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फंतासी की दुनिया: जारी है अंतरद्वंद्व

परेशान-सी नजर आने वाली वह महिला डॉक्टर से अनुरोध करती है कि उसके पति में 'ताकत की कमी' को दूर करने के लिए कुछ करे. डॉक्टर उसके पति में ऊर्जा का संचार करने के लिए 'कमरे' में भेज देता है.

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परेशान-सी नजर आने वाली वह महिला डॉक्टर से अनुरोध करती है कि उसके पति में 'ताकत की कमी' को दूर करने के लिए कुछ करे. डॉक्टर उसके पति में ऊर्जा का संचार करने के लिए 'कमरे' में भेज देता है. और दर्शकों को उस कमरे की यानी बाथरूम की एक झलक मिलती है, जिसकी फिटिंग्स और बाथ टब देखकर पुरुष में उत्तेजना का संचार हो जाता है. जाहिर है, बाथरूम ने अपना कमाल दिखाया और उस शख्स की 'ऊर्जा' लौट आई, कम से कम बाथरूम में या फिर सिर्फ बाथरूम के लिए ही. दर्शकों में जिन महिलाओं के पति इस समस्या से ग्रस्त हैं, वे कम से कम थोड़ी उम्मीद कर सकती हैं.

विज्ञापन में अंतर्निहित सेक्सुएलिटी एकदम स्पष्ट है, लेकिन मीडिया निर्मित फंतासियों के लिए जो स्थान चुने गए हैं, वे भी दिलचस्पी बढ़ाते हैं. जब चर्चा सेक्स की हो तो 'कहां' भी उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता है. इस विज्ञापन में वह जगह बाथरूम है तो दूसरे विज्ञापन में होटल रूम. दाअसल, इंडिया टुडे-एसी नीलसन-ओआरजी मार्ग सेक्स सर्वेक्षण, 2009 में जिन पुरुषों को शामिल किया गया, उनमें 34 फीसदी ने होटल के कमरे में सेक्स को सबसे बड़ी फंतासी माना और 28 फीसदी तो इस फंतासी को अमली जामा भी पहना चुके थे.

इस फंतासी में अहमदाबाद के पुरुष सबसे आगे रहे, जहां 72 फीसदी ने सेक्स फंतासी होटल के कमरे को लेकर बुनी. और 28 फीसदी पुरुष ऐसा कर भी चुके थे-अहमदाबाद में 65 फीसदी और कोलकाता तथा लुधियाना में 48-48 फीसदी. सर्वेक्षण में शामिल 24 फीसदी महिलाओं ने सेक्स फंतासी होटल के कमरे को लेकर बुनी (मुंबई में यह आंकड़ा 68 फीसदी था). इनमें 25 फीसदी (लुधियाना में 50 फीसदी) होटल के कमरे में सेक्स फंतासी को असलियत में बदल चुकी थीं.

यौन संबंधों के लिए स्थान सचमुच महत्वपूर्ण है-55 फीसदी महिलाएं अपने शयनकक्ष में ही यौन संबंधों की फंतासियां बुनती हैं, जबकि सिर्फ 14-14 फीसदी समुद्र तट पर या झरने के नीचे यौन संबंधों का आनंद लेने की बात सोचती हैं और 8 फीसदी की पसंदीदा जगह घर की छत है. तो पुरुषों में 67 फीसदी अपने शयन कक्ष में यौन संबंधों की फंतासी में रहते हैं, 6.9 फीसदी की फंतासी झरने अथवा समुद्र तट और 20 फीसदी छत पर यौन संबंध को फंतासी मानते हैं. जाहिर है, सार्वजनिक स्थलों की तुलना में निजी-एकांत स्थान यौन फंतासियों को अधिक लुभाते हैं. या फिर इसकी वजह यह है कि हम सार्वजनिक स्थलों पर ऐसी बातें कहने या करने की सोच भी नहीं सकते. क्या हमें यह डर है कि हम पर जरूरत से ज्‍यादा प्रयोग में लाए गए शब्द 'अश्लील' का ठप्पा लग जाएगा?

कानूनी दृष्टि से भारतीय दंड विधान की धारा 294 के तहत सार्वजनिक स्थलों पर किसी भी तरह के 'अश्लील' व्यवहार को सजा के योग्य माना गया है. लेकिन अश्लील व्यवहार की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, और आपके पास बैठे सज्‍जन की संवेदनाओं को मामूली-सा उकसा देने वाला कोई भी व्यवहार उसके दायरे में आ सकता है. इस साल मई में एक फैशन वीक के दौरान रैम्प वॉक के दौरान अभिनेता अक्षय कुमार को सार्वजनिक स्थल पर अशोभनीय, अश्लील व्यवहार का इसलिए दोषी पाया गया कि उन्होंने दर्शकों में बैठी अपनी पत्नी ट्विंकल को अपनी जींस के बटन खोलने को कहा था. सेक्स की बात तो भूल ही जाइए, सार्वजनिक रूप से इसकी ओर संकेत भी बहुतों के गले नहीं उतरता.{mospagebreak}

सेक्स तो दूर, सार्वजनिक स्थलों पर चुंबन पर भी प्रतिबंध है. 2004 में बॉलीवुड फिल्म अभिनेत्री करीना कपूर ने एक टेबलॉयड (छोटे आकार के अखबार) के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी थी. अखबार ने उनके साथी कलाकार और तब ब्वॉयफ्रेंड शाहिद कपूर के फोटो प्रकाशित किए थे. करीना का दावा था कि वे एक सम्मानित परिवार से संबंध रखती हैं और 'ऐसा' कभी नहीं करेंगी. यह भी दिलचस्प है कि उन्होंने प्रतिवाद का आधार अपनी इज्‍जत को बनाया, गोपनीयता के अपने अधिकार को नहीं. दूसरी सूरत में यह तर्क दिया जा सकता था कि किसी को उसके नितांत गोपनीय क्षणों की फोटो खींचने और फिर मुनाफे के लिए उन्हें बेचने का अधिकार नहीं है. मैं कहना चाहूंगी कि चुंबन को लेकर समस्या यह थी कि लोगों ने शाहिद और उनके बीच यौन अंतरंगता की धारणा भले ही बना ली थी, लेकिन वह सब गोपनीय ही था. बहरहाल, अंतरंग जीवन की सचाई के सार्वजनिक होने से करीना कपूर की 'अच्छी लड़की' होने की छवि खतरे में पड़ गई.

यदि कुछ लोगों को चुंबन का सार्वजनिक प्रदर्शन पसंद नहीं तो दूसरे इसे गंदी चीज भी मानते हैं. फिल्म विद्वान एम. माधव प्रसाद ने जोर-शोर से तर्क दिया था कि 1980 के दशक के अंत तक हिंदी सिनेमा में चुंबन पर अलिखित प्रतिबंध था, क्योंकि दूसरी चीजों की तरह यह अ-भारतीय था, जो तयशुदा निजी-सार्वजनिक सीमाओं का उल्लंघन करता था.

उपभोक्तान्मुखी कल्पनाओं के जरिए हमें लुभाने वाली फंतासियां विलासितापूर्ण रिसॉर्ट में परफेक्ट सेक्स का वादा करती हैं और हमें न्यौता देती हैं कि हम खुद को लजीज व्यंजनों का मजा लेते हुए, बेल्जियम में बने गिलासों में शैंपेन के घूंट भरते हुए, गुलाब की पत्तियों से भरे स्पा का आनंद लेने की कल्पना करें, जहां हमारे 'दूसरे' फिजा को खुशबू से महका देते हैं. ये फंतासियां निश्चित रूप से दो हेट्रोसेक्सुएल (बहुलिंगी) लोगों के एकांत क्षणों की हैं. दर्शक वहां आमंत्रित नहीं हैं, सिवा 'दूसरों' के जो सिर्फ ऐसे स्पा के कामुक आनंद की कल्पना कर सकते हैं. सार्वजनिक रूप से सेक्सुएलिटी का संकेत भी देने के साथ समस्या इसके सार्वजनीन होने की है-निजी और सार्वजनिक के बीच नकली लेकिन मजबूती से खींची गई सीमाओं के उल्लंघन की.

मुंबई की सड़कों पर एक-दूसरे से अंतरंगता बनने की कोशिश करते जोड़ों से जो सवाल पूछा जाता है, वह है-क्या तुम्हारे पास घर या एकांत स्थान नहीं है? तो सचाई यह है कि उनके पास अक्सर यह नहीं होता. और वह इसलिए नहीं होता कि माता-पिता कड़े प्रतिबंध लगा देते हैं. एकांत इसलिए भी नहीं मिलता क्योंकि उनके घर बहुत छोटे होते हैं, और वहां बहुत अधिक लोग रहते हैं. जब प्रेम के सार्वजनिक इजहार को बंद दरवाजों के पीछे धकेल दिया जाता है तो मध्यमवर्ग की नैतिकता लागू की जाती है, वह नैतिकता, जो दो बेडरूम-हॉल-किचन और बंद दरवाजों का तकाजा करती है.

ग्लोबल सेक्सुएलिटी के जिस आगमन का मीडिया जश्न मना रहा है, उसे इरादतन विशिष्ट बनाया गया है और बेहद संकीर्ण भी. ऐसी सेक्सुएलिटी जो सिर्फ एक वर्ग विशेष की चाहतों को ही पहचानती है, और वह वैसे ही विशिष्ट स्थानों पर अवस्थित हो सकती है. मसलन, शॉपिंग मॉल, कॉफी शॉप, मल्टीप्लेक्स, रिसॉर्ट्स और मध्यमवर्गीय घर. यह ऐसी सेक्सुलिटी भी है जो एकदम परफेक्ट, तराशे हुए, आकर्षक और खुशबू से महकती बहुलिंगी देहों की अपेक्षा करती है, हालांकि संभ्रांत वर्ग और पेशे की गे (पुरुष समलिंगी) और लेस्बियन (महिला समलिंगी) देह भी निषिद्ध नहीं है.{mospagebreak}

सेक्सुएलिटी का ऐसा जश्न इसके विस्तार की बजाए दोनों तरह से इसे संकुचित करता है-स्थान के मामले में भी, जहां यौन इच्छाओं की अभिव्यक्ति की जा सकती है और अभिव्यक्ति के तरीकों में भी. यह उद्यानों में बैठे जोड़ों को नकारता है और जिन जोड़ों को शहर में जगह नहीं मिलती, उन्हें टिकने नहीं देता. यह झेंपड़-पट्टी में रहने वालों को मिटा देता है जो अंधेरे में यौन क्रियाएं करते हैं, क्योंकि दिन में वहां दूसरे लोग भी रहते हैं. सबसे बढ़कर, यह निजी और सार्वजनिकता की मनमाने तौर पर खींची गई सीमाओं का उल्लंघन करते हुए शहर को अपना कहने की इच्छा के लोगों के दावों को भी खारिज करता है.

सेक्स सर्वेक्षण के आंकड़े दर्शाते हैं कि सर्वेह्नण में शामिल की गई महिलाओं में सिर्फ 14 फीसदी ने किसी अजनबी के साथ यौन संबंध बनाने की इच्छा रखने का दावा किया. इसके विपरीत, सर्वेक्षण में शामिल 53 फीसदी पुरुषों ने अजनबी महिला के साथ सेक्स करने की इच्छा जाहिर की. सिर्फ 6 फीसदी महिलाओं का कहना था कि वे किसी जानी-मानी शख्सियत के साथ यौन संपर्क चाहती हैं जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा 30 फीसदी था. तो अब जो सवाल पूछा जाना चाहिए वह यह है कि आंकड़ों में इतनी भिन्नता क्यों? आखिरकार ये महज फंतासियां हैं और यदि कोई नहीं चाहता, या ऐसा करने से डरता है, या उसे अवसर नहीं मिलता है तो उसको इन्हें अमली जामा पहनाने की जरूरत नहीं है.

सर्वेक्षण में शामिल 44 फीसदी महिलाओं (लुधियाना, जयपुर और लखनऊ में यह आंकड़ा क्रमशः 76, 65 और 58 फीसदी था) का कहना था कि वे अपनी फंतासियों को अमली जामा नहीं पहनाना चाहतीं. इसके विपरीत सिर्फ 35 फीसदी पुरुष (जयपुर में 60 फीसदी) फंतासियों को हकीकत में नहीं ढालना चाहते थे. यदि हममें से कई अपनी फंतासियों के अनुरूप चलना नहीं चाहते-तो फिर उन पर अंकुश क्यों? क्या हमारे दिमाग में हमेशा ही पुलिस घुसी रहती है? क्या हमारा शरीर ऐसा आज्ञाकारी बन गया है, जिस पर अनुशासित दिमाग का नियंत्रण होता है? आखिर हमें फंतासियां बुनने से कौन रोकता है? शायद यह मानसिकता कि 'मैं फंतासियों में भी अपने साथी से बेवफाई नहीं कर सकता' या यह कि 'जहां कहीं, किसी के भी साथ सेक्स अनैतिक है और इस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए' अथवा 'किसी अजनबी के साथ सेक्स? इससे बड़ी मूर्खता क्या होगी? वह क्रूर हत्यारा हो सकता है? या फिर यौन रोगों का वाहक?' ये जटिल बयान हैं, जिनकी गूढ़ व्याख्या किए जाने की जरूरत है, लेकिन सिर्फ तर्क के लिए ही कुछ सरल सामान्यीकरण में उतरना ठीक रहेगा.{mospagebreak}

पहला बयान सेक्सुएलिटी को एक पति/पत्नी (जीवनसाथी) के साथ रिश्ते समझने वाला मानक है. दूसरा, जाहिरा तौर पर न सिर्फ एक नैतिक मानक का हिस्सा है बल्कि बल्कि प्रायः ही सेक्सुएलिटी का रोमांटिक पहलू, जिसमें शरीर के साथ-साथ गहन भावनाएं भी जुड़ी होती हैं. तीसरा, एक नारीसुलभ प्रतिक्रिया है, जो वर्षों की हिंसा के खिलाफ संघर्ष है, और नई ब्रिगेड यानी सेफ सेक्स ब्रिगेड पुलिस, का हिस्सा भी. हममें से कई खुद को इस वर्ग में पहचान सकते हैं.

नृविज्ञानी कैरोल वांस ने कभी प्रसिद्ध तर्क दिया था कि यौन हिंसा को सार्वजनिक करने में नारीवाद की सफलता के अलावा गैर-इरादतन ही सही, यह परिणति भी थी कि यौन मामलों में महिलाएं पहले की अपेक्षा कम सुरक्षित हैं और यह कि 'यौन आनंद की चर्चा और अन्वेषण को किसी सुरक्षित समय तक के लिए छोड़ दिया जाए तो ठीक है.' अब जब हम यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, वांस तब भी यौन आनंद की बात करने की जरूरत पर जोर देते हैं. और हम अपनी जरूरत के अनुसार काम करते रहना जारी रख सकते हैं, तब भी जब खुद को यौन रोगों से सुरक्षित रखते हैं.

महिलाओं को कई तिकड़में अपनाते हुए अपने 'यौन जीवन' को जीवंत' बनाने के प्रोत्साहक संकेत मिलते जा रहे हैं. युवा महिलाओं से उस महीन और अदृश्य रेखा पर चलने को कहा जा रहा है, जो उनमें यौन आकर्षण की अपेक्षा करती है, लेकिन छिछोरी का ठप्पा पाए बिना. यह भी कि वे पूरी तरह आदर्श भारतीय नारी बनी रहें लेकिन फूहड़ आंटी नजर न आएं. तब हम बढ़ती मांगों और साफ नजर आते खतरों से भरी दुनिया में आनंद और फंतासी की बात कैसे सोच सकते हैं? हम एक आकर्षक और दूसरों का मन भाने वाली महिला बनने की कल्पना साकार करने की ओर बढ़ रही हैं तो फंतासियों के लिए सुरक्षित 'स्थान' कौन-सा होगा? अपनी फंतासियों और इच्छाओं की अभिव्यक्ति का कौन-सा मंच सटीक होगा, जो रोमांचक भी हो और सुरक्षित भी? इसका कामचलाऊ और उपयोगी जवाब हो सकता है इंटरनेट.{mospagebreak}

इंटरनेट चैटरूम में मैं कुछ भी बन सकती हूं, अपना नया रंग-रूप गढ़ सकती हूं (असली रूप की तुलना में काफी खूबसूरत), नई उम्र बता सकती हूं (असल की तुलना में बहुत कम) और नया व्यक्तित्व गढ़ सकती हूं (सेक्स की दृष्टि से दुस्साहसिक). मैं अपना व्यवसाय, अपना शहर, अपनी वैवाहिक स्थिति, यहां तक कि चाहूं तो अपना लिंग परिवर्तन भी कर सकती हूं. मैं परंपरावादी खूबसूरत महिला बन सकती हूं और सफल बांका पुरुष भी. अथवा 'विकृत' इच्छाएं रखने वाला 'पथभ्रष्ट' भी हो सकती हूं. इस नए व्यक्तित्व के साथ, काल्पनिक व्यक्तित्व बन मैं किसी के साथ भी चैट कर सकती हूं, अगली बार इंटरनेट पर अलग ही शख्सियत बन सकती हूं, और मेरी इच्छाएं भी अलग ही होंगी.

हां, सड़क पर प्रेम की तरह इंटरनेट भी एकदम सुरक्षित जगह नहीं है और यहां मिलने वाले सुख के साथ खतरे की भी उतनी ही संभावना है. लेकिन मैं यहां यह तर्क दूंगी कि तकनीकी दृष्टि से परिष्कृत इस माध्यम में पहचान छिपाने में सावधानी बरती जाए तो यह ऐसे स्थान में फंतासियों की उड़ान की संभावना देता है जहां सीमाएं सड़क की तुलना में अधिक तरल होती हैं. बेशक यह संभावनाओं का अंत नहीं है, क्योंकि हमें अगला कदम बढ़ाने से कौन रोक सकता है. ऑनलाइन कनेक्शन के दूसरी ओर बैठे अनजान शख्स से मिलने, कॉफी पीने और बात करने जाइए, क्या पता क्या हो जाए?

मेरा तर्क है कि इस संभावना की वजह से ही महिलाओं की इच्छाओं पर इतना जबरदस्त नियंत्रण है और हम अपनी फंतासियों पर लगाम कसना सीख जाती हैं? क्योंकि आज हम अजनबियों और सेलिब्रेटीज के बारे में भले ही फंतासियां बुन लें, कल उनके साथ इंटरनेट पर बात कर सकते हैं, अगले हफ्ते पोर्नोग्राफी देख सकते हैं, अगले महीने अपने अजनबी दोस्तों से मिलने का कार्यक्रम बना सकते हैं, और इसके बाद 'भारतीय पारिवारिक जीवन' का ताना-बाना पहले जैसा कभी नहीं रहेगा. असल प्रयास अपनी इच्छाओं की तलाश का नहीं बल्कि उन्हें वैध रूप देने का है. क्योंकि 14 फीसदी महिलाएं हैं, और अधिक भी हो सकती हैं, जो इसकी वकालत कर रही हैं. वे अपनी खतरनाक इच्छाओं की अभिव्यक्ति के अधिकार का दावा कर रही है. उसे पाने का प्रयास न सिर्फ सही है बल्कि उसके बारे में बोलना भी.

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लेखिका मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस में सेंटर फॉर मीडिया ऐंड कल्चरल स्टडीज की सहायक प्रोफेसर हैं.

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