''आपको शादी कर लेनी चाहिए.''
''क्या...?''
''क्या गलत कह रही हूं?'' उसने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.
''पागल हो...? जानती हो क्या कह रही हो तुम...?'' वे आश्चर्य में डूबी गहरी निगाहों से उसको एकटक देखे जा रही थीं. दोनों उंगलियां जो वैचारिक क्षणों में उनके गुदगुदे गुलाबी गालों पर रहती हैं, वहां से हटकर अब आपस में गुंथ गई थीं. उलझन से भरा मन चिड़िया की तरह फडफ़ड़ाने लगा. उनकी छोटी-छोटी आंखें तेजी से घूम रही थीं. होंठ खुल, बंद हो रहे थे जैसे शब्दों ने हलचल मचा दी हो. पूरे कमरे में एकाएक खामोशी पसर गई. उसने उनके चेहरे से निगाहें हटाकर कमरे को गहरी निगाहों से देखना शुरू कर दिया. कलात्मक ढंग से सजा भव्य कमरा इतना आकर्षक लग रहा था कि उसे लगा, उठकर उन तमाम चीजों को करीब से छूकर देखे. हल्की-पीली रोशनी में वे महंगी मोहक चीजें... उसे ऊंघती ठंडी और कठोर लग रही थीं. खामोशी ने विशाल वृक्ष की तरह अपनी जड़ें चारों तरफ फैला रखी हैं.
''समय कैसे बीतता होगा?'' उसने पलटकर उनकी एकाग्रता को भंग करते हुए पूछा.
''समय...'' उन्होंने लंबी सांस भरी, ''जैसे बचपन बीत गया... जैसे जवानी जैसे बाद का समय... वैसे ही इन दिनों ऑफिस में समय बीत जाता है.''
''उसके बाद...?''
''घर की देखभाल...बगीचे की देखभाल फिर डॉगी के साथ घूमना. रात में लाइब्रेरी में बैठना.. पर कितना पढूं! कितना! अब तो आंखें भी साथ नहीं देतीं...सोने से पहले गज़लों का कैसेट लगा लेती हूं....इतना काम करने के बाद...नींद नहीं आती. गहरी लंबी नींद....''
''आप कुछ लिखती भी हैं... या सिर्फ...''
''कुछ उलटा-सीधा यूं ही... वो भी कभी-कभार... कभी बचपन और अतीत की बातों में लौट जाती हूं. पता नहीं क्यों रह-रहकर वही वक्त अपनी तरफ खींचता है...'' वे खोई-खोई... बोले जा रही थीं. हल्का-सा आनंद का भाव उनके चेहरे पर उतर आया था और उनकी आवाज़ में भी उसे ताजगी महसूस हुई.
''आपने पिछली बार कुछ कहा था?'' उसने टूटती बात का सिरा पकड़ना शुरू कर दिया.
''क्या...? याद दिलाओ, क्या करूं आजकल स्मृति भी साथ नहीं देती.'' वे हल्के-से मुस्कराकर बोलीं.
''सहगल सर के जाने के बाद आपको लगता है कि आपके साथ किसी न किसी को होना चाहिए शादी या बर्थ-डे पार्टी में. या तब जब आपके घर आपसे कोई पुरुष मिलने आता है, तब आप अटपटा महसूस करती हैं. आपने शाम को मिलने आने वाले लोगों को मना कर दिया है. इसलिए ना कि कोई क्या सोचेगा... खासकर आपके ऑफिस के लोगों को लेकर...''
उसकी बातें सुनकर क्षण भर के लिए वे हतप्रभ रह गईं.... फिर स्वयं को सहज बनाते हुए बोलीं... ''ये तो स्वाभाविक-सी बात है मनसा. समाज के बीच रहते हुए उसकी सोच की, उसकी मानसिकता की परवाह तो करनी ही पड़ती है. हमारी दृष्टि, मान्यताएं और सोच बदल जाती है पर समाज उतनी तेजी से नहीं बदलता है. न उससे अपेक्षा की जा सकती है.''
''तभी तो...! देखिए आपके बच्चों को बाहर रहना है... आप नौकरी छोड़ेंगी नहीं. फिर अकेलेपन की पीड़ा क्यों झेल रही हैं!'' मनसा ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा.
''मैं तो चाहती थी कि सहगल साहब जिंदा रहते.''
''यह क्या हमारे हाथ में है...? मृत्यु ऽऽऽ हमारे हाथ में नहीं है...'' कहते-कहते...मनसा खामोश हो गई...भीतर तक सनसनाहट दौड़ गई...आंखों के सामने अंधकार का परदा गिर पड़ा... हो जैसे, उसने दोनों पलकों को.... छुआ...
''मैं मिस्टर सहगल को लेकर कहां-कहां नहीं गई.... पर इतनी बीमारियां...! पूरा शरीर जर्जर हो गया था. आखिर में तो उनकी नज़र भी चली गई थी. इस सबके बावजूद घर में उनकी उपस्थिति रहती थी. बातचीत का, खाने-पीने का... घर में रहने का; जीने का मकसद होता था.. इनसान...का वजूद... ही सर्वोपरि है मनसा... यह मैं मानने लगी.''
''इसे कौन नकार सकता है?'' मनसा ने कहा.
''पता नहीं मनसा, मुझे बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि मुझसे कहीं कोई चूक हो गई है... अन्यथा सहगल साहब एकाध साल और जी सकते थे...'' वे... पतली धीमी आवाज़ में लगातार बोले जा रही थीं... अंदर ठहरा दर्द... शिकायत... ग्लानि.... और आत्मवेदना... बूंद-बूंद... गिर रही थी. और आकर ठहर गई थी दोनों के बीच बने दु:ख के बिंदु पर.
''आप जितना कर सकती थीं, आपने किया. आपकी जगह कोई और पत्नी होती तो क्या इतनी भागदौड़ कर सकती थी?''
मनसा ने उठकर उनके कंधों पर दोनों हाथ रखे. उसके कोमल गर्म हाथों का स्पर्श उन्हें अच्छा लगा. किसी के थाम लेने से कितनी शक्ति मिलती है! वे जानती हैं दर्द और अवसाद के इस बहाव में दो प्यार भरे हाथ... सांत्वना देती बातें और आत्मीयता की ताप... सबसे बड़ा संबल होती है....उसने कितना कुछ नहीं किया था सतीश को बचाने के लिए. वेंटीलेटर हटाने.. के पहले उसने सतीश के लिए क्या-क्या नहीं मांगा था ईश्वर से, इस दुनिया से, अपने लोगों से... अपने आप से! मृत्यु से लडऩा जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष होता है... यह बात मनसा से ज्यादा कौन समझ सकता है.
दोनों के बीच.. अनकहा संवाद चल रहा था. समय नहीं ठहरता है सिर्फ ठहरने का भ्रम करवाता है... और वे दोनों उन्हीं क्षणों में ही जी रही थीं... अपने आप में...अपने अतीत में.
''सब कुछ इतना आसान नहीं होता मनसा... इस उम्र में ऐसा फैसला लेना... बच्चे भी क्या सोचेंगे? बच्चों का मानस भी तो इसी समाज के संस्कारों से बना है.''
''आपने बच्चों से बात की? बच्चों को आपके अकेलेपन का एहसास है?'' मनसा ने उनके चेहरे पर निगाहें गढ़ाते हुए पूछा. इस समय वह उनकी एक-एक बात को नकारने की मुद्रा में थी, ''आपको सबकी परवाह न करके अपने बारे में सोचना है... अपने जीवन के बारे में....'' मनसा ने लंबी आह भरी. जबकि उसने यह सब कहना बंद कर दिया था.... अपने जीवन का कोई भी पृष्ठ किसी के सामने न खोलने का फैसला ले चुकी थी वह. उसको कभी किसी ने आकर इस तरह नहीं समझाया था.... न किसी को यह एहसास हुआ था कि बच्चों के जाने के बाद वह कितनी अकेली हो जाएगी. हां... परिवार के सदस्यों के लिए उसकी भूमिकाएं जरूर बंध गई थीं.
वे चुप थीं. जवाब देने के लिए शब्द तलाशतीं. इस समय उनका चेहरा अबोध बच्ची-सा मासूम... लग रहा था. ये सच है कि, ''इतने बड़े घर में अकेलापन खाने को दौड़ता है. हालांकि मैं स्वयं को व्यस्त रखती हूं पर... जीवन में... मन में यहां तक कि...आत्मा में ऐसा खालीपन भर गया है कि लगता है यह घना सन्नाटा... मेरी ऊर्जा को ही न खत्म कर दे...हर पल लगता है... बल्कि यही... सत्य है मनसा कि इनसान की जगह कोई नहीं ले सकता. तुमने इस दर्द को जिया है इसलिए तुम महसूस कर रही हो मेरी पीड़ा... अन्यथा इस तरह मेरे मन को किसी ने नहीं समझ...''
''इसीलिए तो आप सिर्फ अपने मन की बात सुनिए.'' मनसा ने दृढ़ता के साथ कहा.
मनसा ने पास रखी डायरी उठाई और उसके पन्ने पलटने लगी. उनकी उंगलियां कुर्सी के हत्थे पर थाप दे रही थीं. पलकें बंद थीं. अंदर कैसेट प्लेयर पर ग़ज़लें बज रहीं थी. वह उनको देखते हुए उनके अतीत में लौट पड़ी. अपने ज़माने की खूबसूरत, विलक्षण प्रतिभा से हर क्षेत्र में प्रभाव जमाने वाली मिसेज सहगल सबके बीच लोकप्रिय थीं... उनके यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों की लंबी कतार लगी रहती थी... उनकी बुद्धि, कार्यक्षमता, तर्क-शक्ति और व्यावहारिकता के सभी कायल थे. किसी बात के लिए न कहना उन्होंने सीखा ही न था. मिस्टर सहगल से उन्होंने लव मैरिज की थी. उन दोनों के बीच गज़ब का सामंजस्य था. बाद के वर्षों में मिस्टर सहगल के साथ एक के बाद एक ऐसी घटनाएं जुड़ती गईं जिनके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा था. मानव अधिकार आयोग से लेकर डिपार्टमेंटल 'इंक्वायरी' के चक्कर में उनका अच्छा-खासा समय बर्बाद हुआ था. तब भी उनकी असाधारण सहनशक्ति के कारण चीजें... स्थितियां और समस्याएं सुलझती गई थीं. उन तमाम परेशानियों के बीच भी वे लगातार आगे बढ़ती गई थीं. मिस्टर सहगल के लिए.... कितने अस्पतालों और कितने शहरों के चक्कर लगाती रही थीं... कि वे ज़िंदा रहें... बस.
'मैडम!...'' उसने पुकारा, ''क्या सोच रही हैं?''
''ज़िदगी कितने रंग बदलती है. कभी वह कितनी लंबी लगती है और कभी लगता है कि समय हाथ से छूटा जा रहा है. मनसा, जानती हो... जब भी मैं परेशान होती हूं तो एक दोस्त का खत मुझे सांत्वना देता है. मैं हैरान हूं कि...उसने मुझ्े कितने कोणों से जाना-समझा है.''
''तभी तो हम जैसे लोग ज़िदा रह पाते हैं मैडम... वरना...''
मनसा ने अपनी संतप्त आवाज़ को हल्का करते हुए कहा.
उसने देखा... वे अब संभल चुकी थीं, जैसे वह संभली थी... वे शादी...पार्टी तथा अन्य समारोहों में जाने लगी थीं... जैसे उसने जाना शुरू किया था.... उनके चेहरे पर बेवक्त आई झुर्रियों कम होने लगी थीं. जैसे उसकी कम हुई थी... पर जो उसने पल-पल जिया था वह नहीं चाहती थी कि वे उसे जिएं.... इसलिए उनके लिए जीवन साथी की तलाश जारी थी... और... यह संयोग ही था कि... उसे इसका अवसर जल्द मिल गया. हुआ यह कि वह अपने बेटे के एजुकेशन लोन के लिए बैंक में गई थी.
मैनेजर से बात करते हुए पता चला कि पिछले वर्ष ही उनकी पत्नी एक एक्सीडेंट में मारी गई थीं... एक बेटा, बेहद समझदार. पिता के दर्द को समझने वाला...शेयर करने वाला...पर बेटी...एकदम उलट, पिता को लेकर बेहद पज़ेसिव...असुरक्षित. रिश्तेदारों के बीच होती चर्चाओं ने उसके मन-मस्तिष्क में जहर घोल दिया था—कि उसके पिता दूसरी शादी कर रहे हैं.
''मैंने उसे समझया. बहुत समझया. आप यकीन नहीं करेंगी कि घंटों-घंटों तक मैं उसे विश्वास दिलाता. पर वह उम्र के ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां बच्चों के दिमाग में घर कर गई बातों को निकालना आसान नहीं होता.''
सिंह साहब हर बार अपने बच्चों की कोई-न-कोई बात उसे बताते. उसकी सलाह लेते. पत्नी वियोग और बच्ची के व्यवहार से उपजा दु:ख उनकी आंखों में अब भी भरा था, ''कब तक बाइयों के सहारे घर चलेगा. रिश्तेदार आते हैं...चले जाते हैं. बिना औरत की दुनिया कितनी वीरान हो जाती है... इतना भर कोई कह दे बस वह.... पागल-सी हो जाती... रात दिन रोना... सामान फेंकना....कमरे में बंद हो जाना... आपने कभी ऐसी स्थिति का सामना किया?'' सिंह साहब उसके बारे में भी जानना चाहते थे.
''मेरी छोड़िए सर...बच्चे बहुत छोटे थे. पर आपके साथ तो बड़ी त्रासदी है...'' वह देख रही थी दो हैरान...परेशान अकेले प्राणियों को, जो दो किनारों पर खड़े दु:खों के थपेड़े खा रहे थे. मनसा का दिमाग तेजी से चलने लगा... उसे लग रहा था कि... दोनों के भीतर पसरे सन्नाटे—उदासी और असुरक्षा को...दूर किया जा सकता है. कुछ नहीं तो पहल तो की ही जा सकती है. लेकिन सिंह साहब... और मैडम...उनकी बिटिया...उनकी बिटिया तो इसी भय से ग्रस्त है. फिर ऐसी अनधिकार चेष्टा करना...मनसा का मन बेचैन हो उठता. करे तो क्या करे?
छोड़ दे सबको अपने-अपने रास्ते पर. सब जी लेते हैं...अपनी तरह से. वह जितना स्वयं को अलग करती, उसका मन उधर ही भागता. फिर वह खामोश हो जाती.
लेकिन मनसा का मन नहीं मानता. हजार बार सोचती तो एकाध रास्ता निकलता. कोई प्रसंग उठाती तो उसके निष्कर्ष पर चिंतन करती.
''तो आपने कुछ सोचा?'' एक दिन मनसा ने जाकर पूछ ही लिया.
''नए सिरे से सब कुछ शुरू करना...'' वे उसी मूड में बोलीं.
''मेरे बच्चे भी खुश नहीं हैं और उनकी बेटी का मन बदलेगा नहीं. नई मुसीबतों से डर लगने लगा है. क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह बच्चों के साथ अन्याय होगा?'' मिसेज सहगल...भावी घटनाओं और परिस्थितियों को लेकर अब कोई समझैता...जैसी बात नहीं सोचना चाहती थीं.
इधर सिंह साहब की बेटी ने पहले ही कह दिया था, ''पापा, आपके जीवन में कोई और औरत नहीं आनी चाहिए. जो भी औरत इस घर में आएगी, मुझे अलग कर देगी.''
सिंह साहब की आंखों में न रात की नींद थी, न दिन का चैन. ज्यादती की तो... ऐसा न हो बेटी ही हाथ से निकल जाए... या आत्महत्या कर बैठे. बेटे की पढ़ाई का आखिरी साल था. वह बाहर जाने की तैयारी कर रहा था. हां, इस बीच उन्होंने बेटी को भी इस पूरे माहौल से दूर पूना भेज दिया था, पढ़ाई के लिए.
''अब क्या दिक्कत है?''
''संयोग होगा तो...'' मिसेज सहगल कह रही थीं, ''मनसा, मैं किसी का भी दिल दुखाना नहीं चाहती...एक अवसाद से निकलकर दूसरे अवसाद में नहीं जाना चाहती... कितना कष्टदायी होगा. विपरीत परिस्थितियों में सबको खड़ा करना. अब तो मन सिर्फ शांति और खुशियां देखना चाहता है....''
उसने उन दोनों को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया. वक्त तमाम चीजों को बिगाड़-बना देता है. इतना तो वह जानती है कि जीवन में अयाचित चीजें कभी सुखदायी नहीं होतीं.
फिर... शायद सात-आठ महीने बाद, उसने देखा, सिंह साहब की बच्ची उसके घर आई हुई है. पहले की अपेक्षा वह बड़ी, समझदार और आत्मविश्वास से भरी लग रही थी. मां का इस उम्र में बिछुडऩा...अकेले होने का विषाद... किसी अन्य महिला का उसके घर में आना और उसकी अपनी स्थिति और हैसियत को लेकर जो भय और असुरक्षा का भाव उसके किशोर मन में गहरे तक धंसा था, वह अब नज़र नहीं आ रहा था. वह एक-एक वाक्य बड़ी मुश्किल से बोल रही थी... ''आंटी, मैं सैल्फिश बन गई थी. मुझे हर पल यही लगा रहता था कि पापा की दूसरी शादी होते ही मैं और भैया इस घर में मेहमान हो जाएंगे. मेरे पापा पराये हो जाएंगे. पर पिछले छह माह में मैंने देखा और फील किया कि पापा एकदम अकेले हो गए हैं. एकदम चुप. ऑफिस में ही ज्यादा रहते हैं. हम दोनों तो बाहर निकल गए हैं. अब उनके साथ घर में कोई नहीं रहा. हम दूर रहकर भी अपना अधिकार बनाए रखना चाहते हैं. आप बात करिए न....''
लड़की की बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू छलक आए थे... वह जीवन और रिश्तों के अर्थ समझ चुकी थी.
''जब मैं हॉस्टल में रही तब मुझे एहसास हुआ कि जो साथ में रहता है, वही सच्चा पार्टनर होता है. क्या आप मुझे उन आंटी से मिलवाएंगी? मैं उनसे रिक्वेस्ट करूंगी. पापा का रिश्ता बन तो जाएगा...? नाराज तो नहीं हो गई होंगी आंटी? वे कैसी हैं? कैसी दिखती हैं?'' लड़की सवाल पर सवाल किए जा रही थी और मनसा उसके चेहरे पर खिलती लालिमा को देखे जा रही थी... मनसा की आंखों में आंसुओं की बदली उमड़ी... हृदय में कुछ छपाक से गिरा... काश! उससे भी किसी ने इस तरह कुछ कहा होता....