राजधानी दिल्ली के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में पांच साल की बच्ची मौत को हरा चुकी है लेकिन अजनबियों को देखकर सहम जाती है. यहां से हजार किमी दूर नागपुर में चार साल की एक और बच्ची अस्पताल के आइसीयू में कोमा में है, उसे वेंटिलेटर पर रखा गया है, उसका शरीर बुरी तरह नोंचा हुआ है और दिमाग में गहरी चोट लगी है. बीते 15 और 17 अप्रैल को इन दोनों बच्चियों के साथ हुए बलात्कार ने देश को झकझोर कर रख दिया है और एक दर्दनाक सवाल खड़ा कर दिया है—क्या इस देश में बच्चों को सुरक्षित जीवन का हक नहीं?
बदलाव से गुजर रहे इस देश के काले-अंधेरे पहलुओं से सतर्क हो जाएं. इसमें छुपा बैठा है एक संदिग्ध, एक आदमखोर, जो अपनी विकृत यौन पिपासा का शिकार सबसे कमजोर में तलाशता है, यानी बच्चे. वह सिर्फ एक और अपराधी भर नहीं है. न ही वह कोई एक और बलात्कारी ही है. वह आपका पड़ोसी हो सकता है, सगा-संबंधी भी और परिवार का परिचित कोई शख्स भी हो सकता है, जो अपना असली रंग दिखाने से पहले तक दूसरे लोगों की तरह बिल्कुल सामान्य नजर आता है.
दोनों बच्चियां अपने बलात्कारियों को जानती थीं—गारमेंट फैक्टरी में काम करने वाला 22 साल का मनोज कुमार साह पूर्वी दिल्ली की उसी बस्ती में रहता था जहां गुडिय़ा (नाम बदला हुआ) रहती थी. चार साल की बच्ची का बलात्कारी फिरोज खान 35 वर्षीय वेल्डर है जो बच्ची के परिवार से बखूबी परिचित था. इसी परिचय का फायदा उठाकर दोनों ने बच्चियों को सिर्फ एक चॉकलेट से फुसला लिया और उन्हें वे सुनसान जगह में ले गए. बच्चियों से बलात्कार की कहानी भारत की सबसे ज्यादा भयावह दास्तान है. इसने देश को झकझोर दिया.
इन मामलों से लोगों में गुस्से की नई लहर दौड़ गई है. दिल्ली में 23 साल की एक लड़की के साथ चलती बस में बलात्कार के चार माह बाद एक बार फिर यह देश सड़कों पर आ गया है. नारे लगाते सैकड़ों लोग सरकारी इमारतों के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं और पुलिस से लड़-भिड़ रहे हैं. सिर्फ महीना भर पहले संसद ने महिलाओं के खिलाफ अपराध पर आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक 2013 पारित करते हुए कड़ी सजा का प्रावधान किया था. इसमें मौत की सजा की बात भी कही गई थी. लेकिन मौत की सजा का डर भी अपराधियों के खौफनाक इरादों पर लगाम नहीं कस सका है. और अब सरकार मूक लाचार दर्शक बनी खड़ी है.
पूरे देश में बचपन खतरे में है. फरवरी 2013 की एक घटना लें जब एक रात गुडग़ांव में एक बच्ची खून से सनी रोती हुई पाई गई. कुछ घंटे पहले ही वह अपने घर के बाहर खेल रही थी. फिर किसी ने उसे एक युवक के साथ जाते देखा, संभवतः वह उसका कोई परिचित ही होगा. दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के डॉक्टरों के मुताबिक बच्ची के यौनांगों और छोटी आंत में आए जख्म गवाह थे कि बलात्कारी कोई एक नहीं बल्कि कई थे. मार्च में जयपुर में एक किशोरी को मंदिर ले जाने के बहाने उसका शिक्षक अपने दोस्त के घर ले गया और बलात्कार किया. अप्रैल में हैदराबाद में एक युवक को अपनी नौ साल की भतीजी का बलात्कार करने की कोशिश में गिरफ्तार किया गया था.
भारत में बलात्कार की हर तीन शिकार में से एक बच्ची होती है. दिल्ली स्थित एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, 2001 से 2011 के बीच भारत में बलात्कार के मामलों में 336 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और एक दशक में कुल 48,338 मामले दर्ज किए गए हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक बच्चों के साथ बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले मध्य प्रदेश में होते हैं. इसके बाद महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और फिर दिल्ली का नंबर आता है.
मानव अधिकारों की पैरोकार और नारीवादी मुखपत्र मानुषी की पब्लिशर मधु किश्वर कहती हैं, “यह तो सिर्फ एक झलक है. भारत में बच्चों के यौन उत्पीडऩ पर कोई विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है. बलात्कार के अधिकतर मामले बदनामी के चलते दबा-छिपाकर रख लिए जाते हैं.”
क्या बच्चों के बलात्कारी की कोई अलग पहचान होती है? एम्स में चाइल्ड ऐंड एडोलसेंट साइकिएट्री क्लीनिक और क्लीनिकल साइकोलॉजी की प्रोफेसर तथा प्रमुख डॉ. मंजू मेहता कहती हैं, “बच्चों का यौन उत्पीडऩ करने वाला शख्स दूसरे बलात्कारियों और अपराधियों से बिल्कुल अलग प्राणी होता है.” उनके मुताबिक जो लोग बच्चों से बलात्कार करते हैं, उनकी मानसिक दशा दूसरों से एकदम अलग होती है. उनमें बच्चों के प्रति एक आग्रह होता है. वे बताती हैं, “यह व्यक्तित्व में एक किस्म की विकृति है जो मनोवैज्ञानिक संरचना में मौजूद कुछ ब्लैक होल से पैदा होती है और इसकी तृप्ति बच्चों के यौन शोषण से ही होती है.” वे बताती हैं कि ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का एक स्थायी लक्षण उनके भीतर मौजूद हीन भावना होती है.
दूसरे बलात्कारियों और अपराधियों से उलट उनका व्यक्तित्व ऐसा होता है कि वे नकारात्मक व्यक्तित्व वाले होते हैं—वे अपनी आलोचना के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं, आत्ममुग्ध होते हैं और चाहते हैं कि हर कोई उनकी हां में हां मिलाए. मेहता कहती हैं, “इसी वजह से वे अलग-थलग पड़ जाते हैं, वयस्कों के साथ समान रिश्ते नहीं बना पाते और बच्चों को अपनी हीनता का शिकार बनाते हैं. इसके लिए वे आम तौर पर ‘दोस्तों’ के साथ योजना बनाते हैं, उनके माध्यम से आपराधिक गतिविधि का खाका तैयार करते हैं, सनकपूर्ण व्यवहार करने लगते हैं, सेक्स और मादक पदार्थों के चक्कर में पड़ जाते हैं और जिंदगी में उन्हें कभी अपराधबोध नहीं होता.
मनोज ऐसे व्यक्तित्व का एक सटीक उदाहरण है. बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित चिकनौटा गांव में 19 अप्रैल की रात जब पुलिस उसकी ससुराल पहुंची, तो वह अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने में व्यस्त था और उसके मोबाइल पर पोर्न वीडियो चल रहा था. उसने चुनौती देते हुए पुलिस से कहा, “आप किस मनोज की बात कर रहे हैं, मैं तो संजय कुमार हूं.” उसने काफी चालाकी से बचने की कोशिश की, लेकिन दिल्ली वाली बोली से वह पकड़ा गया जब उसके मुंह से ‘ओय’ निकला. दिल्ली जैसे बड़े शहर में गरीबी के बीच अपनी पहचान के साथ गुम हो जाना मनोज के लिए बड़ा आसान रहा.
जिस तीन मंजिला इमारत में गुडिय़ा रहती थी, वह उसी के बेसमेंट में 400 रु. के एक गंदे कमरे में किराये पर रहता था. उसकी जिंदगी कारखाने की गर्मी, मौसमी दोस्तों, देसी शराब की बोतलों, छिटपुट झगड़ों और मोबाइल फोन पर अश्लील वीडियो के इर्द-गिर्द बुनी हुई थी. मनोज ने सोचा भी नहीं था कि वह कभी पकड़ा जाएगा. गांव के मेले में घूमने-फिरने और खाने-पीने के बाद एक अच्छे दामाद की तरह वह अपने ससुराल वालों के लिए फल और मटन लेकर आया था.
बच्चों का शोषण करने वाले लोग अपने चेहरे पर दृढ़ता का मुखौटा इस तरह लगाए होते हैं कि वे बड़ी आसानी से अपने रहस्यों और रणनीतियों से दूसरों का ध्यान हटाकर खुद में उनका भरोसा पैदा कर लेते हैं. बच्चे आम तौर पर उनके साथ खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. बाल यौन शोषण का केंद्रीय स्थल घर ही होता है जहां 90 फीसदी मामलों में बच्चे को जानने वाला ही उसके साथ यौन छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार करने तक का दोषी होता है.
ऐसा बहुत कम होता है कि अजनबी आदमी अपराधी हो. अकसर यह बात सामने आती है कि स्कूल की बस या कार में घर आते वक्त शोषण हुआ और खासकर ऐसा उस आखिरी बच्चे के साथ होता है जिसे घर छोड़ा जाना होता है. अकसर स्कूल से घर जाते वक्त लड़कियों को कुछ लड़के रास्ते में कार में उठा लेते हैं और चलती कार में सामूहिक बलात्कार को अंजाम दे दिया जाता है. भारत में तो स्कूल के भीतर भी बलात्कार की घटना बेहद सामान्य है. दिल्ली के साइकोलॉजिस्ट डॉ. जितेंद्र नागपाल कहते हैं, “एक बच्चे को सबसे ज्यादा खतरा वहीं होता है जहां उसे सबसे अधिक लाड-प्यार और भरोसा मिलता है. आम तौर पर माता-पिता बच्चे की बात पर यकीन नहीं करते.”
चेन्नै स्थित तुलिर सेंटर फॉर प्रिवेंशन ऐंड हीलिंग ऑफ चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज की डायरेक्टर विद्या रेड्डी के मुताबिक इस प्रक्रिया को ‘ग्रुमिंग’ (तैयार करना) कहते हैं. वे बताती हैं, “यह एक लंबी प्रक्रिया होती है जिसमें बच्चे को शोषण की स्थिति तक ले जाने के लिए अपराधी पूरा दिमाग लगाता है.” वह बच्चे की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनने की कोशिश करता है, उसे उपहार देकर या घुमाकर उसका दिल जीतता है, उसके साथ खेलता है, उसके मां-बाप से हिल-मिल जाता है. यह सब कुछ सिर्फ शोषण करने के उद्देश्य से किया जाता है. आम तौर पर ऐसे शिकारी अकेले बच्चों को पकड़ते हैं जिन्हें प्यार की दरकार हो, जिनके परिवार में दिक्कतें हों या जिन पर किसी की निगरानी न हो. वे बताती हैं, “इसलिए जब घटना हो जाती है, तो बच्चा बुरी तरह भ्रम में पड़ जाता है, खुद को दोषी मानता है और इस वजह से अकसर चुप रहता है.”
एक बदलते हुए समाज में यह समस्या बदतर शक्ल ले लेती है. एम्स में फॉरेंसिक मेडिसिन के प्रमुख डॉ. टी.डी. डोगरा बताते हैं, “एम्स में बिताए अपने 42 वर्षों के दौरान बच्चों से बलात्कार के मामले हमारे पास कभी-कभार ही आते थे, लेकिन अब ऐसे तमाम मामले आने लगे हैं जिनमें बच्चों को गंभीर जख्म होते हैं.” वे तीन साल पहले की एक घटना याद करते हुए बताते हैं जिसमें यौन शोषण के लिए बच्चे का गला दबा दिया गया था और वह ‘सुक्सुअल ऐसफिक्सिया’ का संदिग्ध मामला था.
डोगरा कहते हैं, “भारत में ऐसा अपराध असामान्य है, हालांकि पश्चिमी फॉरेंसिक उदाहरणों में यह आम है.” डोगरा मानते हैं कि बच्चों के साथ जो नए किस्म के अपराध हो रहे हैं, वे एक ऐसे बदलते समय की ओर संकेत करते हैं जहां सामुदायिक रिश्ते तबाह हो चुके हैं और पारिवारिक एकजुटता को नुकसान पहुंचा है. वे कहते हैं, “ऐसे अधिकतर मामले हमारे पास समाज के निचले तबके से आते हैं. इसी तबके के लोग शायद सबसे ज्यादा पलायन कर रहे हैं, अपने परिवार से जुदा हो रहे हैं और यौन सुख से वंचित होते जा रहे हैं.”
समाजशास्त्री भी दो अलग-अलग भारत की कहानी कहते हैं. कोलकाता के सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज में समाजशास्त्री मानस रे कहते हैं, “भारत की नई समृद्धि के बीच व्यापक गरीबी के चलते जो फर्क पैदा हुआ है वह देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है.” नब्बे के दशक के बाद से भारत के आर्थिक विकास की कहानी काफी चमकदार रही है लेकिन यहां के शहरों में गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाली आबादी भी दुनिया में सबसे ज्यादा हो गई है. उनके मुताबिक भारत में जाति, संबंधों और सामुदायिकता की वजह से ऐतिहासिक रूप से पलायन कम रहा है लेकिन गांवों में रोजगार के सिमट चुके मौकों की वजह से ज्यादा से ज्यादा ग्रामीण युवा अब शहरों की ओर भाग रहे हैं.
1951 में भारत की शहरी आबादी 6.2 करोड़ थी जो समूची आबादी का सिर्फ 17 फीसदी थी. 2011 तक यह बढ़कर 37.7 करोड़ यानी आबादी का 31 फीसदी हो गई है. अच्छे अवसरों की तलाश कर रहे गरीबों के लिए शहर चुंबक का काम करते हैं. वे यहां आकर शहर की गहराइयों कहीं खो जाते हैं. रे कहते हैं, “बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी को आंशिक तौर पर शहरी गरीबों के गुस्से के तौर पर समझा जा सकता है. बच्चे और महिलाएं इसका आसान शिकार होते हैं. और वैसे भी बलात्कार तो हमेशा से ही जंग का एक औजार रहा है.”
कोलकाता के मनोचिकित्सक डॉ. अनिरुद्ध देब कहते हैं, “बच्चों के बलात्कारियों के मामले में बुनियादी वजह ताकत से जुड़ी होती है. यह एक ऐसा शख्स होता है जो कमजोर है, जिसके भीतर कहीं गहरे असंतोष जमा है, दूसरे की भावना और हक के प्रति उसके मन में घोर उपेक्षा है और वह खुद से गुस्सा है जो दूसरे पर निकलता है.”
उनके मुताबिक एक बच्चे का यौन शोषण या बलात्कार ऐसे लोगों के लिए नियंत्रण और सत्ता का मामला ज्यादा होता है, “और ऐसे लोग हमेशा से रहे हैं और हमारे चारों ओर हैं.” वे चेतावनी देते हैं कि अपने बच्चों को लेकर सतर्क रहें चाहे वह किसी उम्र के किसी भी शख्स के साथ क्यों न हो. वे कहते हैं कि बच्चों से सुरक्षित और असुरक्षित स्पर्श के बारे में बात करें, उन्हें निजी सुरक्षा की शिक्षा दें, उम्र के हिसाब से जानकारी दें, कौशल विकसित करें और आत्मसम्मान को बढ़ावा दें. उन्हें बताएं कि उनका शरीर उनका है, किसी अन्य को उसे इस तरह छूने का अधिकार नहीं है जो उन्हें पसंद या समझ न आए.
पूर्वी दिल्ली के गांधीनगर में गलियों के नाम नहीं हैं. रिक्शा, ठेलों, आवारा पशुओं और इंसानों से भरी गलियां इस इलाके में दूसरी गली में जाकर कहां खो जाती हैं, पता ही नहीं लगता. यहीं एक पुरानी सीलन भरी इमारत में गुडिय़ा को उसके शरीर में बोतल के टुकड़ों और तीन मोमबत्तियों के साथ मरने को छोड़ दिया गया था. आज डॉक्टरों की मदद से वह ठीक हो रही है और जल्द ही अपने स्वर्ग जैसे ‘घर’ में वापस आ जाएगी. सवाल है कि क्या वह पहले जैसे दौड़ सकेगी, खेल सकेगी? क्या वह दोबारा उस कमरे से सटी सीढिय़ों पर उछलकूद मचा सकेगी जहां उसे खून से लथपथ छोड़ दिया गया था? क्या वह अपना अतीत भूल सकेगी? क्या फिर वह किसी पर भरोसा कर सकेगी? इस देश का बचपन गुडिय़ा की ही तरह छिन चुका है. क्या इस देश को गुडिय़ा की कहानी कल याद भी रहेगी?
—साथ में अमिताभ श्रीवास्तव, जयंत श्रीराम, अदिति पै और अमरनाथ के. मेनन और अशोक प्रियदर्शी