सुबह के यही कोई छह बजे होंगे. टेंपो वाले बोहनी के तौर पर फुटकर सवारियां लादकर रामघाट पहुंचने लगे हैं. कल पूर्णिमा थी. आज प्रतिपदा है. घाट को रास्ता दिखाते चौड़े पथरीले तिराहे पर एक अम्मा मुट्ठा भर दतून लिए बैठी है. अम्मा कितने की दी? 'एक-एक रुपया, लेहौ?' थोड़ा आगे घाट पर घुसते ही जमीन पर सजी घोड़े की नाल की अंगूठियां. कितने की? ‘दद्दस रुपया.' बगल में रखे साउंड प्लेयर पर छह मिर्ची और एक नींबू की माला टंगी हुई है. शायद कुछ बुरी बलाएं आसपास हों.
रिकॉर्ड लगातार उद्घोषित कर रहा है कि यह अंगूठी पहनी तो जीवन में कितना बदलाव होने वाला है. और ये जनेऊ कित्ते की? 'पांच रुपए की.' यहीं एक किनारे मिठाई की अभी सज रही दुकान पर एक मैना फुदक रही है: उड़ि-उड़ि बैठी हलवइया दुकनियां...और हां तांबे के, पीतल के लोटे में बेलपत्र, धतूरे. 5 से 10 रु. के सेट. दुकानों के आगे 10-15 मीटर का चौड़ा पाट, फिर मंदाकिनी में उतरने के लिए सीढिय़ां, यही कोई 15-20 खड़ी-खड़ी. ऊपर ही कुछ नाई सिर छील रहे, कुछ प्रतीक्षारत. हजारों नहीं तो कई सौ लोग 400-500 मीटर तक फैले घाट पर डुबकी लगा रहे. सीढिय़ों के बीच तीर्थ पुरोहितों के तख्त.
यही वह चित्रकूट का घाट है, जिसका नक्शा संवारने के लिए केंद्र सरकार ने हाल ही रामायण सर्किट की योजना बनाई है. कृष्ण और बुद्ध सर्किट को और मिला लें तो 300 करोड़ रु. खर्च करने की उसकी मंशा है. घाट के लोगों को बिल्कुल पता नहीं कि आने वाले दिनों में यहां क्या बदलेगा क्योंकि यहां सदियों से ज्यादा कुछ बदला नहीं है. हां, नहाने के बाद सीढि़यों पर ही लोग कपड़े जरूर बदल रहे हैं, स्त्रियां भी क्योंकि उनके लिए अलग से कोई इंतजाम तो है नहीं.
घाट के दूसरी ओर एक मंदिर के लाउडस्पीकर से सुंदरकांड का पाठ सस्वर और उत्साहपूर्ण ढंग से कुछ संत कर रहे हैं. इस ओर एक सूचना केंद्र से लगातार उद्घोषणा ... 'गंगा मैया में तेल, साबुन और शैंपू लगाकर न नहाएं. ऐसा करना दंडनीय है, दीपदान करवाने वाली लड़कियों को पैसे न दें, अजनबी लोगों से बचकर रहें.' मंदाकिनी को यहां गंगा ही कहते हैं. उसका जल करीब-करीब ठहरा हुआ है. किनारों पर लंबी घासें, थर्मोकोल की प्लेटें, दोनें, राजश्री गुटकों के खोल, शैंपू के पाउच और फूलमालाएं तैर रही हैं. एक स्वस्थ गाय सीढिय़ों के बीचोबीच टहल रही है.
मौका मिलते ही उसने एक भक्त की चावल की लाई की थैली झपटी. भक्त ने उसके मुंह पर मारा, झीन-झपट में थैली फट गई पर गैया ने छोड़ा नहीं. वह पॉलीथीन को लाई, नमकीन, नमक (और शायद सिंदूर) की पुडिय़ा समेत सब चबा जाती है. बाद में सीढिय़ों पर बिखरे दानों को भी साफ करती है. कुछ लोग नहाकर निकलने के बाद उसके पैर छूते हैं. थोड़ी देर पहले का ही प्रकरण शायद उन्हें पता नहीं. एक छोटी गाय उस बड़ी गाय को पीछे से धकेल रही है. सीढिय़ों पर सबसे ऊपर एक बड़ा बछड़ा भी गौ युगल के पास जाना चाह रहा है पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा. नई परियोजना में शायद इसके भी नीचे मंदाकिनी तक जाने का कोई रास्ता बन जाए. सीढिय़ों पर और ऊपर भी बिखरे काले-चिकने गोबर में अनाज के छोटे-बड़े दाने भी हैं. इसके सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थ निकालना चाह रहे हैं? निकालिए निकालिए.
लीजिए, अब सात बजने को आ गए हैं. खुले आसमान में सूरज तेजी से चढ़ता आ रहा है. अभी से ही उसकी तपिश महसूस होने लगी है. उद्घोषणा कक्ष में अब किसी कम उम्र बालिका ने माइक संभालकर सूखी-औपचारिक-सी सतर्कता सूचनाओं को जीवंत बना दिया है: ‘‘गंगा में तेल-साबुन लगाके नहाओगे तो जुर्माना लगेगा, जुर्माने से बचना होय तौ साबुन मत लगाना.’’ गले में रुद्राक्ष और काले धागों समेत कई तरह की मालाएं पहने एक युवक ने इधर शैंपू का पाउच दांत से फाड़ा, हथेली पर निचोड़ा और घुंघराले बालों में घना झाग लादे हुए मंदाकिनी में छलांग लगा दी. उधर सुंदर कांड का पाठ अब आखिरी दौर में है: विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति, बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीति. पर राम तो चित्रकूट में 12 साल रहकर गए हैं. थोड़ा तो अपनापा हो ही गया होगा. यहां इतना सब देखकर भी किसी तरह का!!!
खैर छोडि़ए. तमा संत-महात्मा, स्थानीय और भद्र जन नहाकर जा चुके हैं. अब कुछ आंचलिक महिलाएं नहाते हुए बतिया रही हैं, जिसमें संकेत यह है कि उन्हें यहां से मैहर जाना है, जो विद्या की देवी सरस्वती का तीर्थ है और जो यहां से 115 किमी दूर है. तीर्थ पुरोहित की टोकरी में 10-10 रुपए के बहुत-से नोट गिरे हैं. धीरे-धीरे घाट पर शांति छाने लगती है. दतून वाली मां 25-30 दतूनों का अपना बंडल लेकर वापस जा रही है, बिक्री न होने से थोड़ी निराश-सी. लेकिन धारा में थोड़ा ऊपर, कुनबे के अपने दो संगियों को किनारे बैठाकर एक लाल बंदर मंदाकिनी में गहरी डुबकी मार रहा है गर्मी से बचने को. और लीजिए इतनी हलचल के बीच चित्रकूट के घाट पर भी मानसून छाने लगा है.