वह देखना चाहती है
अपनी आंखों से संसार की
ख़ूबसूरती और उसमें छिपे
बदसूरत अनगढ़ पत्थरों को
ताकि बना ले एक सेतु सा संसार
और अपने बीच।
वह सुनना चाहती है
हवाओं में घुली हर बात
उनमें छिपे
मीठे, तीखे, नमकीन एहसास
को कानों में घुलाना
ताकि गा सके
एक सच्चा गीत।
वह छूना चाहती है
अपने अन्तर्मन में उलझी
हुई ग्रन्थियों को
ताकि सुलझा ले सारी गांठें
और बुन ले इक
सुन्दर-सुनहरा सा स्वप्न।
वह बातें करना चाहती है
स्वयं से निरन्तर
ताकि तहखानों में छिपे
सारे भावों, स्वप्नों, कुंठाओं
को मिला रच ले एक कविता।
वह उड़ना चाहती है
अपने अनदेखे पंखों को पसार
अपने ही कल्पित आकाश में
ताकि ढूंढ ले अपने होने का अर्थ
अपने आप के लिये। ये कविता वाराणसी की रहने वाली आराधना सिंह ने भेजी है.