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अतृप्‍त चाहत का फैलता अंधेरा...

भारत की पहली और दुनिया की दूसरी 'टेस्ट-ट्यूब बेबी' कनुप्रिया उर्फ दुर्गा हंसते हुए कहती हैं, ''मेरे पिता धार्मिक व्यक्ति हैं, मेरी मां ज्‍यादा व्यवहार-कुशल हैं. आशावादिता और जोखिम उठाना हमारे खून में है. गर्भ में मेरा आना एक असाधारण और आश्चर्यजनक घटना थी. वह कारगर रही और मैं पैदा हो गई.''

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भारत की पहली और दुनिया की दूसरी 'टेस्ट-ट्यूब बेबी' कनुप्रिया उर्फ दुर्गा हंसते हुए कहती हैं, ''मेरे पिता धार्मिक व्यक्ति हैं, मेरी मां ज्‍यादा व्यवहार-कुशल हैं. आशावादिता और जोखिम उठाना हमारे खून में है. गर्भ में मेरा आना एक असाधारण और आश्चर्यजनक घटना थी. वह कारगर रही और मैं पैदा हो गई.'' विज्ञान तैयार था और मेधावी डॉक्टर उसके रहस्यों को परदा उठाने के लिए तैयार थे तथा युवा दंपती जोखिम उठाने के लिए उत्सुक थे. नतीजा? एक ऐसी कन्या का जन्म, जिससे लाखों लोगों को उम्मीद की किरण नजर आने लगी. उस आश्चर्यजनक शुरुआत के बावजूद कनुप्रिया बिंदास लड़की की तरह पली-बढ़ीं: ''मुझे अपनी कहानी के बारे में पत्र-पत्रिकाओं की कतरनों से पता चला, घोंसले से जल्दी उड़ गई, एमबीए किया और अपनी पसंद के एक व्यक्ति से विवाह कर लिया.''

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आज वे मुंबई में रहती हैं और बाहर जाती-आती रहती हैं, बहुराष्ट्रीय कंपनी में अपनी नौकरी को पसंद करती हैं और अगले सफर के लिए हमेशा अपना सूटकेस तैयार रखती हैं. वे बिलकुल सामान्य जिंदगी बिता रही हैं.{mospagebreak}कनुप्रिया की जिंदगी उतनी ही सामान्य है जितनी उनके जन्म की परिस्थितियां सामान्य हो गई हैं. 1978 से अब तक इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आइवीएफ अथवा टेस्ट ट्यूब) और दूसरी तकनीकों के जरिए दुनिया भर में 40 लाख से अधिक बच्चे पैदा हो चुके हैं और अभी ऐसे कई बच्चे गर्भ में हैं. वह इसलिए कि 32 साल पहले जिस चिकित्सीय खोज की वजह से कनुप्रिया वजूद में आईं वह आज मुख्यधारा की सामाजिक घटना बन चुकी है. अब संतानहीनता और बांझपन निजी पीड़ा की चीज नहीं रह गई हैं. वे अब सबको दिखती हैं. इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (आइआइपीएस), मुंबई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अब वे शहरों में बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने 2008 में आगाह कर दिया था, ''एक अवधि में, माता-पिता बनने का प्रयास कर रहे कोई 25 करोड़ व्यक्तियों में 1.3 से 1.9 करोड़ दंपती बांझपन के शिकार हो सकते हैं.'' भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) ने बांझपन का पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन शुरू किया है.

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आइआइपीएस के शोधकर्ताओं ने देश की 2001, 1991, 1981 की जनगणना रिपोर्टों के आधार पर दिखाया है कि भारत में 1981 से संतानहीनता में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. {mospagebreak}प्रमुख शोधकर्ता उषा राम ने अगले महीने प्रकाशित होने वाले दस्तावेज में दावा किया है कि ऐसा मुख्यतः बढ़ते बांझपन की वजह से है, न कि इसलिए कि दंपती बच्चे न पैदा करने का फैसला कर रहे हैं. विवाहित महिलाओं में संतानहीनता की दर (संतानहीन 15-44 वर्ष की विवाहित महिलाओं की संख्या के मुकाबले उसी आयु वर्ग की विवाहित महिलाओं की कुल आबादी) 11 से बढक़र 16 फीसदी हो गई है, वहीं 'स्थायी संतानहीनता' 3.89 फीसदी से बढ़कर 7.47 फीसदी हो गई है. 35-49 वर्ष की विवाहित/ तलाकशुदा महिलाओं, जिन्होंने कभी किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया, की संख्या 1981 में 4 फीसदी से बढ़कर 2001 में 6 फीसदी हो गई. ऐसी महिलाओं की संख्या 51 लाख है. उषा राम का कहना है, ''देश के शहरी इलाकों में यह काफी तेजी से बढ़ रहा है.''

दुनिया भर में अभिभावकों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि करीब 95 फीसदी लोग जीवन में कभी-न-कभी बच्चे पैदा करने की इच्छा रखते हैं. इसी तथ्य के मद्देनजर उषा राम यह स्वीकार नहीं करतीं कि देश के शहरी इलाकों में महिलाएं जान-बूझ्कर बच्चा पैदा नहीं करना चाहतीं. वे बताती हैं, ''उनकी संख्या बहुत ही कम है और उनसे इतने बड़े परिवर्तन की व्याख्या नहीं की जा सकती. मुझे पूरा विश्वास है कि भारत में संतानहीनता मुख्यतः इसलिए है क्योंकि दंपती बच्चे नहीं पैदा कर पा रहे हैं. और यह सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए चुनौती बन सकता है.''{mospagebreak}आइसीएमआर में जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य के उप-महानिदेशक और सर्वेक्षण का नेतृत्व कर रहे डॉ. आर.एस. शर्मा का कहना है, ''अब इस विषय पर वैज्ञानिकों के साथ आम लोग भी चिंता जाहिर करने लगे हैं. आइसीएमआर ने इसी के मद्देनजर यह अध्ययन शुरू किया.'' अगर आप भारतीय परिवार के स्थायी ढांचे, बच्चों की चाहत, लड़के की विशेष चाहत और संतानहीनता से जुड़े कलंक को जोड़कर देखें तो आपको एहसास हो जाएगा कि गर्भधारण कराने में मदद करने वाले निदान एवं उपचार उपायों की जबरस्त मांग है. अरिंदम और पूरबी मुखर्जी, जिनकी 17 महीने की प्यारी-सी बेटी है, का कहना है, ''हमें एक साल पहले समय लेना पड़ा था.''  उन्हें गर्भधारण करने में मदद करने वाले, इंस्टीट्यूट ऑफ रिप्रोडक्टिव मेडिसिन (आइआरएम) के निदेशक डॉ. बैद्यनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, ''किसी जमाने में लोग इस तरह का इलाज कराने में हिचकिचाते थे. आज निस्संतान दंपती आते हैं और आइवीएफ की मांग करते हैं.''

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अब एक ऐसी महामारी सामने आ रही है जो हमेशा से परदे के पीछे छिपी थी-पुरुषों का बांझपन. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में स्त्री रोग और नई इनफर्टिलिटी यूनिट की प्रमुख डॉ. सुनीता मित्तल का कहना है, ''संतानहीनता के एक-तिहाई मामलों में कमी पुरुषों की तरफ से होती है.'' इसी वजह से आज इनफर्टिलिटी क्लीनिक पुरुषों से ही जांच की शुरुआत करते हैं. {mospagebreak}पुरुष शुक्राणुओं की बिगड़ती स्थिति के बारे में मणिपाल स्थित कस्तूरबा हॉस्पिटल के अध्ययन से पता चला. इस संस्थान ने 2008 में 7,700 पुरुषों का अध्ययन किया था. नए अध्ययनों से जाहिर हुआ है कि मोटापे से भी शुक्राणुओं की गुणवत्ता कम होती है. आइआरएम की डॉ. नलिनी गुप्ता और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि 20 फीसदी एजूस्पर्मिक पुरुष (जिनके वीर्य में शुक्राणुओं का स्तर नगण्य होता है) वाइ क्रोमोसोम डिलीशन, एजेडएफ, डीएजेड जीन में परिवर्तन आदि पैदाइशी खामियों से ग्रस्त हैं. चेन्नै स्थित जी.जी. हॉस्पिटल की डॉ. प्रिया सेल्वाराज, जिन्हें भारत में पहले बर्फ में जमे ऊसाइट (जो बाद में अंडाणु बनते हैं) से बच्चा पैदा कराने का श्रेय दिया जाता है, का कहना है, ''अब ध्यान महिलाओं से हटकर पुरुषों पर केंद्रित हो गया है.''

ऐसा केवल भारत में नहीं हो रहा है. पिछले 50 वर्षों में दुनिया भर के पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या 50 फीसदी कम हो गई है. डॉ. शिलादित्य भट्टाचार्य का कहना है, ''पुरुषों में बांझपन में बढ़ोतरी की आशंका के मद्देनजर और शोध करने की जरूरत है.'' स्कॉटलैंड के एबरडीन फर्टिलिटी सेंटर में डॉ. भट्टाचार्य के अध्ययन से जाहिर होता है कि 1989 से 2002 के दौरान पुरुषों में शुक्राणु 29 फीसदी कम हो गए. {mospagebreak}प्रतिष्ठित ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने चेताया है, ''भविष्य में बांझपन सामान्य हो जाएगा और अधिकाधिक दंपतियों को बच्चा पैदा करने में मदद की जरूरत पड़ेगी.'' गर्भधारण के लिए प्रयासरत करीब 15 फीसदी दंपती बांझपन की लपेट में हैं. करीब 6 फीसदी बच्चे एसिस्टेड रिप्रोडक्शन टेक्नीक (एआरटी) से पैदा किए जा रहे हैं. चीन भी इसी बीमारी से ग्रस्त है-'80 के दशक में 3 फीसदी चीनी बांझपन के शिकार थे लेकिन आज उनकी संख्या 10 फीसदी है.

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मुंबई स्थित जसलोक हॉस्पिटल में डिपार्टमेंट ऑफ एसिस्टेड रिप्रोडक्शन की प्रमुख डॉ. फिरूजा पारीख हर सुबह ठीक आठ बजे अपनी कुर्सी पर बैठ जाती हैं. जसलोक में आइवीएफ सेंटर खोलने के लिए 1989 में अमेरिका से लौटीं डॉ. पारीख तभी से इसी दिनचर्या का पालन कर रही हैं. लेकिन आजकल वे अपनी बारी का इंतजार कर रहे दंपतियों की परेशानी देखकर दंग हैं. देश में पहली बार 'इक-सी बर्थ' अथवा इंट्रासाइटो-प्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन (आइसीएसआइ) तकनीक के जरिए बच्चा पैदा कराने वाली डॉक्टर पारीख बताती हैं, ''आजकल लोग इतना एहतियात बरतने लगे हैं कि वे सीधे इनफर्टिलिटी विशेषज्ञों के पास पहुंच जाते हैं.'' यह चिंता अस्पतालों में ऐसे लोगों की बढ़ती संख्या से जाहिर होती हैः 1990 में जसलोक के ओपीडी में करीब 450 मरीज आए जबकि आज उनकी संख्या करीब 1,500 हो गई है. क्लीनिकों में एआरटी उपचार कराने वालों की संख्या भी बढ़ गई है-1991 में 1,000 से 2009 में 4,000.{mospagebreak}बच्चे के लिए परेशान दंपतियों का चिकित्सीय सहायता ढूंढना सुर्खियों में नहीं आता लेकिन गर्भधारण में परेशानी खबर है. हाल में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज को पता चला कि उसके 90,000 कर्मचारियों में से 15 फीसदी को गर्भधारण संबंधी परेशानी है और न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी ने जब उनका बीमा करने से इनकार कर दिया तो यह खबर बन गई.

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बहरहाल, आइवीएफ क्लिनिकों का धंधा चल पड़ा है. 2000 में उनकी संख्या 31 थी, जो अब बढ़कर 800 हो गई है. उनका विकास देश में बढ़ते बांझपन की कहानी कहता है. मुंबई में इंडिया सोसाइटी ऑफ असिस्टेड रिप्रोडक्शन के डॉ. हृषीकेश पै का कहना है, ''अगर देश में बच्चा पैदा कर सकने वाले, 18-44 आयु वर्ग में करीब 30 करोड़ लोग हैं तो उनमें से करीब 10 फीसदी लोग बांझपन के शिकार हैं.'' उनमें से 80 फीसदी सामान्य इलाज से ठीक हो सकते हैं, बाकी 60 लाख लोगों को आइवीएफ, आइसीएसआइ, एग डोनेशनन या सरोगेसी-की मदद लेनी होगी हालांकि महज 10 फीसदी ही उसका खर्चा बर्दाश्त कर सकते हैं. वे बताते हैं, ''देश में आइवीएफ का कारोबार प्रति वर्ष 20-30 फीसदी की दर से बढ़ रहा है.''{mospagebreak}

आइवीएफ चक्रों की बढ़ती संख्या बच्चों की ललक को दर्शाती है. अहमदाबाद में आइवीएफ सेंटर चलाने वाले डॉ. मनीष बैंकर का कहना है, ''एआरटी निस्संतान दंपतियों के लिए आशा की नई किरण है हालांकि यह उपचार शारीरिक, मानसिक और वित्तीय दृष्टि से बहुत मुश्किल है और उनमें सफलता निश्चित नहीं होती.''

अब दिल्ली की मीनू सिंह की मिसाल लीजिए. जिस महिला ने कभी एस्प्रिन तक नहीं खाई उसके लिए ओटीएस में जाना-आना, सैकड़ों गोलियां खाना और बार-बार इंजेक्शन लगवाना जिंदगी का हिस्सा बन गया है. उन्होंने नौ साल पहले अपने एक सहपाठी से विवाह किया था-दोनों दवा कंपनी में एक्जक्यूटिव हैं और उनकी आयु 35 साल है. वक्त बीतने के साथ ही जब गर्भधारण करने का इंतजार बढ़ता गया तो वे एक क्लीनिक में जा पहुंचीं. पिछले तीन साल के दौरान उन्होंने कई भंवर झेले- अपने गर्भाशय को ठीक कराया, शुक्राणुओं के नमूने जमा किए, अंडाणु निकलवाए, भ्रूण को बर्फ में जमाया, बार-बार गर्भपात झेला, शरीर को गर्भावस्था के चक्र से अलग किया. उनका वजन घटा-बढ़ा, रक्तस्त्राव हुए, ग्लूकोज चढ़ाया गया, भावनात्मक उतार-चढ़ाव का दौर झेलना पड़ा और बार-बार खुद से यह सवाल पूछना पड़ा, ''क्या सचमुच हमें इससे गुजरने की जरूरत है?'' इस बार उनके तीसरे आइवीएफ चक्र में उनके सारे अंडाणु 'ग्रेड ए' के हैं. हालांकि वे बार-बार उम्मीद और नाउम्मीदी का दौर झेलकर और 5 लाख रु. खर्च करके परेशान हो चुकी हैं लेकिन उन्हें एक बच्चे की चाहत है, जिसे वे ''अपना बच्चा'' कह सकें.{mospagebreak}वैसे, बांझपन शब्द अस्पष्ट बना हुआ है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य कल्याण संस्थान (एनआइएफ-एचडब्ल्यू) का विशाल परिसर जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य के प्रति प्रतिबद्धता का गवाह है. इस संस्थान में पिछले दो दशक से एक इनफर्टिलिटी क्लीनिक चल रहा है लेकिन उसमें मुख्यतः परिवार नियोजन, जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य पर ज्‍यादा ध्यान दिया जाता है. और ऐसा क्यों न हो? आखिर बांझपन भारत के रडार पर कभी नहीं रहा, भले ही यहां 1947 में औसतन प्रति महिला छह बच्चे को जन्म देती थी, अब यह औसत 2.1 रह गया है. आज संतानहीनता के सवाल पर विशेषज्ञों में मतभेद है-कुछ कहते हैं कि यह तेजी से बढ़ रही है, जबकि कुछ इस बात को खारिज कर देते हैं. इस शब्द की परिभाषा पर भी सहमति नहीं है. अगर कोई महिला एक साल तक गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल किए बगैर सक्रिय प्रयास करने के बावजूद गर्भधारण नहीं कर पाती तो क्या आप इसे बांझपन कहेंगे?

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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसकी समय सीमा बढ़ाकर दो साल कर दी है. जब कोई महिला 40-44 के आयु वर्ग में पहुंच जाती है और गर्भ निरोधकों के बिना संभोग के बावजूद 'जीवित बच्चे' को जन्म नहीं दे पाती तो बांझपन 'संतानहीनता' में बदल जाता है. और 'सक्रिय प्रयास' का मतलब क्या होता है? इस बारे में किसी को ठीक से मालूम नहीं है.{mospagebreak}यहां तक कि संतानहीनता के शिकार लोगों को भी पता नहीं है. '70 के दशक में जब कनुप्रिया के माता-पिता बेला और प्रभात अग्रवाल ने डॉ. सुभाष मुखर्जी से भेंट की थी तब वे विवाह के 11 साल बाद भी एक बच्चे को जन्म नहीं दे पाए थे. लेकिन आजकल जब डॉ. नीना मल्होत्रा एम्स के इनफर्टिलिटी क्लीनिक में रोगियों को देखती हैं तो उन्हें 'सक्रिय प्रयास' शब्द उन सारी बातों की खिल्ली उड़ाता लगता है जो उन्होंने मानव यौन संबंधों के बारे में पढ़ा था. वे कहती हैं, ''मुझे मध्य -वर्ग के काफी ऐसे युवा दंपतियों के बारे में मालूम है जो आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम संभोग करते हैं.''

पिछले सप्ताह उनके पास तीसेक साल का एक ऐसा दंपती आया जो आठ साल से विवाहित है और पिछले तीन साल से बच्चा पैदा करने की कोशिश कर रहा है. उन्होंने बताया कि वे सारी कोशिशें करते हैं-यह भी बता दिया कि जब उनमें से एक घर पर होती है तो दूसरा दफ्तर में या देश भर के दौरे पर निकला होता है. वे बताती हैं, ''उन्हें पता नहीं होता कि अनियमित यौन संबंध से अंडाणु निकलने के चक्र को गंवाया जा सकता है, जो गर्भधारण के लिए महत्वपूर्ण होता है.''

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सप्ताह में एक बार. जोड़े में से कोई एक. संभोग न करने का कोई बहाना निकालता है. 2002 में बंगलुरू के इंजीनियर दंपतियों पर डॉ. कामिनी राव के अध्ययन से यही पता चला. फोग्सी के अध्यक्ष डॉ. संजय अनंत गुप्ते पुणे के युवा पेशेवरों में इसी तरह की कामेच्छा की कमी देखते हैं. {mospagebreak}गुप्ते का कहना है, ''जब तक वे अपने जेहन से दफ्तर के कामकाज को बाहर निकालते हैं तब तक वे शॉपिंग मॉल में पहुंच गए होते हैं और फिर अपनी मर्जी से सारे टीवी कार्यक्रम देख चुके होते हैं. ऐसे में संभोग के लिए समय ही नहीं बचता.'' इसके साथ ही कामकाज के उलटे-पुलटे समय, निष्क्रिय जीवन शैली, अस्वास्थ्यकर भोजन और जबरदस्त तनाव शरीर में हॉर्मोन-विशेषकर प्रोलैक्टिन-का संतुलन बिगाड़ देते हैं. संतान-हीनता से जुड़े हर तीसरे मामले में प्रोलैक्टिन का स्तर बहुत ज्‍यादा होता है. जंक फूड, धूम्रपान, शराब, मादक पदार्थ, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक विकिरण, तनाव, नींद की कमी और प्रदूषण इन पेशेवरों की परेशानी बढ़ाते हैं. तीन बार गर्भपात के बाद चेन्नै की प्रिया और सतीश को उस समय झ्टका लगा जब उन्हें मालूम हुआ कि प्रिया गर्भ क्यों नहीं धारण कर पाती- सतीश चेन स्मोकर थे. प्रिया बताती हैं, ''उस धुएं की वजह से मेरा गर्भाशय प्रभावित हुआ.'' आखिर सतीश ने सिगरेट से तौबा की.

मुंबई के एक शेयर दलाल की मिसाल पर गौर कीजिए. वह चिड़चिड़ा था, उसकी आंखों के नीचे काले धब्बे थे, पेट की समस्याएं थीं और कभी-कभी सांस लेने में परेशानी होती थी. वह पिता नहीं बन पा रहा था. उसके शुक्राणुओं की संख्या भी अलग-अलग आती थी-10 लाख से 2 करोड़ के बीच. {mospagebreak}जसलोक में न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट डॉ. राजेश एम. पारीख का कहना है, ''मुझे संदेह हुआ कि निरंतर तनाव की वजह से उसका स्वास्थ्य और प्रदर्शन प्रभावित हो रहा है. मैंने उससे पूछा कि क्या उसके जीवन का तनाव उसके मुनाफे और घाटे से जुड़ा हुआ है.'' वह व्यक्ति तीन ग्राफ तैयार करके लौटा-सेंसेक्स, उसके मुनाफे, और उसके शुक्राणुओं की संख्या का. सब एक-दूसरे से जुड़े हुए लग रहे थे. जाहिर है, उसके शुक्राणुओं की संख्या उसके मुनाफे और घाटे के मुताबिक घट-बढ़ रही थी.'' दुनिया भर के अध्ययनों में बांझपन को तनाव से जोड़ा गया है. डॉ. पारीख कहते हैं, ''अधिक तनाव से पुरुषों के शुक्राणुओं की गुणवत्ता और संख्या प्रभावित होती है तो महिलाओं में अंडाणुओं के निषेचन की क्षमता भी.''

लंबे अरसे तक, बांझपन का दोष सिर्फ महिलाओं पर लगाया जाता था. आज फैलोपियन ट्यूब की खराबी-जो 40 फीसदी बांझपन की वजह है-के अलावा कई नए मामले सामने आ रहे हैं. मिसाल के तौर पर क्लेमाइडिया सबसे सामान्य यौन संक्रमण है. प्रायः इसके लक्षण नहीं दिखते और यह जननांगों को हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त कर देता है. रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में यह 0.2 से 40 फीसदी मामलों में है और इसके बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है. {mospagebreak}इसी प्रकार महिलाओं को उनके प्रजनन काल में 16 से 22 फीसदी फाइब्रॉएड के मामले पाए गए हैं और इनफर्टिलिटी क्लीनिक जाने वाली 50 फीसदी महिलाओं को इसकी शिकायत है. इसके अलावा, जननांगों में तपेदिक रोग (टीबी) के 18 फीसदी मामले भी हैं.

आनुवांशिकी में हो रहे शोध भी बांझपन के इलाज में काफी कारगर साबित हो रहे हैं. सेंटर फॉर सेल्यूलर ऐंड मॉल्यूक्यूलर बायोलॉजी की लक्ष्मी राव का कहना है, ''क्रोमोसोम में परिवर्तन से आनुवांशिक गड़बड़ी पैदा हो सकती है और यह बांझपन की समस्याओं में दिखता है.'' क्रोमोसोम में परिवर्तन आज गर्भाशयों की विफलता के 14 फीसदी मामलों और बार-बार गर्भपात के 8.2 फीसदी मामलों के लिए जिम्मेदार है.

बांझपन के ह्नेत्र में एक नई शब्दावली 'स्वैच्छिक बांझपन' का इस्तेमाल हो रहा है, जो पूरी तरह देश के शहरी इलाकों की खासियत है. इसकी जड़ में यह विचार है कि 'बायोलॉजिकल क्लॉक' कोई मिथ्या नहीं है-आम महिला के 90 फीसदी अंडाणु 37वें वर्ष में खराब हो जाते हैं. इस नए रुझन के केंद्र में है शिक्षित, स्वतंत्र, करिअर उन्मुखी नई महिला, जो जीवन में बेहतरीन चीजें हासिल करने तक विवाह और बच्चा जनने से बचती है. लेकिन जब तक वह बच्चा जनने का फैसला करती है तब तक उसकी जैविक घड़ी  धीमी पड़ जाती है. उसे बच्चा जनने के लिए एआरटी विशेषज्ञों की मदद की दरकार होती है. एनआइएफएचडब्ल्यू के देवकी नंदन कहते हैं, ''अब लोग तीसेक या यहां तक कि चालीसेक साल की उम्र से पहले बच्चा पैदा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. और चूंकि महिला की उम्र बढ़ने के साथ ही उसकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है लिहाजा हमें गर्भधारण की कोशिश करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती दिख रही है. यह शहरी भारत में सबसे ज्‍यादा दिखने वाला परिवर्तन है.''{mospagebreak}विशेषज्ञों की मदद से गर्भधारण की सफलता की दर 30 फीसदी है. उनका क्या होता है, जो गर्भधारण नहीं कर पातीं? पंद्रह साल तक गर्भधारण करने के प्रयास में विफल रहने के बाद 35 वर्षीया पद्मा हैदराबाद स्थित इनफर्टिलिटी इंस्टीट्यूट ऐंड रिसर्च सेंटर की डॉ. ममता दीनदयाल के पास पहुंचीं. उनके पति ने उन्हें चेतावनी दे रखी थी कि अगर एक साल के भीतर के गर्भधारण नहीं कर पाईं तो उन्हें छोड़कर वह दूसरी शादी कर लेगा. इलाज के दौरान पद्मा ने गर्भधारण तो कर लिया पर बच्चे को जन्म नहीं दे पाईं. डॉ. दीनदयाल को अब उनका चेहरा याद है जब वे रोते हुए क्लीनिक से जा रही थीं. असहनीय प्रताड़ना के कारण पद्मा ने आत्मदाह कर लिया. डॉ. दीनदयाल ने उन्हीं की याद में सृष्टि नामक रोगी सहायता ग्रुप बनाया जिसमें पद्मा जैसी महिलाओं की जिंदगी बेहतर बनाने में डॉक्टर, काउंसेलर और कानूनी सलाहकार मदद करते हैं.

कनुप्रिया से पद्मा तक बांझपन के विभिन्न रंग-रूप दिखते हैं. इसके साथ ही गर्भधारण का विज्ञान दंपतियों को प्रकृति से जीतने में मदद कर रहा है. लेकिन इन बेहतरीन इलाजों के वित्तीय दबाव, दवाओं के दूसरे असर और शारीरिक कष्ट अभी तक जाहिर नहीं हो पाए हैं. एक ओर जहां माता-पिता के प्यार और ललक की वजह से हाइटेक बच्चे पैदा हो रहे हैं, वहीं इस बाजार में कुछ चीजें धुंधली हैं. {mospagebreak}प्रजनन की अत्याधुनिक तकनीकों, कलंक और सामाजिक दबावों के बूते यह कारोबार चल रहा है. इसमें दंपती अंडाणुओं, शुक्राणुओं, गर्भ, जीन खरीदने-बेचने और बच्चों को गोद लेने के लिए मजबूर हैं. कोई महिला खुशकिस्मत हो सकती है और उन दंपतियों की तरह हो सकती है जो आसानी से इन इलाजों में खास परेशानी के बिना गर्भधारण कर सकती है. लेकिन ऐसे बदकिस्मत दंपतियों की संख्या काफी है जो बच्चे की चाहत में इन इलाजों पर पैसे फूंकते रहते हैं. एक ओर जहां महिला अपने इलाज के दौरान गर्भधारण के आगे अपने जीवन के  सारे पहलुओं को नजरअंदाज कर देती है, वहीं पुरुष अपनी पत्नी के मूड में बदलाव, 'सेक्स ऑन कमांड' और जीवन से जूझ् न पाने के कारण परेशान रहते हैं.

ऐसे में आश्चर्य नहीं कि आइसीएमआर बच्चा पैदा करने के कारोबार को नियंत्रित करने के लिए नियमन ढांचा तैयार करने पर विचार कर रही है. इस बीच आइआइपीएस के अध्ययन से यह आशंका बढ़ती है कि संतानहीनता के मामले बढ़ने से प्रजनन का चिकित्साकरण हो सकता है, नई समस्याएं और इलाज पैदा हो सकते हैं, उम्मीदी और नाउम्मीदी का नया चक्र शुरू हो सकता है और तकनीक की मदद से बच्चा पैदा करने का प्रचलन शुरू हो सकता है और शायद माता-पिता बनने की नई परिभाषा गढ़नी पड़ सकती है. क्या सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए इससे बड़ी कोई और चुनौती हो सकती है?

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