टीआरपी के साथ शुरू हुआ था लेकिन जल्द ही परोक्ष यौनाचार को बढ़ावा देने के विवाद में फंस गया.

2010 में, खासे चर्चित फिल्मकार दिबाकर बनर्जी अपनी नई प्रयोगात्मक फिल्म पूरी करेंगे जिसमें, जैसा कि वे कहते हैं, ''केंद्रीय विचार या मूड परोक्ष यौनाचार से तृप्ति ही है. हम कैमरे को शयनकक्ष से लेकर सीवर, नहर, हम्माम, बस, पिकनिक स्थल तक ले जाएंगे और इसे कमरे में लगे पंखे में भी लगाएंगे, यहां तक कि हैंडबैग, मेकऍप वैन या रेस्तरां तक में छिपाकर रखा जाएगा. कलाकार कैमरा घुमाएंगे.''


वॉयोरिज्‍म (परोक्ष यौनाचार) और एक्जबिशनिज्‍म (अंग प्रदर्शन) की प्रवृत्ति, ऐसा लगता है कि भारत में स्वीकार्यता हासिल करती जा रही है. एक पाशविक किस्म की उत्कंठा ने हालांकि इस कामुक अतिरेक और कामयाबी की माया से उत्पन्न होने वाले उन्मुक्त और सेलीब्रेटी किस्म के आभामंडल को ढक लिया है. दरअसल यह हकीकत है कि 21वीं सदी का भारत इसी गठजोड़ का शिकार हो गया हैः हम तेजी से आ रही नए और अनूठे तरह की उस मीडिया प्रौद्योगिकी के पीछे भाग रहे हैं जिसने दुनिया को हमारी हथेली पर लाकर रख दिया है.

अक्षरशः हम जीवन शैली की पंसदों जैसा कि कहा जा रहा है कि यह चौबीसों घंटे मीडिया साइट्स में उपलब्ध हैं, की अपरिमित संभावनाओं और आसन्न खतरे दोनों के बीच घिर गए हैं. यदि परोक्ष यौनाचार की तृप्ति का हमारा पुराना चलन जहां खिड़कियों की दरार से प्रेरित था जिसमें जटिल समय, अनुल्लंघनीय निजता और कामुक सुख के लिए नितांत व्यक्तिगत अंतरंगता जैसी चीजें अहम होती थीं, तो अब हम स्पष्ट रूप से एकदम नए किस्म के दरवाजे के सामने खड़े हैं जिसमें लगा की-होल हमें पूरे विस्तार के साथ वह दिखा सकता है जिससे हम हैरत में पड़ जाएं. और अब यह परोक्ष यौनाचार का दर्शन प्रदर्शन के लिए तैयार है.

परोक्ष यौनाचार देखने की प्रवृत्ति या नयनसुख को यौन विकार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें कोई व्यक्ति अंतनिर्हित या प्रकट रूप में यौन गतिविधियों में लिप्त किसी अन्य व्यक्ति को गुपचुप तरीके से देखकर यौन उत्तेजना, आनंद और/या संतुष्टि प्राप्त करता है जबकि अंग प्रदर्शन इसके उलट, जिसमें यौन गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति को उसे देखे जाने से आनंद और संतुष्टि मिलती है, वह भी तब जब वह काम रसिक की मौजूदगी से बेखबर होने का छल कर रहा हो. किसी व्यक्ति की यौन 'गतिविधि' को कैमरे में कैद करने और फिर दोस्तों या अजनबी के साथ इसका साझा करने जैसा कि एमएमएस कांडों में देखा गया, में निर्दोष से लेकर साजिश रचने वाले तक अनेक लोग शामिल होते हैं. और ज्ञान और सहमति की यह उलझन तय कर रहे हैं कि कैसे निजता के अधिकार, सेंसरशिप और किसी वयस्क के अधिकार, सहमति से होने वाली यौन गतिविधि जैसे कारक इस तरह के जटिल मेल-मिलाप में उलझते जा रहे हैं.

ब्रिटेन और कनाडा में जहां परोक्ष यौनाचार देखने की प्रवृत्ति अपराध है, वहीं भारत में यह प्रतिबंधित नहीं है जबकि इससे पीड़ित महिला का भारतीय दंड विधान के तहत बचाव किया जा सकता है. धारा 509 के तहत कोई भी दुराचार या कहें 'किसी महिला के शील का अपमान' और उसकी 'निजता' का 'अतिक्रमण' दंडनीय है और 2006 के सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम में इसका विस्तार कर विशेष रूप से ऐसी छवियों के प्रसारण जो कि 'छपे हुए रूप में या इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में' उसकी निजता का उल्लंघन करता हो, को सजा और जुर्माने के रूप में दंडनीय बनाया गया है.

प्रिंटेड के बजाए इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म ने हमारे साझा अस्तित्व के लिए आनंद और व्यथा दोनों उत्पन्न कर दी है और इस 'स्वर्ग' में यौन परिदृश्य से कहीं अधिक कहीं और रास्ते इतने उलझे हुए नहीं हैं. आज किसी अन्य व्यक्ति की गुप्त यौन गतिविधियों से संबंधित हर कल्पना जिसे कोई लुकछिप कर देखना चाहे, वह आज हमारे प्रौद्योगिकी से भरपूर लेकिन साफ तौर पर असंतुष्ट, वैश्विक अस्तित्व में महज एक स्पर्श (बटन) जितनी दूर है. तो क्या हम परोक्ष यौनाचार की प्रचुरता के एक नए रोग से फुसफुसाहट भर की दूरी पर हैं?

क्या परोक्ष यौनाचार का आनंद उठा रहे पुरुष या महिला को पता है कि वह ऐसा लाखों अन्य अनजाने लोगों के साथ ठीक उसी समय इसका साझा कर रहा है या फिर रतिक्रीड़ा के इस परोक्ष सुख में कोई रोमांच बचा है जिसके बारे में दूसरों को बताया जाए? क्या गोपनीय कामुक छायाओं की दुनिया के सेलफोन, लैपटॉप, डेस्कटॉप, टीवी और मल्टीप्लेक्स के स्क्रीन पर सिमट आने से परोक्ष यौनाचार की अनुभूति कमतर पड़ गई है या फिर हमें यौनाचार के अतिरेक से भरी दुनिया में बड़े हो रहे हमारे बच्चों के लिए अपने अनुभवों को फिर से परिभाषित करना होगा?{mospagebreak}परोक्ष यौनाचार से जुड़ा हमारा परम सुख, ऐसा लगता है कि 'वास्तविक' और 'कल्पनालोक' के विभिन्न रूपों में मौजूद है और यह की-होल से झांकने में नहीं बल्कि प्रौद्योगिकी में निहित है और प्रौद्योगिकी इसमें मदद भी कर रही है. और संभवतः ऐसा इसलिए है क्योंकि इसकी वैधता को प्रौद्योगिकी वहन कर पा रही है. 'स्लम वॉयोरिज्‍म' (मसलन, स्लमडॉग मिलिनेयर की तर्ज पर) और काम रसिक पर्यटक जैसे जुमलों का उभरना भी अंततः उस परिवर्तन को रेखांकित कर रहा है जिसमें काम रसिक के बारे में हमारी समझ बदल रही है. हम समझते थे कि काम रसिक यानी वह जिसका कामुक सुख देखने के तिलिस्म में छिपा होता है. लेकिन अब परोक्ष यौनाचार, ऐसा लगता है कि अनजानी दुनिया को देखने के सुख की हदें लांघ गया है इसकी सनसनी इसके आवश्यक कामुक तत्व के बजाए यौन विकार में बदल गई है.

हैरत हो सकती है कि क्या यह कामुक विकार के बारे में बदलते विचार, सब चलता है जैसी बेफिक्री से ही उत्पन्न हुआ है या फिर यह विजुअल आनंद के तेजी से बढ़ते ओवरडोज का असर है, ऐसी छवियां बनाने वाले/ प्राप्त करने वाले/ प्रसारित करने वाले तक आसान पहुंच और निजी जिंदगियों को सार्वजनिक करने की दबी इच्छा साइबर स्पेस में सोशल नेटवर्किंग की महामारी के रूप में फैल रही है? सेक्स सर्वे 2009 में वॉयोरिज्‍म/एक्जबिशनिज्‍म से जुडे़ सवाल कैमरे के प्रति हमारी इसकी दीवानगी और हमारी यौन कल्पनाओं में इसकी गहरी नजर को प्रदर्शित करते हैं.

वास्तव में हम अपने युग के वॉयोरिज्‍म को फॉकल्ट के किए 18वीं सदी के समाजशास्त्री जर्मी बेंथम के बंदीगृह के उस रूपातंरण से समझ सकते हैं जिसके बाड़े के भीतर बंद, एकाकी कैदियों को हम देख तो सकते हैं लेकिन उन्हें इसका पता नहीं होता, चौतरफा घिरे हुए लेकिन पूरी तरह दृश्यमान, जिसमें केंद्र (देखने वाला) तो देखने का अधिकार रखता है, लेकिन खुद के देखे जाने का नहीं. ऐसी व्यवस्थित और तकनीकी किस्म की ताकझांक को अब परोक्ष यौनाचार के अनुभव में आनंददायक कहा जा सकता है.

इस खंड के पहले सेट के प्रश्नों में एमएमएस से जुड़ी उस अवधारणा को समझने की कोशिश की गई है, यदि हमारे मल्टी मीडिया पर यकीन करें तो, जिसने हमारे राष्ट्रीय मानस से गोपनीय तरीके से चिपकी परोक्ष यौनाचार की प्रवृत्ति को उघाड़कर कर रख दिया है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वीडियो रिकार्डिंग की महामारी के लिए कैमरे वाले मोबाइल फोन ही जिम्मेदार हैं. सर्वे में शामिल 12 फीसदी पुरुषों (लुधियाना और बंगलुरू में सर्वाधिक) और 4 फीसदी महिलाओं (मुंबई में सर्वाधिक) ने माना कि वे अपनी यौन गतिविधियों को एमएमस के लिए कैमरे में कैद करने के बारे में सोचते हैं.

अनुमान है कि एमएमएस देशभर में यौन गतिविधि के सबसे उत्तेजक रूप में उभरा है, इस सर्वे से यह बात भी सामने आई है कि एमएमएस सेक्स के बारे में अविवाहित लोग शायद ही कल्पना करते हैं. यानी यह आम धारणा को चुनौती है जिसके मुताबिक एमएमएस सेक्स की अवधारणा ने युवाओं के बीच प्रचंड रूप से पैठ जमा ली है. घूमते हुए कैमरे की आंखें आने वाली पीढ़ी के लिए किशोर वय लड़के-लड़कियों के मिलने वाली जगहों के बजाए परिपक्व विवाहितों के शयनकक्ष की अंतरंग गतिविधियों को कहीं अधिक कैद कर रही हैं.{mospagebreak}एमएमएस सेक्स की कल्पना करने वाली 41 फीसदी महिलाएं और ऐसा कर चुके 44 फीसदी पुरुषों ने स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी कल्पनाओं को वीडियो स्क्रीन पर साकार किया, इनमें 56 फीसदी पुरुष मध्यम वर्ग के थे. 21वीं सदी की उपभोक्तावादी आधुनिकता में जिसमें कैमरे वाला मोबाइल फोन संभवतः सबसे चमकदार प्रतीक है और यह भारत के वृहत्‌ मध्यम वर्ग के बीच प्रच्छन्न रूप से और कहीं अधिक चालाकी से जगह बनाता जा रहा है, सो इससे हैरत नहीं होती. फिर यह इससे भी पता चलता है कि सर्वे में शामिल तकरीबन सभी पुरुषों के पास अपना मोबाइल फोन था. हैरत नहीं होती कि एमएमएस सेक्स में लिप्त रही आधे से अधिक महिलाओं और 80 फीसदी पुरुषों ने इसकी रिकॉर्डिंग का दोस्तों और अन्य लोगों के साथ साझा किया और फिर इसे इंटरनेट में ऍपलोड भी कर दिया.

{mosimage}अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति के अंतरंग रति क्षणों को वीडियो में कैद करने की इच्छा दरअसल अंग प्रदर्शन करने वाले की उस लालसा से जुड़ी हुई है जो चाहता है कि इन छवियों को उस चारदीवारी से बाहर ले जाया जाए, जहां इसे कैद किया गया था. सर्वे में शामिल 75 फीसदी पुरुषों की इंटरनेट तक पहुंच है. बहुत थोड़ी-सी महिलाओं, तकरीबन आठ फीसदी और 17 फीसदी पुरुषों ने दोस्तों और रिश्तेदारों के एमएमएस देखने के दावे किए. मुंबई, दिल्ली, लुधियाना और अहमदाबाद की महिलाएं इस मामले में सबसे आगे थीं और पुरुषों के मामले में लुधियाना सबसे आगे था.

सर्वे के इस खंड में लुधियाना के सबसे आगे रहने के पीछे शहर की प्रोफाइल का खास लेना-देना नहीं है. एक्जबिशनिज्‍म और वॉयोरिज्‍म की प्रवृत्ति जरूरी नहीं कि किसी व्यक्ति में एक साथ हो, ऐसा लगता है कि जिसमें इस तरह की कोई एक प्रवृत्ति हो तो उसमें दूसरी प्रवृत्ति भी होगी. लुधियाना के पुरुषों में यह बात गौर करने लायक हैः एमएमएस सेक्स की कल्पना करने वाले सर्वाधिक पुरूष लुधियाना के थे; हर पांच में से एक ने दावा किया कि उसने अपने दोस्तों/ रिश्तेदारों के एमएमएस सेक्स वीडियो देखे लेकिन इनमें से कुछ लोगों ने ही अपने खुद के एमएमएस तैयार किए; जिन्होंने ऐसा किया उनमें से अधिकांश (80 फीसदी) ने दूसरों के साथ अपने वीडियो का साझा किया और इसे इंटरनेट पर भी डाल दिया. ताकझांक करने वालों में भी लुधियाना सबसे आगे था, 90 फीसदी परोक्ष यौनाचार और अंग प्रदर्शन से होने वाली उत्तेजना के बारे में कल्पना करते हैं. हमें याद रखना चाहिए कि लुधियाना के ऐसे आंकड़ों का सामान्य रूप से निकाले जाने वाले औसत पर महत्वपूर्ण प्रभाव होगा.

विभिन्न शहरों में दूसरों के द्वारा गुप्त तरीके से देखे जाने या फिर खुद को देखे जाने से वाकिफ होने की वजह से कामुक होने की कल्पना करने के बारे में महिलाओं और पुरुषों में काफी अंतर देखा गया. रति क्रीड़ा के समय महिलाओं द्वारा उन्हें देखे जाने पर बड़ी संख्या में पुरुषों (70 फीसदी) ने उत्तेजना महसूस की. दक्षिण इस मामले में आगे हैः बंगलुरू में तकरीबन सभी पुरुष महिला दर्शकों या महिला काम रसिक के लिए रति क्रीड़ा करने की संभावना से उत्तेजित होते हैं. सर्वे में शामिल 30 फीसदी महिलाएं काम रसिकों से उत्तेजित होती हैं, फिर वह पुरुष हो या महिला इससे फर्क नहीं पड़ता. इस सर्वे ने खुलासा किया कि परोक्ष यौनाचार या/और अंग प्रदर्शन की कल्पना महिलाओं के बजाए पुरुष अधिक करते हैं. लेकिन सर्वे में शामिल महिलाओं-पुरुषों की यौन प्राथमिकताएं देखकर किसी को भी हैरत हो सकती है.

इन आंकड़ों से क्या कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि 2009 में यौन व्यवहार के रूप में वॉयोरिज्‍म और/ या एक्जबिशनिज्‍म ने पूरे भारत के महानगरों और छोटे शहरों में प्रचंड रूप से जगह बना ली? ऐसा लगता तो नहीं. वास्तव में जो गौर करने वाली बात है वह यह कि भारत-बड़े-छोटे हर तरह के शहर- पारंपरिक रूप से असमान्य माने जाने वाले यौन व्यवहार के बारे में गंभीरता से सोचने लगा है और यहां तक कि ऐसी कल्पनाओं को साकार भी कर रहा है. और उपभोक्तावादी वैश्विक आधुनिकता में छोटे से वीडियो रिकॉर्डिंग उपकरण के साथ भविष्य की कल्पना की उड़ान भरने को भी तैयार है. ई.एम. फोस्टर ने ए पैसेज टू इंडिया में बिल्कुल अलग संदर्भ में लिखा था, ''अभी नहीं. अब तक नहीं.'' इसे अपशगुन कहें या शगुन. आप चाहे जो मानें.

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

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