"/> कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून बनाने का काम क्या अब अंजाम पर पहुंचेगा?
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सवा साल पहले 30 वर्षीया मालिनी शाह को उनकी कंपनी ने 20 सदस्यीय टीम के सदस्य के रूप में एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए चुना था. उनकी कंपनी सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित सेवाएं (आइटीईएस) मुहैया कराती है. प्रोजेक्ट चुनौतीपूर्ण था और शाह उसको लेकर काफी उत्साहित थीं.
शुरू में उनका मैनेजर सबसे ज्यादा मदद करता था और उनका संरक्षक बना हुआ था. लेकिन जब उसने देर रात में फोन करना शुरू किया और आधे-आधे घंटे तक बातें करने लगा तब शाह असहज महसूस करने लगीं. चूंकि वे अपनी टीम में इकलौती महिला थीं लिहाजा उन्हें मालूम नहीं था कि वे इसके बारे में किससे चर्चा करे.
उनके सामने पूरे प्रोजेक्ट के दौरान इस तरह के व्यवहार के बारे में खामोश रहने के अलावा खास चारा नहीं था. प्रोजेक्ट तो खत्म हो गया पर उनके प्रति मैनेजर की दिलचस्पी कम नहीं हुई और उसने मेल भेजना जारी कर दियाः ''तुम मुझसे बात क्यों नहीं कर रही हो?'' शाह को इससे निबटने का तरीका मालूम नहीं था, और उन्होंने कंपनी छोड़ने में ही भलाई समझी. क्या उन्हें ये बातें अपने वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं बतानी चाहिए थी? वे पूछती हैं, ''आपको इतना जल्दी कैसे पता चल जाएगा कि यह परेशान करने वाला व्यवहार है. जब तक यह खुल्लमखुल्ला न हो तब तक इसका अंदाजा लगाना काफी मुश्किल होता है.''
उनतीस वर्षीया अनीता शर्मा 2009 के शुरू तक अहमदाबाद स्थित एक कंपनी के सेल्स एवं मार्केटिंग विभाग में काम करती थीं. वे वहां पांच वर्षों से काम कर रही थीं और एक टीम की प्रभारी थीं. {mospagebreak}शर्मा कॉर्पोरेट सीढ़ियां चढ़ने के लिए उत्साहित रहती थीं. लेकिन धीरे-धीरे उन्हें एहसास होने लगा कि उनके काम को कम किया जा रहा है, और उनके लक्ष्य पर सवाल उठाए जा रहे हैं. शर्मा को यकीन हो चला कि उन्हें दरकिनार किया जा रहा है. उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात की, और उन्होंने उनके सामने सिर्फ एक विकल्प रखाः किसी दूसरे विभाग में चले जाइए. इसकी जगह शर्मा ने किसी और कंपनी में जाने का फैसला कर लिया. वे बताती हैं, ''इस तरह की चीजों से आप नहीं निबट सकतीं. या तो आप उनसे सीधी टक्कर लेती हैं या बाहर हो जाती हैं. बाहर होने का फैसला मेरा था.''
यह महज घूरने और चिकोटी काटने, या गंदे चुटकुले सुनाने या कामकाज के तनावग्रस्त माहौल में कॉफी मशीन के इर्दगिर्द आकर टकराने का मामला नहीं है. यह सब सबसे खराब किस्म के उत्पीड़न और पूर्वाग्रह में शामिल है, जिसका पता लगाना आसान है. लेकिन उस बॉस के बारे में बताना मुश्किल है जो परोक्ष रूप से यह संकेत देता है कि अधीनस्थ कर्मचारी को तरक्की देने के लिए उससे यौन संबंध स्थापित करना चाहता है-वह बॉस अपने अधीनस्थ को रात में खाना खिलाने ले जाता है और वहां आंखों से उसका रसास्वादन करता है. {mospagebreak}और फिर पूर्वाग्रह भी होते हैं- नौकरी पर रखने, प्रोन्नति देने, काम के बंटवारे, वेतन वृद्धि और लाभ देने, आदि में भेदभाव; और स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव से जुड़े मामलों (जैसे महिलाओं के मामले में जचगी के दौरान छुट्टी) में असंवेदनशीलता. यकीनन, कंपनी जगत में हर उस जगह पर भेदभाव-केवल भारत में ही नहीं बल्कि विकसित देशों में भी-है, जहां महत्वाकांक्षा है. और यह स्त्री-पुरुष और विभिन्न वर्गों तक व्याप्त हैः पुरुष किसी दूसरे पुरुष के साथ ही समलैंगिकों (पुरुष एवं महिला, दोनों) और उभयलैंगिकों का उत्पीड़न कर सकते हैं और उनके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं.
लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि महिलाओं को कॉर्पोरेट सीढ़ी चढ़ने की इच्छा की कीमत सबसे ज्यादा चुकानी होती है. दिल्ली में रहने वाली वकील वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ''कंपनी जगत को यह समझना होगा कि यौन उत्पीड़न हर जगह है और उसकी बहुत कम शिकायत होती है. मुझे नहीं लगता कि ज्यादातर कंपनियों को महिलाओं की मर्यादा की परिभाषा भी मालूम है.'' वे हाल के समय में महिलाओं के विरुद्ध दुर्व्यवहार के लिए आरोपित लोगों-जैसे हेलिट पैकार्ड के पूर्व सीईओ मार्क हार्ड और पेंग्विन इंडिया के डेविड दावीदार आदि-के नाम गिनाते हुए कहती हैं कि इस तरह के मामलों से यही जाहिर होता है कि अनुचित व्यवहार, यौन उत्पीड़न और महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह बरकरार हैं.
इसके बावजूद ज्यादातर कंपनियां यही कहती हैं कि ऐसा नहीं होता है या फिर यह कोई बड़ी बात नहीं है. और सारी समस्या की जड़ यह है कि ऐसे समय में जब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं कामगारों की जमात में शामिल हो रही हैं, उनमें से बहुत कम ऊंचे ओहदे पर पहुंच पाती हैं.{mospagebreak}महिलाएं विशेषकर इसलिए ज्यादा संवेदनशील हो जाती हैं क्योंकि वे सी-सुइट के एक्जक्यूटिव को अपना संरक्षक और पथ प्रदर्शक मान लेती हैं. और ज्यादातर प्रमुख पदों पर पुरुष बैठे हैं. भारतीय कंपनी जगत के वरिष्ठ पदों में से केवल 15 फीसदी पर महिलाएं विराजमान हैं. कंसल्टेंसी फर्म ग्रांट थॉर्नटन के एक अध्ययन के मुताबिक, इसकी वजह से भारत दुनिया के पांच सबसे नीचे के देशों में है.
विविधता के मुद्दों पर कंपनियों के साथ काम करने वाले संगठन इंटरवीव कंसल्टिंग की संस्थापक और सीईओ निर्मला मेनन का कहना है कि ज्यादा संगठनों के प्रमुख ऐसी हरकतों की ओर से नजर फेर लेते हैं, ''हर कोई यही सोचता है कि उनके संगठन में ऐसा नहीं होता.'' इससे कोई मदद नहीं मिल रही है कि कानून अभी बन रहा है. दफ्तर में यौन उत्पीड़न से महिलाओं को बचाने वाले विधेयक पर पिछले पांच साल से काम चल रहा है और इस साल के आखिर में इसे मंत्रिमंडल के सामने पेश किया जाना है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की बुनियादी परिभाषा विशाखा फैसले में (विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान सरकार एवं अन्य -1997) दी गई है.
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, इस तरह के व्यवहार में ये चीजें शामिल हैं- ''शारीरिक संबंध और प्रस्ताव जैसे अस्वागत योग्य यौन प्रेरित व्यवहार (चाहे वह प्रत्यक्ष हो या इशारे के रूप में हो); यौन संबंध की मांग या गुजारिश; अश्लील टिप्पणियां; पोर्नोग्राफी का प्रदर्शन; या कोई भी अस्वागत योग्य शारीरिक, मौखिक या अमौखिक यौन प्रकृति वाला व्यवहार.''{mospagebreak}इतना ही निराशाजनक यह भी है कि समाज ने महिलाओं के साथ भेदभाव को सामान्य जीवन का हिस्सा स्वीकार कर लिया है. विज्ञापन, टेलीविजन धारावाहिकों और फिल्म में महिलाओं को जिस तरह पेश किया जाता है, उससे उनकी विशेष छवि बनाने में मदद मिलती है.
किसी महिला को या तो घर बनाने वाली या समस्या पैदा करने वाली या ऐसी मेनका के रूप में दिखाया जाता है जो पुरुषों को सीमेंट खरीदने के लिए तैयार कर सकती है. जब तक वह स्विमसूट में है तब तक वह सब कुछ कर सकती है लेकिन कार्यस्थल उसके लिए नहीं बना है-और बोर्डरूम या दफ्तर का केबिन तो उसके लिए नहीं ही बना है. साथ ही बच्चे को जन्म देना और बुजुर्गों का ख्याल रखना कॉर्पोरेट सीढ़ी चढ़ने की राह में सबसे बड़ा बाधक माना जाता है.
भारत में रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड की कंट्री एक्जक्यूटिव मीरा सान्याल कहती हैं, ''महिलाएं अपने कॅरियर में ऊपर के पदों पर नहीं पहुंच पातीं क्योंकि वे इन निर्णायक मोड़ों पर विकल्प चुन लेती हैं. कौन मां कॅरियर के मुकाबले अपने बच्चे को नहीं चुनेगी?'' पूर्वाग्रहों पर जीने वाला समाज-और ऐसी भावनाएं दफ्तर में आराम से दिख जाती हैं-तभी बदल सकता है जब शिक्षित करने और जागरूक बनाने के प्रयास किए जाएंगे.{mospagebreak}टेक्सस इंस्ट्रूमेंटेशन (टीआइ) में इंडिया ऑपरेशंस के एचआर निदेशक संजय भान अपनी कंपनी में तीन साल पहले घटी एक घटना के बारे में बताते हैं. एक युवा कर्मचारी दूसरी जगह पर टीआइ के ठेकेदारों के साथ काम करने वाली एक महिला के प्रति प्रेम जताते हुए मेल भेजता था. वह महिला इससे परेशान थी और उसने मामला उठाया. दोनों कंपनियों ने इस मुद्दे पर बातचीत की और उस व्यक्ति को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया. भान कहते हैं, ''वह व्यक्ति एक कस्बे से आया था और उसे अंदाजा नहीं था कि उसकी हरकत को अस्वीकार्य व्यवहार माना जाएगा.''
कंपनी को भी एक सबक मिल गया. कंपनी में आने वाले नए लोगों को प्रशिक्षण देकर बताया जाता है कि उत्पीड़न का क्या मतलब होता है. यह उन उद्योगों के लिए भी सबक है जो कस्बे से आने वाले लोगों को बड़े पैमाने पर नौकरी देते हैं-या इंजीनियरिंग कॉलेज के युवक-युवतियों को रखते हैं, जहां स्त्री-पुरुष की संख्या कभी बराबर नहीं होती. जहाजरानी के महानिदेशक और स्त्री-पुरुष असंतुलन के विशेषज्ञ माने जाने वाले नौकरशाह सतीश अग्निहोत्री बताते हैं कि पूरी तरह से पुरुषों वाले संस्थानों से आने वाले कर्मचारियों के लिए स्त्री-पुरुष वाले दफ्तर में काम करने पर सामंजस्य बैठाना पड़ता है.
असहजता दूर करने के लिए उनका व्यवहार आक्रामकता की हद तक पहुंच जाता है. विशेषकर महिलाओं को पुरुषों के वर्चस्व वाली भूमिका की होड़ में देखा जाता है, तब इस तरह के रवैये के समय प्रतिभा की अनदेखी होती है. {mospagebreak}इसकी अच्छी मिसाल डनलप (जब उसके अच्छे दिन थे) है जब पुरुष महिलाओं की नियुक्ति पर इसलिए आपत्ति जताते थे क्योंकि ''वे आधी रात में सड़क के किनारे ढाबे पर टायर नहीं बेच पाएंगी.'' और उन्हें कोई यह नहीं समझ सकता था कि आधी रात को सड़क के किनारे ढाबे पर कोई टायर नहीं बिकता था.
महिंद्रा ऐंड महिंद्रा के प्रेसीडेंट (ग्रुप एचआर और आफ्टर मार्केट) और ग्रुप मैनेजमेंट बोर्ड के सदस्य राजीव दुबे कहते हैं, ''हमारा मानना है कि अधिक महिलाओं को रखने से बढ़त मिलती है. हमने देखा है कि तब अभिनव प्रयोग होते हैं. महिलाएं प्रायः ऐसे विचार रखती हैं जिन्हें पुरुष नहीं बता पाते.'' ज्यादातर कंपनियों में यौन उत्पीड़न के खिलाफ नीति है, लेकिन उस पर अमल में ढिलाई के चलते वह महज दिखावा है.
बीटी-पीपुलस्ट्रांग ने 175 महिलाओं का सर्वेक्षण किया जिनमें 80 फीसदी को मालूम था कि उनकी कंपनी में ऐसी नीति है, लेकिन 90 फीसदी का मानना था कि उस नीति को लागू नहीं किया जा रहा है. ग्रांट थॉर्नटन, इंडिया के साझीदार सी.जी. श्रीविद्या का कहना है कि अच्छी बात यह है कि ''भारतीय कंपनी जगत महिलाओं की प्रतिभा और संगठन के विकास में उनकी भूमिका को समझने लगा है.''
(यौन उत्पीड़न, स्त्री-पुरुष भेदभाव के बारे में बताने वालों की पहचान छिपाने के लिए उनके नाम बदल दिए गए हैं)