‘मगरमच्छ को गोबर बहुत पसंद है सर. उसे ढूंढ़ते हुए वह कई किलोमीटर तक चला जाता है.’ 50-55 के बीच की उम्र के रामरूप नाविक के हाथों में स्टीमर का हैंडल है, पैनी आंखें कभी सामने नदी पर, कभी ऊंचे आसमान में, और साथ में वह इस जगह के बारे में मुझे जानकारी दे रही हैं.
उत्तर प्रदेश में बहराइच जिले की नेपाल से लगती यह कतर्नियाघाट वाइल्डलाइफ सेंक्चुरी और उसी में बहती गेरुआ नदी पर यह दृश्य. उस ओर दिख रहा फूस के 40-50 घरों का गांव कनर्निया घाट और करीब एक किमी चौड़ा नदी का पाट. नीचे लहराती वाटरग्रास.
नदी के बीच छोटे-से टापू पर वो रहा घड़ियालों का जोड़ा और उनके बगल में ही धूल सेंकता लंबा मोटा मगरमच्छ. ‘ऊपर चिड़ियों का झुंड देख रहे हैं ना, ये साइबेरिया के हैं. अब इन्हें वापस जाना है, इसलिए छोटी-छोटी उड़ान भरकर पंखों को खोल रहे हैं.' रामरूप एक बार फिर दिलचस्प पहलू सामने रखते हैं.
वन्य जीवों से गुलजार
यही कोई 550 वर्ग किमी में फैला कतर्निया घाट वन्यजीव विहार कुछ मायनों में देश के कई राष्ट्रीय अभयारण्यों से ज्यादा समृद्ध है. यहां के प्रभारी अधिकारी डीएफओ आशीष तिवारी की मानें तो पिछली गिनती में पाए गए 24 टाइगर अब 30 से ऊपर पहुंच चुके हैं. हाथी तो 40 से 45 हैं. चार गैंडे भी हैं.
200-300 गिद्ध, अजगर और कई दुर्लभ सांप भी हिमालय की तलहटी के इस जंगल में मिले हैं. चीतलों की तो गिनती ही क्या! कई हजार. लेकिन जाना यह घड़ियालों की वजह से जाता है, जो कि विलुप्त होते जीवों के दर्जे में हैं.
पूरी नदी में वे कभी यहां ‘बुलुक’ से सिर और थूथन निकालते हैं तो कभी मझधार में. और वहां दूर मीलों फैले गहरे जल में डूबे अकेले काले ठूंठ पर? ओह, कछुआ. पूरी लंबी गर्दन उठाए बुद्ध-सा बैठा. यहां-वहां फैले पनकौवे, स्नेक बर्ड, व्हिस्लिंग बर्ड्स आदि-आदि.
इस नदी के पश्चिमी तट पर बेंत, सेमल, गूलर और दूसरी वनस्पतियों की फूलती-झरती बहुरंगी गाछ और नीले जल में दूर तलक लंबाती उनकी छायाएं इसे दुनिया के सुंदर से सुंदर नदी तटों के बरक्स रखती हैं. तांबई लाल, मीठे महुए से पीले, अंगूरी हरे...कैसे-कैसे रंग. और उसी बीच से यह पतली धारा कहां निकल चली! अरे, यह तो एमेजन की झलक देती है.
जल पर झूलती डालें, पीछे ऋषियों से कतारबद्ध, मोटे-चिकने, चितकबरे, तने हुए खड़े, झर चुके सेमल. एक-एक वृक्ष मनुष्य शरीर की शिराओं सा छितरा हुआ. पर कैसा नाम? मैला नाला.
रामरूप इस नदी को तैरकर पार करने का जज्बा रखते हैं. खतरा बस मगरमच्छों का ही रहता है, जो इस क्षेत्र में कइयों को निगल चुके हैं. खैर, गेरुआ नदी 6-7 किमी आगे बढ़कर अपने से भी विशद आकार की कौडियाला नदी में मिलेगी, वहीं गिरजापुरी बैराज होगा और फिर दोनों अपनी पहचान खोकर एक नई नदी बन जाएंगी. 'घाघरा' वही घाघरा, जो राम की अयोध्या होते हुए जाकर गंगा को अपना पानी देगी.
यह रहा नेपाल...
कतर्निया घाट से दो जिला मुख्यालय बहराइच और लखीमपुर खीरी पूरब और पश्चिम में 70 से 100 किमी के लपेटे में हैं और राह भी थोड़ी कठिन है. नेपाल उत्तर ओर ड्यौढ़ी से लगा हुआ. वहां अंतरराष्ट्रीय सीमा के करीब 10-10 मीटर इधर-उधर नो मैंस लैंड में नेपाली घसियारिने और कुछ निठल्ले मर्द यहां-वहां बीड़ी पीते मिल जाएंगे.
कुछ नेपाली बिछिया स्टेशन से ट्रेन पकड़ने के लिए घने जंगल से होकर लपके जा रहे हैं, तो कुछ भारतीय बनिए साइकिल पर सौदा लादकर उधर के गांवों में जा रहे हैं. इतनी आवाजाही! नेपाल मित्र देश है ना. डिप्टी रेंजर रमेश चंद्र बेबाकी से टिप्पणी करते हैं.
रमेश बोलते कम ही हैं. तो फिर क्या करते हैं? उत्तर भारत में उनकी ख्याति जंगल के तेंदुओं को हैंडल करने वाले मास्टर की है. आधी रात घने सन्नाटे में नाव पर बैठकर शिकारियों पर छापा मारने को कहिए, खाना छोड़कर चल देंगे.
नेपाल में उस ओर कतर्निया घाट से लगा और इससे दोगुना बड़ा बरदिया राष्ट्रीय अभयारण्य है, जहां के गैंडे और दूसरे वन्यजीव कई दफा इधर आ जाते हैं क्योंकि इधर ग्रासलैंड ज्यादा बताई जाती है. लेकिन घने जंगल में कई मजारें और मंदिर भी वन्यजीवों के शांत आशियाने में घुसपैठ करते और उन्हें चिढ़ाते लगते हैं.
शाम यहां जल्दी घिरती है. अनुभव करना हो तो भीतर कहीं जाकर खड़े हों. घना अंधेरा, परिंदों का कलरव, झींगुरों का ऑर्केस्ट्रा. पगडंडी पर वह एक जोड़ी तेज चमक कैसी...श्श्श्श...‘अरे सर, यह नाइट जार है. एक तरह का उल्लू. पास पहुंचते ही भग लेगा. पर्यटकों के साथ खेलता है ये.’पार्क के एक ड्राइवर, गाइड और वन्यजीवों को जान से ज्यादा चाहने वाले यमुना विश्वकर्मा सूचित करते हैं. और एक किलोमीटर की दूरी पर अब इस घुप्प अंधेरे में कल-कल बहता झरना. रोमांचित तो करता है पर झुरझुरी भी छूट रही है. क्योंकि बकौल यमुना, ‘इस किनारे पर टाइगर अक्सर पानी पीने आते हैं.’ क्या सचमुच?
रेल की छुक-छुक और जंगल का सन्नाटा
कतर्निया घाट कभी रेलवे स्टेशन भी था, जब गोंडा की ओर से छोटी लाइन की गाड़ी गेरुआ नदी के किनारे बस यहीं अंतिम सीटी देती थी. यानी आखिरी स्टेशन. गिरिजापुरी के पास नदी पर सड़क और रेलपुल बन जाने से नक्शा बदल गया. लेकिन पटरी रहित स्टेशन की वीरान उजड़ी इमारत अब भी ठोस इतिहास की तरह सन्नाटे में बोलती खड़ी है.
मानो भरे गले से कह रही हो, अब यहां कोई टिकट नहीं कटाता . इस जंगल का सबसे सुकून वाला पहलू है इसका किसी भी मोबाइल के सिग्नल से परे होना, सिवा बीएसएनएल के. दूसरा, अखबार भी यहां नहीं आता. सुबह चार बजे आसमान छूते सागौन के चौड़े पत्तों पर ओस की मीठी सुरीली ‘टप्प टप्प’ आपकी नींद खोल सकती है. थोड़ी देर बाद झीने-झुटपुटे में परिंदे छोटी-छोटी उड़ाने भरने लगेंगे.
छह बजते-बजते हलदू के बुजुर्ग वृक्ष पर कम उम्र के लाल बंदरों के जोड़े मैथुन शुरू कर चुके होंगे. सागौन के एक दूसरे झुरमुट में शीर्ष पर तोतों के गुच्छे कुतरने से पत्तों पर नीचे तक ‘तड़तड़ तड़तड़’ का शब्द सिलसिला चल पड़ता है.
धूप चढ़ते-चढ़ते पत्तों की झरन का सिलसिला शुरू. लो एक टूटा, तने से टकराया और फिर डंठल के बल चूम ली जमीन. आवाज में कोई अनुगूंज नहीं. हां धरती के नीचे कोई लहर चली हो तो धरती जाने. कुछ पत्ते गोल-गोल घूमते गिरते हैं ‘तित्त’.
दूर एक परिंदे की आवाज जैसे पूरे जंगल को बेधे जा रही है ‘उटरूं उटरूं उटरूं...चार-छह आठ-दस दर्जनो बार. इसने तो जैसे आसमान ही सर पर उठा लिया है. ऐसे परिवेश में आपकी हल्की-सी पदचाप भी कितनी कृत्रिम, आक्रामक और अतिक्रामक लगती है, खुद ही महसूस करें . कभी-कभी दूर गुजरती ट्रेन और उसके इंजन की की मर्दाना आवाज जंगल के जिंदा-जीवंत जनानेपन को रौंदते हुए निकल जाती है.
जिंदगी और सुकून का संगीत
गेरुआ के किनारे ऊंट से दोगुने ऊंचे सेमल पर बने ट्री हट पर एक रात वीराने में बिताना आपकी जिंदगी के सबसे खूबसूरत लमहों में से हो सकता है. आइआइटी (दिल्ली) से इंजीनियिंरग पढ़े और अब वन्य जीवन में रमे आशीष तिवारी ने कई कोणों से गेरुआ के किनारे 70-80 पेड़ों को देखने-परखने के बाद बोटिंग प्वाइंट के पास सेमल के इस ऊंचे दरख्त पर यह अत्याधुनिक हट बनवाया है.
सामने दूर तक जल ही जल, अगल-बगल जंगल और नीचे शाम को जुटती सैकड़ों चीतलों की महफिल. सब जगह जिन्हें दुर्लभ माना जाता है, ऐसे चार प्राणी कतर्निया घाट वन प्रदेश के प्रमुख नागरिक हैं: घड़ियाल, मगरमच्छ, डॉल्फिन और गिद्ध. शायद तभी तिवारी ने इसकी टैगलाइन गढ़ी है 'व्हेयर रेयर इज कॉमन'.
हट से उतरकर आप जाने लगें तो नर्सरी में पलते नन्हे शरारती घड़ियालों में से कोई भी आपको आंख मारते हुए जैसे कह उठेगा. ‘अच्छा लगा तो हमारा आशियाना तो कतर्नियाघाट फिर आना...’. लेकिन जंगल की इस खला की असल अहमियत मितव्ययी शब्दों वाले रमेश चंद्र ही बताते हैं.
उनसे पूछिए कि यहां थक जाने पर आप मनोरंजन कैसे करते हैं? और जवाब सुनिए,‘हम जंगल के भीतर चले जाते हैं. हमारे लिए शांति से बड़ा कोई मनोरंजन नहीं. है कोई जो इसमें एक भी शब्द जोड़ सके!'