जो लोग इतिहास में रुचि रखते हैं, उनको चंदेरी जरूर जाना चाहिए. भले ही मध्य प्रदेश की इस जगह को दुनिया चंदेरी की साड़ियों की वजह से जानती हो, लेकिन यहां का हर कोना बीते समय की कोई न कोई दिलचस्प गाथा सुनाने को बेताब नजर आता है.
चंदेरी में भव्य प्राचीन किलों व इमारतों के अलावा हजार से भी ज्यादा साल पुरानी चतुर्भुजी, अष्टभुजी मूर्तियों का ऐसा अकूत भंडार है कि वे यहां के दो मंजिला संग्रहालय में भी समा नहीं रहीं.
यहीं शहर की पूर्वी पहाड़ी पर पं. बैजनाथ मिश्र उर्फ बैजू बावरा की समाधि है. बताते हैं कि उन्होंने अकबर के नवरत्नों में से एक संगीत सम्राट तानसेन को हराया था. उन्हीं की समाधि पर बसंत पंचमी पर एक दिन का ध्रुपद उत्सव हुआ. नगर के बीचोबीच पुरानी किस्म की ईंटों के, सुघड़-सलीके से बने तिमंजिला राजा-रानी महल के खुले अंत:पुर में सफेद चादरों पर प्रथम बैजूबावरा ध्रुपद उत्सव की महफिल सजी.
पहाड़ियों से घिरे नगर में शाम की आरतियां और अजाने गूंज चुकने के बाद मशहूर ध्रुपद गायक गुंदेचा बंधुओं ने बैजू बावरा की ही एक बंदिश को लेकर आलाप भरा. एक महत्वपूर्ण सांगीतिक घटना का आगाज हो चुका था.
श्रोताओं में आधुनिक वेश वालों के अलावा धोती-कुर्ताधारी और इत्र लगाए लोग भी मौजूद थे. बसंत पर निराला की एक रचना को गाने के बाद गुंदेचा बंधु बुनकरों के इस नगर में कबीर की झीनी चदरिया पर आ गए. इस निर्गुण के गाए जाने की घोषणा होते ही लोगों ने जमकर तालियां बजाकर सुधी श्रोता होने का परिचय दिया. राग चारुकेशी में इस प्रस्तुति के बाद तो खैर ताली बजी ही.
चंदेरी सचमुच अपने एक अलग ही समय में जीता दिखता है. किसी भी पुरानी इमारत पर चढ़कर देखें तो बस बिजली के तार ही हैं, जो पुरातनता के इल्युजन को तोड़ते नजर आते हैं. न ज्यादा शोर और न ही चारों ओर भागमभाग. फर्श पर कुछ फुटकर फाख्ते और फुदकते कबूतर. बुंदेलखंड की यहां की बावड़ियां पानी से लबालब हैं.
हालांकि पतझड़ में आसपास के दरख्त नंगे होकर कंकालों की बारात-से दिखते हैं. लेकिन यहां की ऐतिहासिकता! उफ. कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी तो आखिरकार बोल ही पड़े, 'देश-दुनिया में इतना घूम चुका हूं पर अब लगता है, कितना कम देखा है.' खैर, उन्हीं के इसरार पर नगर के सुधीजन ध्रुपद उत्सव को हर साल बैजू बावरा के निर्वाण दिवस बसंत पंचमी पर और भव्य ढंग से करने की हामी भरते हैं. आयोजक श्री अचलेश्वर महादेव मंदिर ट्रस्ट के लिए शुभ संकेत है यह.